पेड़ सूखने के बाद जब उसमें से एक कोंपल फूटती है, तो ये सिर्फ पेड़ के हरे होने का संदेश नहीं होती, बल्कि संदेश होती है एक नई जिंदगी के शुरू होने का। मंगल शाह द्वारा शुरू हुई संस्था पालवी यही संदेश, पूरे समाज को देती है कि जिन बच्चों को समाज ने HIV पॉजिटिव होने के कारण दुत्कार दिया है, उनमें भी जिंदगी है। आइए विश्व एड्स दिवस पर जानते हैं पिछले 24 वर्षों से अनगिनत HIV पॉजिटिव बच्चों की सेवा में जुटी मंगल शाह के दिल की बात, इस बातचीत के साथ।
एड्स से जुड़ी गलतफहमियों ने दिखाई राह
पालवी की शुरुआत मैंने और मेरी 16 वर्षीय बेटी डिंपल ने मिलकर की थी। दरअसल उस दौरान हम संस्कार केंद्र चलाते थे और विशेष रूप से वेश्या की बस्तियों में जाकर बच्चों को संस्कार देने का काम करते थे। एक दिन जब हम वहां गए तो हमने देखा कि वहां एक गाड़ी आई है और उन्होंने पैकेट भरकर कॉन्डोम उन्हें दिया। जब हमने इसके बारे में पूछा, तो वहां खड़ी एक महिला ने पास ही के घर के बाहर पड़ी एक औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा, “अगर हम इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे तो उस औरत की तरह हमें भी एड्स हो जाएगा।” यह पहला मौक़ा था जब हमने एड्स के बारे में सुना था। हम उस औरत के पास जाने लगे तो सब हमें मना करने लगे कि अगर आपने इन्हें छुआ तो आपको भी एड्स हो जाएगा। उस औरत को देखकर मुझे बहुत दया आई क्योंकि उसकी हालत बहुत बुरी थी। फिलहाल उस वक्त तो हम उसके पास नहीं गए लेकिन जब हमने डॉक्टर के पास जाकर इसके बारे में जानकारी जुटाई तो मुझे लगा कि एड्स को लेकर लोगों के मन में जो गलतफहमी है उसे दूर करना बहुत जरूरी है, वरना दवाइयों से पहले लोगों की इग्नोरेंस से ही मरीज मर जाएगा।
हर घर में जाकर एड्स के बारे में समझाना मुश्किल था, ऐसे में मेरी बेटी, जो छोटे-छोटे नुक्क्ड़ नाटक और स्किट किया करती थी, ने ‘यज्ञ कुंड’ नामक एक छोटा सा नाटक तैयार किया और इस नाटक के जरिए हमने गांव-गांव जाकर एड्स के बारे में बताना शुरू किया। इसी तरह नाटक के दौरान जब हम एक गांव में गए तो हमने देखा एक घर के बाहर, जहां गाय भैंस बांधते हैं, वहां दो छोटे बच्चे पड़े हैं। मैंने उनके घरवालों से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे HIV पॉजिटिव हैं और उन्हें वे घर में नहीं रखना चाहते। जब हमने उन्हें समझाने की कोशश की तो उन्होंने हमें कहा कि अगर हमें इतनी फ़िक्र है तो इन बच्चों को हम अपने साथ ले जाइए। उनकी बातें सुनकर अपनी बेटी डिंपल की बात मानकर मैं उन्हें अपने साथ ले आई। हमने सोचा था कि हम उन्हें किसी अनाथाश्रम में भर्ती कर देंगे लेकिन सोलापुर डिस्ट्रिक्ट में ऐसे बच्चों के लिए कोई ऐसी आश्रम नहीं था। ऐसे में हमने यह तय किया कि ऐसे बच्चों के लिए हम घर बनाएंगे और इस तरह 2001 में उन दो बच्चों से पालवी की शुरुआत हुई।
फिलहाल 2 बच्चों से शुरू हुआ पालवी परिवार पिछले 24 सालों में 150 HIV पॉजिटिव बच्चों से गुलजार हो चुका है। इनमें से कई बच्चे अपने पैरों पर खड़े भी हो चुके हैं। कई लड़कियों की हमने शादी भी करवाई है, जिनमें से अधिकतर मां बन चुकी हैं और उनके सारे बच्चे स्वस्थ हैं। ये साइंस का चमत्कार है कि HIV पॉजिटिव होने के बावजूद प्रेग्नेंट महिलाओं के बच्चे निगेटिव होते हैं और ये बात सभी को समझनी चाहिए। हालांकि अब काफी बदलाव आ गया है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। मुझे याद है जब हम इन बच्चों के साथ जुड़े थे, तो आस-पास के लोगों के साथ हमारे रिश्तेदारों ने भी हमसे दूरी बना ली थ। न वे हमारे यहां आते थे और न हमें अपने यहां किसी फंक्शन में बुलाते थे। और तो और इन बच्चों को रहने के लिए जब हमने एक घर बनाने की कोशिश की तो लोगों ने हमें जगह भी नहीं दी, फिर पंढरपुर से 10 किलोमीटर दूर जगह लेकर हमने इनके लिए घर बनाया। उस समय यहां बस की भी व्यवस्था नहीं थी, सिर्फ टमटम हुआ करती थी, तो जिन्हें पता होता था वो हमें अपनी टमटम में भी नहीं बिठाते थे। हालांकि अभी भी बहुत ज्यादा नहीं बदलाव नहीं आया है। जो शिक्षित हैं, वे समझते हैं लेकिन ज्यादातर इस पर बात ही नहीं करना चाहते।
मेरी वजह से मेरे बच्चे सोशियल वर्क में काफी रूचि लेते थे, लेकिन मेरे हस्बैंड हमेशा इससे दूर रहे। जब HIV पॉजिटिव बच्चों की बात आई तो उन्होंने मुझे साफ कह दिया कि तुझे सोशियल वर्क करना है तो कर लेकिन घर से बाहर जाकर। इन बच्चों को मैं घर पर नहीं रखूंगा। ऐसे में मैं घर के बाहर बने आर्टहाउस में इन बच्चों को लेकर रहने लगी. कुछ सालों तक यही चला फिर मैंने अपने बच्चों के साथ बैठकर उनके लिए एक अपना घर बनाने की योजना बनाई। तब तक मेरे बच्चों की शादी भी हो गई थी और ये मेरा सौभाग्य है कि मेरे काम में मेरे दामाद और बहू ने भी मेरा साथ दिया। अब तो मेरे बच्चों के साथ उनके बच्चे भी इस काम से जुड़ गए हैं। संस्था के कंस्ट्रक्शन का काम मेरा बेटा आशीष देखता है, तो मेरी बेटी का बेटा तेजस प्रेजेंटेशन बनाकर कॉर्पोरेट के जरिए फंडिंग लेकर आता है। मेरी पोती कोमल बच्चों की सायकोलॉजी समझते हुए उन्हें संभालती भी है और पढ़ाती भी है। मैं बहुत खुश हूं कि पालवी परिवार लगातार बड़ा होता जा रहा है और निश्चिंत भी कि मेरे न रहने पर भी इसका ख्याल अच्छी तरह रखा जाएगा।
अभी पिछले साल हमने 7 लड़कियों की शादी करवाई, जिसमें से 4 लड़कियां मां बन चुकी हैं। कई लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी हैं, जिनमें से कोई फैशन डिजाइनर है तो कोई ऑफिस में काम करती है। कई लड़कियां पालवी से जुड़ी हुई हैं और लीडर बनकर दूसरे HIV पॉजिटिव बच्चों को हौंसला दे रही हैं। लड़कियों की तरह ही कई लड़के अपना घर बसा चुके हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक राजू है, जो अब 26 साल का है। हमारे यहां यह बच्चे हस्तकला से बहुत सारी चीजें बनाते हैं, जिन्हें हम बेचते हैं। राजू उस डिपार्टमेंट का सुपरवाइजर है। वो जब 6 साल का था तब यहां आया था। तो ऐसे कई बच्चे हैं जो HIV पॉजिटिव होने के बावजूद स्वस्थ हैं और अपनी जिंदगी आराम से बिता रहे हैं। हाथों से बनी इन चीजों को बेचकर जो पैसा मिलता है, वो इन्हीं लोगों में हम बांट देते हैं। हमारा मकसद है रोजगार के साथ सम्मान भी मिले इन्हें। मनोरोगी महिलाओं की बात करें तो अभी ‘अपना घर’ में 25 मनोरोगी महिलाएं हैं और उतनी ही महिलाएं ठीक होकर वापस अपने घर जा चुकी हैं। इन बच्चों के लिए एक स्कूल भी है, पालवी ज्ञान मंदिर, जहां से दसवीं कक्षा की 7 बैच निकल चुकी है और सभी का रिजल्ट 100 प्रतिशत रहा है।
शुरू-शुरू में फंडिंग की दिक्क्तें काफी होती थी लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि बच्चों को खिलाने की कमी हुई हो। हां संस्था बनाने के लिए जब जमीन खरीदने की बारी आती है, तो पैसे कम पड़ जाते थे लेकिन अब तेजस और लोगों की मदद से यह परेशानी काफी हद तक दूर हो चुकी है। हालांकि शुरू-शुरू में आर्थिक परेशानियों को देखते हुए हमने सरकारी मदद के लिए भी काफी कोशिश की लेकिन मैनपावर कम और शहर से दूर होने के कारण हम बहुत ज्यादा भाग-दौड़ नहीं कर पाए। फिलहाल मैं बेहद खुश हूँ कि हमें कई अच्छे लोगों का साथ मिला और उनकी वजह से कोरोना के बाद हमने ‘अपना घर’ नामक एक संस्था शुरू की है, इसमें विशेष रूप से मानसिक रूप से बीमार महिलाओं की देखभाल की जाती है। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिन महिलाओं का परिवार है और वे उनका ख्याल रख सकते हैं, वे भी उन्हें छोड़ देते हैं।
मनोरोगी महिलाओं को संभालना बहुत मुश्किल काम है. मुझे याद है आज से कुछ सालों पहले हमारे यहां विदर्भ से एक प्रेग्नेंट महिला आई थी। जब उसे डिलीवरी के लिए अंदर ले जाया गया तो उसने डॉक्टर पर हमला कर दिया। उस महिला को इस कदर हिंसक देखकर डॉक्टर बहुत गुस्से में आ गए, तब मेरी बेटी ने उन्हें बताया कि इसका शारीरिक शोषण हुआ है, इसलिए ये ऐसा कर रही है। उनकी बातें सुनकर डॉक्टर ने उसकी डिलीवरी की। अब वो काफी अच्छी हो गई है, और हमारी संस्था में रहकर अपने बेटे के साथ दूसरे बच्चों का भी ख्याल रखती है। इसी तरह आज से 22 साल पहले वर्ष 2002 में हमारे पास एक 5 साल का अनाथ HIV पॉजिटिव बच्चा आया था, जिसके सिर में गहरी चोट लगी थी और डॉक्टर ने कह दिया था कि यह बच्चा छ: महीने से ज्यादा ज़िंदा नहीं रहेगा। उसे मैंने आयुर्वेद के सहारे न सिर्फ ठीक किया बल्कि वो 25 साल जिंदा भी रहा। अभी 2 साल पहले ही उसकी मृत्यु हुई है। उसकी ड्रॉइंग बहुत अच्छी थी, तो जब हमारे राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जी सोलापुर आए थे तो इस बच्चे ने उन्हें उनका पोर्ट्रेट बनाकर भेजा था।
साइंस और टेक्नोलॉजी की इतनी तरक्की के बावजूद लोगों की मानसिकता नहीं बदली है। आज भी ऐसे HIV पॉजिटिव बच्चों को स्कूलों में एडमिशन मिलने में बहुत परेशानी होती है। ऐसे में हमारी कोशिश है कि हम एक विश्व कल्याण यूनिवर्सिटी बनाएं, जिसमें पढ़ाई के साथ 2 साल से लेकर 20 साल के बच्चों के रहने की व्यवस्था हो, जिससे हम बच्चों को अच्छे संस्कार के साथ अच्छी शिक्षा भी दे सकें। इसके अलावा मनोरोगी महिलाओं के लिए एक बड़ा अपना घर और एक हॉस्पिटल बनाएं, जिससे हम अधिक से अधिक महिलाओं का ख्याल रख सकें। इसके लिए हम पंढ़रपुर के आस-पास जमीन ढूंढ रहे हैं। इसके अलावा हमारी कोशिश है कि हम पंढरपुर के अलावा पूरे महाराष्ट्र में पालवी की अन्य शाखाएं शुरू करें, जिससे इन बच्चों और महिलाओं का भविष्य उज्ज्वल हो।