भारत की पहली और विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा हिंदी को जाननेवाले लोगों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। विशेष रूप से साहित्य के मद्देनजर हिंदी का वर्चस्व सदियों से रहा है और आज भी है। आइए जानते हैं नई धारा की 5 ऐसी लेखिकाओं के बारे में जिन्होंने हिंदी से अपनी सशक्त पहचान बनाई है।
अनामिका
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17 अगस्त 1961 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में पैदा हुईं अनामिका पर साहित्य का प्रभाव बचपन से रहा। हालांकि बिहार विश्वविद्यालय के कुलपति पिता और सुशिक्षित माता के घर जन्मीं अनामिका को किताबों की दुनिया बड़े भाई ने दिखाई और वे इसमें ऐसी रमी कि अपनी कविताओं से सबको मोहित करती चली गईं। समकालीन कविताओं की सुपरिचित कवयित्री अनामिका के आकर्षण का एक पहलू स्त्री-विमर्श पर लिखी गईं उनकी कविताएं भी हैं। भाषा-शिल्प-बिंब के साथ स्त्री चेतना और भावुक अंतर्मन की कविताएं लिखनेवाली इस कवयित्री का आगमन वर्ष 1978 में प्रकाशित उनके पहले काव्य संग्रह ‘गलत पते की चिट्ठी’ के साथ हुआ था। उसके बाद उनकी ‘समय के शहर में’, ‘बीजाक्षर’, ‘अनुष्टुप’, ‘कविता में औरत’, ‘खुरदरी हथेलियां’ और ‘दूब धान’ आदि काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। गौरतलब है कि कविताओं के अलावा उन्होंने कुछ उपन्यास, कहानी संग्रह, शोध प्रबंध, निबंध संग्रह और अनुवाद ग्रंथ भी लिखे हैं, जिनमें ‘पर कौन सुनेगा’, ‘मन कृष्ण मन अर्जुन’, ‘अवांतर कथा’, ‘दस द्वारे का पिंजरा’ और ‘तिनका-तिनके के पास’ प्रमुख उपन्यास हैं। हिंदी कविता में अपने विशिष्ट योगदान के साथ अपने काव्य संग्रह ‘टोकरी में दिगंत’ के लिए उन्हें वर्ष 2000 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा अपनी रचनाओं के लिए वे भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, राजभाषा परिषद पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और साहित्य सेतु सम्मान से भी पुरस्कृत हो चुकी हैं।
अलका सरावगी
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हिंदी की लोकप्रिय उपन्यासकार और लघु कथाकार अलका सरावगी का जन्म कोलकाता में राजस्थानी मूल के एक मारवाड़ी परिवार में 17 नवंबर 1960 में हुआ था। बचपन से साहित्य प्रेमी रहीं अलका सरावगी ने रघुवीर सहाय की कविताओं पर शोध प्रबंध के साथ पीएचडी की थी। हालांकि साहित्य में रूचि रखनेवाली अलका सरावगी ने लेखन के क्षेत्र में कदम तब रखा, जब वे दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं। छोटी-छोटी कहानियाँ लिखनेवाली अलका सरावगी की पहली प्रकाशित रचना ‘आपकी हँसी थी’, जो रघुवीर सहाय की एक कविता से प्रेरित थी। उसके बाद वर्ष 1996 में उन्होंने अपनी पहली लघु कथा संग्रह ‘कहानी की तलाश में’ प्रकाशित की, जिसे काफी सराहा गया। उसके बाद वर्ष 1998 में उनका पहला उपन्यास ‘कलिकथा: वाया बाईपास’ प्रकाशित हुआ, जिसके लिए उन्हें वर्ष 2001 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। तब से लेकर अब तक उनके चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। हालांकि हिंदी भाषा में लिखे इन उपन्यासों के पात्र अक्सर मारवाड़ी और बंगाली समुदाय से होते हैं और अपनी मनोवृत्ति के साथ उजागर होते हैं।
रजनी गुप्त
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जेएनयू से एमफिल और पीएचडी करनेवाली रजनी गुप्त का जन्म 2 अप्रैल 1963 को उत्तर प्रदेश के झांसी, चिरगाँव में हुआ है। साहित्य में रूचि रखनेवाली रजनी गुप्त अब तक ‘कहीं कुछ और’, ‘किशोरी का आसमाँ’, ‘एक न एक दिन’, ‘कुल जमा बीस’, ‘ये आम रास्ता नही’, ‘कितने कठघरे’ व ‘नये समय का कोरस’ नामक उपन्यास और ‘एक नई सुबह’, ‘हाट बाजार’, ‘प्रेम सम्बन्धों की कहानियाँ’, ‘अस्ताचल की धूप’, ‘फिर वहीं से शुरू’ नामक कहानी-संग्रह लिख चुकी हैं। इसके अलावा स्त्री विमर्श के अंतर्गत उनकी ‘सुनो तो सही’ और ‘बहेलिया समय में स्त्री’ भी प्रकाशित हो चुकी है। उन्होंने ‘आजाद औरत कितनी आजाद’, ‘मुस्कराती औरतें’ और ‘आखिर क्यों लिखती हैं स्त्रियाँ’ का संपादन भी किया है। अपनी पुस्तकों के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा युवा लेखन सर्जना पुरस्कार, किताबघर प्रकाशन की तरफ से आर्यस्मृति साहित्य सम्मान, ‘किशोरी का आसमाँ’ के लिए अमृतलाल नागर पुरस्कार, ‘अस्ताचल की धूप’ कहानी-संग्रह के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा मुख्यमन्त्री द्वारा ‘रावी स्मृति सम्मान’ और ‘कितने कठघरे’ के लिए ‘महादेवी वर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
नीलाक्षी सिंह
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17 मार्च 1978 को बिहार के हाजीपुर में जन्मीं नीलाक्षी सिंह ने यूं तो अपना ग्रेजुएशन इकोनॉमिक्स सब्जेक्ट से किया है, लेकिन हिंदी साहित्य के लिए उनके दिल में हमेशा से एक ख़ास जगह थी। यही वजह है कि उनके कहानी संग्रह ‘परिंदे का इंतजार सा कुछ’ और ‘जिनकी मुट्ठियों में सुरख था’ को न सिर्फ साहित्यिक आलोचकों द्वारा काफी सराहना मिली, बल्कि समकालीन भारतीय साहित्य में एक क्लासिक कहानी के रूप में पहचान भी मिली है। उनकी चर्चित कृतियों में ‘जिसे जहां नहीं होना था’, ‘इब्तिदा के आगे खाली हाय’, ‘शुद्धिपत्र’, ‘खेला’ और ‘हुकुम देश का इक्का खोटा’ शामिल है। तीन पीढ़ियों के बीच की रेखाओं को बुनती उनके पहले उपन्यास ‘शुद्धिपत्र’ को लेकर साहित्यिक आलोचकों का ऐसा मानना है कि ये उपन्यास अपने समय से बहुत आगे था। इन कृतियों के अलावा उन्होंने न सिर्फ महान नार्वेजियन लेखक टारजेई वेसास के उपन्यास ‘द आइस पैलेस’ का हिंदी अनुवाद ‘बरफ महल’ किया है, बल्कि श्वेता मर्चेंट द्वारा निर्देशित और एनएचके, जापान द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘थ्रू द आइज़ ऑफ़ वर्ड्स’ में मुख्य नायिका के तौर पर अभिनय भी किया है। अपने लेखन के शुरुआती दिनों में ही इन्हें साहित्य अकादमी स्वर्ण जयंती युवा लेखक पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा ये वैली ऑफ वर्ड्स पुरस्कार, सेतु पांडुलिपि सम्मान, कलिंगा बुक ऑफ द ईयर पुरस्कार, प्रोफेसर ओपी मालवीय एवं भारती देवी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार, कथा पुरस्कार और रमाकान्त स्मृति पुरस्कार से भी सम्मानित हो चुकी हैं।
वंदना राग
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मूल रूप से बिहार के सीवान ज़िले की रहनेवाली वंदना राग का जन्म इन्दौर मध्य प्रदेश में हुआ था। अपने पिता की स्थानान्तरण वाली नौकरी के कारण इन्होने भारत के विभिन्न शहरों में स्कूली शिक्षा प्राप्त की। वर्ष 1990 में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए कर चुकीं वंदना राग की पहली कहानी वर्ष 1999 के दौरान ‘हंस’ पत्रिका में छपी थी। इससे उत्साहित होकर उन्होंने जो लिखना शुरू किया वो आज तक कायम है। तब से लेकर अब तक उनकी चार कहानियों की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें ‘यूटोपिया’, ‘हिजरत से पहले’, ‘ख़यालनामा’ और ‘मैं और मेरी कहानियाँ’ शामिल हैं। एक उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ के अलावा वे अनेक अनुवाद कर चुकी है, जिनमें प्रख्यात इतिहासकार ई.जे. हॉब्सबाम की किताब ‘एज ऑफ़ कैपिटल’ का हिंदी अनुवाद ‘पूँजी का युग’ शामिल है। स्त्री विमर्श पर अपनी बात पूरी मजबूती से कहनेवाली वंदना राग के लेख सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी अक्सर अख़बारों में छपते रहते हैं।