मेडल न जीत पाने का दुःख है लेकिन उम्मीद कायम है
पूजा बताती हैं, कि हाल ही में हुए पैरिस पैरालंपिक में मैं चाहकर भी मेडल नहीं जीत पाई और इसका मुझे बेहद दुःख है, लेकिन अपने साथी खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन से मैं बेहद खुश हूं। उन्होंने पूरे विश्व का ध्यान अपनी तरफ किया, इस बात का मुझे बेहद गर्व है। रही बात मेरे प्रदर्शन की तो मैंने 3 वर्ल्ड चैंपियनशिप में पार्ट लिया है, लेकिन पैरालंपिक का यह मेरा पहला मौका था सो अगली बार दुगुनी मेहनत करूंगी।
भिंड जिले से निकली पहली पैरा खिलाड़ी होने पर गर्व है
पूजा बताती हैं कि मुझे नहीं पता था कि विकलांगों के लिए कोई स्पोर्ट्स होता है, जब पहली बार हमारे भिंड में ड्रैगन बोट प्रतियोगिता हुई तो मैंने उन्हें देखकर सोचा कि अगर ये कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं? मुझे लगता है, दिव्यांगता शारीरिक न होकर मानसिक होती है। अगर आप सोचें कि आपमें कोई कमी है, तो आप कुछ नहीं कर सकते। मैंने ठान लिया कि मुझे इसमें अपना करियर बनाना है। आपको जानकर हैरानी होगी कि मुझे पानी से बहुत डर लगता है और इसी डर के कारण मैंने स्वीमिंग नहीं सीखी। लेकिन बात जब कैनोइंग की आई तो मैंने तय कर लिया कि अपनी कमी को मुझे ताकत बनानी है। आज मुझे गर्व है कि भिंड जिले से निकली मैं पहली पैरा खिलाड़ी हूँ, जो पैरा कैनोइंग कर रही है।
पांचवी कक्षा की बजाय केजी में बैठती थी
मैं जब दस महीने की थी तो मुझे पोलियो हो गया। हालांकि मेरा बचपन बहुत हंसी-खुशी में बिता। घरवालों ने मुझे कभी कमी का एहसास होने नहीं दिया, लेकिन असली तकलीफ तब शुरू हुई जब मैं स्कूल गई। नॉर्मल बच्चे मुझे देखकर हँसते थे, तो मैं स्कूल नहीं जाती थी और अगर जाती भी थी तो अपने से छोटी क्लास में जाकर बैठती थी, क्योंकि वे बच्चे कुछ नहीं बोलते थे। उस दौरान मैं खुद को काफी हीन भावना से देखती थी। कई बार कुछ लोग आकर मां से कहते भी थे कि इससे तो अच्छा होता, यह मर गई होती। उनकी यह बातें सुनकर बहुत बुरा लगता था, लेकिन अब मुझे किसी की कोई बात बुरी नहीं लगती और न मुझे लगता है कि मुझमें कोई कमी है।
महंगा स्पोर्ट्स है कैनोइंग
पूजा बताती हैं कि जब मैंने पहला इंटरनेशनल खेला था, तब मेरे पास व्हीलचेयर और जूते नहीं थे। तब हमारे जिले के कलेक्टर साहब इलैया राजा टी ने मुझे हरसंभव मदद की। आज भी मैं उन्हें किसी चीज के लिए बोल दूं, तो वे चाहे जहां कहीं रहें मेरी मदद करने से चूकते नहीं हैं। हालांकि कैनोइंग काफी महंगा स्पोर्ट्स है। इसमें बोटिंग के दौरान जो पैडल हम इस्तेमाल करते हैं, सिर्फ उसकी कीमत 60000 है, लेकिन मैंने कभी इन सब चीजों से समझौता नहीं किया। सच कहूं तो मुझे यहां तक पहुंचाने में मेरे वेलविशर्स के अलावा मेरे पैरेंट्स का सबसे बड़ा योगदान रहा है। जरूरत पड़ने पर मेरे पापा ने अपनी जमीन गिरवी रख दी थी, लेकिन मुझे कमी का एहसास होने नहीं दिया।
दिव्यांगों को दया की दृष्टि से न देखें
हमारे यहां दिव्यांगों को या तो बेकार समझते हैं, या फिर उन्हें दया की दृष्टि से देखते हैं। हालांकि मैं खुश हूं कि पैरालंपिक की वजह से अब दिव्यांगों की तरफ लोगों का नजरिया कुछ-कुछ चेंज हुआ है। सच कहूं तो दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं है। हम दिव्यांग जो कर सकते हैं, वो शायद एक सामान्य इंसान भी न कर पाए। मैं पैरेंट्स के साथ उन स्कूलों और टीचर्स को भी यह कहना चाहूंगी कि दिव्यांग बच्चों के लिए भी कई स्पोर्ट्स है, बस जरूरत है उनकी प्रतिभा को निखारने की।
पैरिस में सब एक थे
पूजा बताती हैं कि पैरालंपिक के दौरान जब हम पैरिस में थे तो सभी हमारी तरह थे और उन्हें देखकर हममें से किसी को ऐसा नहीं लग रहा था कि हममें कोई कमी है। हालांकि वहां हम सब एक-दूसरे से मोटिवेट होते थे। मैं फिलहाल एक विशेष खिलाड़ी का जिक्र करना चाहूंगी, जो सिर्फ पानी या जूस पिता था और वो भी लेटकर। उसे एक छोटा सा कमरा अलॉट किया गया था, वो उसी में रहता था। उसे देखकर मुझे लगा कि मैं उससे काफी सौभाग्यशाली हूं।