आकाशवाणी प्रसारण के माध्यम से 5 मिनट का उर्दू समाचार पढ़कर सईदा बानो, न सिर्फ भारत की पहली महिला समाचार वाचिका बन गई थीं, बल्कि पहली भारतीय उद्घोषिका भी बन गई थीं। आइए जानते हैं उनके बारे में विस्तार से।
बुरी शादी से पीछा छुड़ा कर पहुंचीं दिल्ली
आजाद भारत की दहलीज पर अपना करियर शुरू करनेवाली 34 वर्षीय सईदा बानो ने जब 13 अगस्त 1947 को सुबह आठ बजे ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली में न्यूज रीडर की कुर्सी संभाली थी, तब शायद ही उन्हें इस बात का अंदाजा था कि वह अब इतिहास रचने जा रही हैं। हालांकि अपने बीस साल के अस्त व्यस्त शादीशुदा जिंदगी से त्रस्त सईदा बानो ने अपनी आजादी की राह स्वयं चुनी थी। 1913 में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मीं सईदा बानो के पिता चाहते थे कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। इसलिए वह सईदा के जन्म के तुरंत बाद भोपाल से आकर लखनऊ बस गए थे। नवाबी तहजीब और भारतीय संस्कृति का मिला-जुला संगम लखनऊ, उस जमाने में काफी कुलीन शहर माना जाता था। यहां सईदा की शिक्षा पूरी होते ही 17 साल में उनका विवाह एक जज से करवा दिया गया। अपने पति और दो बेटों के साथ अपनी गृहस्थी में सईदा का मन कभी नहीं रमा। आखिरकार बुरी चल रही शादी टूट गई और अपने जज पति से अलग होने के बाद सईदा अपने बड़े बेटे को बोर्डिंग स्कूल में दाखिल कर, छोटे बेटे के साथ दिल्ली आ गयीं।लखनऊ में सईदा को कुछ निजी रेडियो स्टेशनों का अनुभव था, सो उन्हें प्रसारण में ज्यादा मुश्किलें नहीं आयीं।
विद्रोहिणी कहलाने से कभी नहीं डरी
लखनऊ में रहते हुए सईदा ने महिलाओं की दुखद जिंदगी जी थी। ऐसे में उन्हें इस बात का एहसास था कि समाज उनके इस कदम को कभी जायज नहीं ठहराएगा, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। उन्हें न सिर्फ समाचार वाचिका के तौर पर अपने पैरों पर खड़ी होने के लिए विद्रोहीणी कहा गया, बल्कि लखनऊ की मशहूर गायिका बेगम अख्तर के साथ उनकी दोस्ती के लिए उनका मखौल भी उड़ाया गया। लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। पति से अलग होने के बाद से ही हर कदम पर सईदा को लोगों के तानों और बुरी बातों का सामना करना पड़ा था और इस बात से सईदा अच्छी तरह वाकिफ थी, सो उन्होंने कभी लोगों की परवाह नहीं की।
डगर से हटकर, चली कमर कसकर
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वर्ष 1994 में अपनी लेखिका दोस्त शिल्ला धर के कहने पर सईदा बानो ने उर्दू में अपना संस्मरण ‘डगर से हटकर’ लिखा था, जिसके लिए उन्हें उर्दू अकादमी, दिल्ली की तरफ से पुरस्कार भी मिला था। बाद में 2020 में सईदा बानो की पोती शहाना रजा ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया था। इस संस्मरण में सईदा बानो ने महिलाओं द्वारा पहने जानेवाले मुखौटों का उल्लेख किया है कि किस तरह एक औरत को समाज और अपने घर-परिवार के लिए अपनी भावनाएं, अपने व्यक्तित्व और अपने अस्तित्व को निगलना पड़ता है। अपने जीवन परिचय में वह इस बात से भी इंकार करती हैं कि वो विद्रोहिणी थी। उनका मानना है कि उन्होंने सिर्फ अपनी शर्तों पर अपनी जिंदगी जीने का प्रयास किया, जिसमें कोई बुराई नहीं थी। उनके अनुसार लखनऊ में जिंदगी आरामदायक और सुरक्षित तो था, किंतु दमघोंटू भी था। यही वजह है कि अपना रास्ता अलग चुनते हुए उन्होंने दिल्ली की राह पकड़ी और आजादी से दो दिन पहले 13 अगस्त को अपनी नौकरी की कमान संभाली।
नफरती पत्रों ने भी नहीं तोड़ा आत्मविश्वास
एक तरफ देश अंग्रेजों की 200 साल की गुलामी से मुक्त होने जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच खींची नफरती दीवार ने हालात बद से बदतर कर दिए थे। हालांकि अपनी पिछली चुनौतियों को मुंह चिढ़ाकर दिल्ली पहुंची सईदा को उन चुनौतियों का बिल्कुल एहसास नहीं था, जो अभी आनेवाली थी। एक अकेली मुस्लिम महिला को जिस तरह लोगों ने विभाजन की आग में झोंक दिया था, उसकी यादें सईदा के मन में हमेशा ताजा रहीं। अपने संस्मरण में उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया है कि अपनी नौकरी के दौरान किस तरह उन्हें नफरती पत्र भेजे जाते थे, जिसमें अक्सर उनसे पाकिस्तान चले जाने को कहा जाता था।
सहा दो टूटी शादियों का दंश
सईदा के संस्मरण ‘डगर से हटकर’ के अनुसार कुछ नफरती लोग थे, तो काफी अच्छे लोग भी थे। उनमें अधिकतर वो लोग थे, जो उनकी आवाज के मुरीद थे और उनसे विवाह करना चाहते थे। गौरतलब है कि व्यक्तिगत जीवन में अपने जज पति से अलग हुईं सईदा ने इश्तियाक अब्बासी से दूसरी शादी की थी, लेकिन ये शादी भी ज्यादा दिन नहीं चल सकी। उसके बाद वह एक नामी वकील नूरुद्दीन अहमद के संपर्क में आयीं, जो बाद में दिल्ली के मेयर भी बने।
विजया लक्ष्मी पंडित की करीबी थीं सईदा बानो
महिला अधिकारों की समर्थक और कुशल राजनयिक विजया लक्ष्मी पंडित, सईदा बानो की पारिवारिक मित्र थीं। यही वजह है कि आकाशवाणी में समाचार वाचिका के तौर पर अपना एप्लिकेशन भेजने के बाद सईदा ने अपनी नौकरी के लिए विजया लक्ष्मी पंडित से मदद की गुहार लगाई थी, जिस पर उन्होंने अपनी मोहर लगाकर सईदा का मार्ग प्रशस्त किया था। नेहरु परिवार के अलावा गांधीजी से भी सईदा काफी करीब थीं। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की खबर सुनकर वह इतना रोई थीं कि उस शाम का समाचार बुलेटिन भी नहीं पढ़ पाई थीं। उनकी जगह उस दिन किसी और ने ये समाचार बुलेटिन पढ़ा था।