मदर टेरेसा का नाम उन महान शख्सियत में गिना जाता है, जिन्होंने दया और निस्वार्थ भाव से अपना पूरा जीवन दूसरों की सेवा में ही लगा दिया था। मदर टेरेसा के मन में हमेशा सबके लिए अपार प्रेम रहा। इसी प्रेम भाव के कारण, मदर टेरेसा जनमानुष की सेवा करने के लिए हमेशा तत्पर रहती थीं। मदर टेरेसा ने अपना पूरा जीवन गरीब, लाचार, बीमार लोगों की सेवा में ही लगा दिया था। मात्र 18 साल की उम्र से ही भौगोलिक चीजों का त्याग करके मदर टेरेसा ने अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लिया था। मदर टेरेसा भारत की नहीं थी, लेकिन जब वे भारत पहली बार आयीं, तो यहां के लोगों से प्रेम कर बैठीं और यहीं पर अपना पूरा जीवन बिताने का निर्णय कर लिया था। उन्होंने भारत के लिए अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर दिया। तो आइए उनके बारे में विस्तार से जानते हैं।
मदर टेरेसा का बचपन
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को हुआ था। मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। इनके पिता एक छोटे व्यवसायी थे, जो धर्म-पूजा में काफी विश्वास रखते थे। मदर टेरेसा के पिता हमेशा अपने घर के पास वाले चर्च जाया करते थे, वह येशु के बड़े अनुयायी थे। वर्ष 1919 उनकी मौत के बाद मदर टेरेसा की मां ने ही उनका पालन-पोषण किया था। वहीं पिता के चले जाने के बाद मदर टेरेसा के परिवार की आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ गई थी। मदर टेरेसा पर अपनी मां का ही प्रभाव रहा, जोकि उन्होंने अपने बचपने में दिखा कि कैसे कठिन परिस्थितियों में हमें मिल बांट कर खाना चाहिए। बपचन में जब मदर टेरेसा की मां उनसे कहती थीं कि सभी को मिल बांट कर खाना चाहिए तो एक दिन मदर टेरेसा ने अपनी मां से ही सवाल पूछ लिया कि किनके साथ हम मिल बांट कर खाएं? जिस पर उनकी मां ने कहा कि जिसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत हो। माता की ये बात ही उनके मन में बस गई और इसी के चलते वो मदर टेरेसा बनीं।
मदर टेरेसा की पढ़ाई
घर की बिगड़ी परिस्थिति के बीच अगनेस ने अपनी स्कूल की पढ़ाई भी पूरी की थी। अगनेस (मदर टेरेसा) अपनी सुरीली आवाज के लिए भी जानी जाती थीं। वे चर्च में अपनी मां और बहन के साथ येशु की प्रार्थना गाया करती थी। 12 साल की उम्र में वहअपने चर्च के साथ एक धार्मिक यात्रा पर गई थी, जिसके बाद उनका मन बदल गया और उन्होंने क्राइस्ट को ही अपना मुक्तिदाता मान लिया था। धार्मिक यात्रा का मदर टेरेसा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने येशु के वचन को दुनिया में फैलाने का फैसला कर लिया। साल 1928 में 18 साल के होने पर अगनेस ने बपतिस्मा लिया और क्राइस्ट को अपना लिया। इसके बाद वे डबलिन में जाकर रहने लगी, इसके बाद वह वापस कभी अपने घर नहीं गयीं और न अपनी मां-बहन को फिर कभी नहीं देखा। नन बनने के बाद उनका नया जन्म हुआ और उन्हें सिस्टर मेरी टेरेसा नाम मिला। डबलिन के ही एक इंस्टीट्यूट से मदर टेरेसा ने नन की ट्रेनिंग ली।
साल 1929 में मदर टेरेसा अपने इंस्टीट्यूट की अन्य नन के साथ मिशनरी के काम से भारत के दार्जिलिंग शहर आईं। मदर टेरेसा को दार्जिलिंग में मिशनरी स्कूल में पढ़ाने के लिए भेजा गया था। मई 1931 में उन्होंने नन के रूप में प्रतिज्ञा ली। इसके बाद उन्हें भारत के कोलकाता शहर भेजा गया। कोलकाता भेजने पर उन्हें वहां की गरीब लड़कियों को शिक्षा देने को कहा गया। डबलिन की सिस्टर लोरेटो द्वारा संत मैरी स्कूल की स्थापना की गई, जहां गरीब बच्चे पढ़ते थे। मदर टेरेसा को बंगाली व हिंदी दोनों भाषा का बहुत अच्छे से ज्ञान था, वे इतिहास व भूगोल बच्चों को पढ़ाया करती थी। कई सालों तक उन्होंने इस कार्य को पूरी लगन से किया।
साल 1946 को मदर टेरेसा को अपने जीवन में एक नया अनुभव प्राप्त हुआ। इस अनुभव ने उनकी जिंदगी ही बदल दी। मदर टेरेसा के अनुसार 10 सितंबर के दिन वह कोलकाता से दार्जिलिंग कुछ काम के लिए जा रही थी, तभी येशु ने उनसे बात की और कहा अध्यापन का काम छोड़कर कलकत्ता के गरीब, लाचार, बीमार लोगों की सेवा करो। जब मदर टेरेसा ने आज्ञाकारिता का व्रत ले लिया था, तो वे बिना सरकारी अनुमति के कॉन्वेंट नहीं छोड़ सकती थी। इसके बाद जनवरी 1948 में उनको कोलकाता जाने की अनुमति मिल गई, जिसके बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने सफेद रंग की नीली धारी वाली साड़ी को अपना लिया और जीवन भर इसी में दिखाई दी।
मदर टेरेसा की सीख
मदर टेरेसा के जीवन से हमें यही सीख मिलती है कि जीवन में गरीबों, असहाय और पीड़ित लोगों की सेवा करने से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए। मदर टेरेसा ने कैसे महज 18 वर्ष की उम्र से ही नन बनकर अपने जीवन का उद्देश्य सिर्फ दूसरे लोगों की सेवा करना ही तय कर लिया था। इसी तरह हमको भी कभी भी दूसरों की सेवा करने से मना नहीं करना चाहिए।
मदर टेरेसा ने अपने पूरे जीवन में सिर्फ गरीबों, असहाय और पीड़ित लोगों की सेवा करने में ही लगा दिया था। उनके जीवन से सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए कि बिना किसी सुविधा के कैसे किसी की सेवा की जा सकती है। मदर टेरेसा ने बिना किसी लोभ-लालच के दूसरों की सेवा को ही सबसे ऊपर रखा। आज के समय में मदर टेरेसा जैसा होना बहुत ही मुश्किल है।