ग्रामीण भारत में कचरा प्रबंधन एक चुनौती है, और महिलाओं का इसमें सक्रिय रूप से भाग लेना न केवल उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त करता है, बल्कि हमारे पर्यावरण के साथ ग्रामीण भारत के स्वास्थ्य को भी सुधारता है। आइए जानते हैं इस विषय में विस्तार से।
महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूहों की भूमिका
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से संगठित होकर कचरा प्रबंधन के विभिन्न कार्यों को संभालने का बीड़ा उठाया है। ये समूह कचरा संग्रह करके न सिर्फ उसकी छंटाई करते हैं, बल्कि कुछ चीजों को रिसाइकल करके कचरे से खाद बनाते हैं। स्वयं सहायता समूहों की इस पहल से महिलाओं को रोजगार के नए अवसरों के साथ आर्थिक मदद भी मिल रही है, जिससे उनका खोया आत्मविश्वास फिर से लौट रहा है। इन सहायता समूहों के अलावा भारत सरकार का स्वच्छ भारत मिशन भी कचरा प्रबंधन के कार्यों में अहम भूमिका निभा रहा है। कई गांवों में इन ग्रामीण महिलाओं को पंचायत के साथ लोकल बॉडीज में शामिल करके पूरे गांव को कचरा प्रबंधन से जुड़ी बारीकियां बताई जा रही हैं, जिससे वे अन्य महिलाओं को भी अपनी तरह जागरूक कर सकें।
महिला सहकारी समितियां
देश के विभिन्न राज्यों में महिला सहकारी समितियां भी कचरा प्रबंधन में अपना योगदान दे रही हैं। इनमें केरल में 'कुदुम्बश्री मिशन', कर्नाटक में 'स्वच्छता दीदी' प्रोग्राम, महाराष्ट्र के वर्धा जिले में 'सासुरे बाई’, पुणे में ‘कचराकोंडवाडा’, दिल्ली में 'चिंतन एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप', बिहार में 'महिला कम्युनिटी कम्पोस्टर्स' और तमिलनाडु के मदुरै जिले में 'मदुरै की महिलाएँ' का विशेष महत्व है। इन महिला सहकारी समितियों ने सैकड़ों महिला स्वयं-सहायता समूहों ने मिलकर कचरा प्रबंधन की जिम्मेदारी उठाई है। यह महिलाएं गांव-गांव जाकर न सिर्फ कचरा इकट्ठा करती हैं, बल्कि गांववालों को इन कचरों को डिस्पोज करने का सही तरीका भी बताती हैं। इन इकट्ठा कचरों की मदद से महिलाएं जैविक खाद बनाकर किसानों को बेचती हैं, और आर्थिक स्वतंत्रता का अनुभव करती हैं। विशेष रूप से दिल्ली के 'चिंतन एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप’ नामक एक गैर-सरकारी संगठन ने कई महिला 'रैग पिकर्स' को प्रशिक्षित करते हुए कचरा प्रबंधन की जिम्मेदारी दी है।
चीजों को रिसाइकल करना
कुछ इलाकों में जहां ग्रामीण महिलाएं जैविक कचरे से खाद बनाकर खेती की लागत काम कर रही हैं, वहीं कुछ महिलाएं प्लास्टिक कचरे को रिसाइकल करके विभिन्न प्रकार के उत्पाद बना रही हैं, जैसे प्लास्टिक की रस्सियाँ या कागज की वस्तुएं। गौरतलब है कि रिसाइकल हुई यह वस्तुएं न सिर्फ बाजार में बिक रही हैं, बल्कि महिलाओं के आय का स्रोत भी बन रही हैं। कचरा प्रबंधन के जरिए आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कर चुकी ये महिलाएं अपने साथ दूसरी महिलाओं को भी सबल बनने और अपने इलाकों में कचरा प्रबंधन का महत्व बताते हुए उन्हें शिक्षित कर रही हैं। वे घर-घर जाकर कचरा छंटाई के साथ जैविक और अजैविक कचरे को अलग करने की जानकारी भी देती हैं। इसके अलावा ये महिलाएं ग्रामीण समुदायों में स्वच्छता अभियान भी चलाती हैं, जैसे सार्वजनिक स्थानों की सफाई, घरों के आस-पास कचरे का सही निपटान, और कचरे को जलाने से बचने के बारे में जागरूकता फैलाना।
कुछ चुनौतियां भी हैं
कई स्थानों पर महिलाओं को सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे कि स्वच्छता के मुद्दों पर खुलकर चर्चा न कर पाना। इसके अलावा कचरा प्रबंधन को अक्सर सम्मानजनक काम नहीं माना जाता, जिससे महिलाएं इससे जुड़ी सुविधाओं या संसाधनों की मांग नहीं कर पातीं। कचरा प्रबंधन में पूरी तत्परता से जुटी महिलाओं को कई बार संसाधनों की कमी के अलावा नई तकनीकों और नए उपकरणों के अभाव के साथ आर्थिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। इन संसाधनों में कचरा इकट्ठा करने वाली सेवाओं के साथ स्थायी लैंडफिल साइटों का अभाव भी शामिल है, जिसके कारण कचरे को नदी-तालाबों में फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है। कचरा प्रबंधन में जुटी महिलाओं को कई बार स्वास्थ्य की दृष्टि से भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है, जिनमें कई ऐसी बीमारियां हैं जो उनके कारण उनके परिवार और बच्चों को हो जाती हैं। हालांकि सही शिक्षा, जागरूकता, सामुदायिक सहभागिता, और सरकार के सहयोग से यह समस्या काफी हद तक बड़े पैमाने पर हल की जा सकती है। मुट्ठी भर महिलाओं की बजाय सभी महिलाओं को सशक्त बनाकर, उनके ज्ञान और प्रयासों का उपयोग कर, न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे की समस्या को सुलझाया जा सकता है, बल्कि इससे उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार किया जा सकता है।