जीवन के प्रति आशावादी, दूसरों के प्रति संवेदनशील और दुर्व्यवहार के प्रति प्रतिकार करनेवाली सिंधुताई सपकाल को यदि संदर्भित किया जाए, तो इन शब्दों में उनके जीवन को परिभाषित किया जा सकता हैं। आइए जानते हैं ‘अनाथों की माई, सिंधुताई सकपाल’ से जुड़ी खास बातें, जो आपको प्रेरणा से भर देंगी।
परेशानियों से डरें नहीं, उनसे लड़ें
बचपन से ही अन्याय के खिलाफ आवाज उठानेवाली सिंधुताई ने जो सीखा, अपने अनुभव से सीखा। अनुभव के स्कूल में अपने कर्तव्यों के साथ उन्होंने न सिर्फ उच्च शिक्षा हासिल की, बल्कि कई अनाथ बच्चों की मां बनकर उन्हें अपनी ममता की छांव में भी रखा। एक बेहद गरीब परिवार में जन्मीं सिंधताई का बचपन बेहद तकलीफों में गुजरा। अगर ये कहें तो गलत नहीं होगा कि मात्र 10 वर्ष की आयु में अपने से 20 वर्ष बड़े व्यक्ति श्रीहरि सकपाल से शादी होने के बाद सिंधुताई का बचपन भी कहीं खो गया। हालांकि इतनी सी उम्र में ही उन्होंने ये बात समझ ली थी, कि परेशानियों का रोना रोकर परेशानियां खत्म नहीं होती, बल्कि इसके लिए लड़ना होता है। इसी के मद्देनजर मात्र 18 वर्ष की आयु में उन्होंने महिला शोषण के खिलाफ जमींदारों और वन अधिकारियों से लोहा लिया। हालांकि इसका नतीजा ये निकला कि अपने तीसरे बच्चे को कोख में लिए सिंधुताई पर जमींदारों ने बदचलनी का आरोप लगाकर उन्हें उनके ही समुदाय से बाहर करवा दिया। ऐसे हालातों में सिंधुताई ने बिना किसी की मदद के एक गौशाला में अपने तीसरे बच्चे को जन्म दिया और निकल पड़ी अपने अस्तित्व की तलाश में।
अनाथ बच्चों की भूख को बनाई अपनी भूख
अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सिंधुताई ने न सिर्फ सड़कों और रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगी, बल्कि श्मशान की जलती चिता पर लोगों से मांगकर लाए आटे से रोटियां बनाकर खाईं। जीवन की कठोर वास्तविकताओं को देखते हुए सिंधुताई ने गरीब बेघर महिलाओं के साथ-साथ उन असंख्य अनाथ बच्चों की मां बनने का फैसला किया, जो सड़कों पर अकेले जिंदगी बिताने के लिए अभिशप्त थे। उनकी भूख को सिंधुताई ने अपनी भूख बनाते हुए न सिर्फ खूब परिश्रम किया, बल्कि अपनी बेटी ममता को पुणे ट्रस्ट के एक अनाथाश्रम में भेज दिया। उन्हें डर था कि अपनी बच्ची के कारण कहीं, वे उन अनाथ बच्चों से पक्षपातपूर्ण रवैया न अपनाएं, जिन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है। इस तरह वर्धा से चिखलदरा आई सिंधुताई ने उन बच्चों को एक अपना घर देने के लिए न सिर्फ गांव-गांव, शहर-शहर जाकर पैसा जुटाया, बल्कि एक बहुत बड़ा आश्रम भी बनाया। कठिनाइयों में भी अपना सर्वश्रेष्ठ कैसे देना है, ये सिंधुताई ने सिखाया। अनाथ बच्चों के लिए उन्होंने एक-एक कर छः अनाथाश्रम बनाए और सिंधुताई से हजारों अनाथ बच्चों की माई बन गईं।
संगठन चलाने के लिए किसी के सामने नहीं फैलाए हाथ
गौरतलब है कि महिलाओं और बच्चों के लिए कई संगठन बना चुकी सिंधुताई सकपाल ने उन्हें चलाने के लिए कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए, बल्कि अपनी वाक्पटुता और अनुभव से मिले ज्ञान के बल पर सार्वजनिक मंचों के जरिए प्रेरक भाषण दिए और सार्वजिनक समर्थन मांगा। देश-विदेश में अपने भाषणों से एक बहुत बड़ा व्यक्तित्व बन चुकी सिंधुताई सकपाल ने कभी अपनी लोकप्रियता को खुद पर हावी होने नहीं दिया, बल्कि वे सदैव जमीन से जुड़ी रहीं। गौरतलब है कि उनके प्रेरणादायी कामों के लिए उन्हें 750 से अधिक पुरस्कार मिल चुके हैं, जिनमें वर्ष 2021 को राष्ट्रपति के हाथों मिला देश का चौथा सबसे बड़ा पद्मश्री पुरस्कार और वर्ष 2017 में महिलाओं को समर्पित सर्वोच्च नारी शक्ति पुरस्कार के साथ वर्ष 2013 में प्रतिष्ठित मां के लिए मिला राष्ट्रिय पुरस्कार, वर्ष 20212 में सीएनएन-आईबीएन और रिलायंस फाउंडेशन की तरफ से मिला रियल हीरो पुरस्कार, वर्ष 2010 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मिला अहिल्याबाई होल्कर पुरस्कार प्रमुख है।
मातृत्व को दिलाई ऊंची पहचान
गौरतलब है कि उनके जीवन की सच्ची घटनाओं से प्रेरित होकर अनंत महादेवन ने वर्ष 2010 में ‘मी सिंधुताई सपकाल’ नामक एक मराठी फिल्म भी बनाई थी, जिसे 54वे लंदन फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर के लिए चुना गया था। हालांकि 14 नवंबर 1948 को वर्धा में जन्मीं सिंधुताई सकपाल ने ये साबित कर दिया कि बच्चे चाहे किसी के भी हों, लेकिन मां की ममता सभी की होती है। 4 जनवरी 2022 को अपने बच्चों को छोड़कर अनंत में विलीन हो चुकी सिंधुताई सपकाल ने अपने मातृत्व के बल पर विश्व में एक ऐसी जगह बनाई है, जिसे सदियों तक याद किया जाता रहेगा। वर्तमान समय में उनके द्वारा पूरे महाराष्ट्र में छः संस्थाएं संचालित हैं, जिन्हें उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी ममता संभाल रही है।