रिटायरमेंट से पहले अपनी पूंजी का पूरा लेखा-जोखा तो हर कोई करता ही है। लेकिन किसी के लिए अगर पढ़ाई ही उनकी पूंजी बन जाए तो फिर यह आम बात से खास बात तो बन ही जाती है। है न ! कुछ ऐसी ही पूंजी को अपने साथ लेकर चली हैं 67 वर्षीय डॉ.जयश्री पारीख, जिन्होंने अपने रिटायरमेंट के समय एमबीए की डिग्री ली और ठीक उसी वक्त ली, जब उनके बेटे ने भी उनके साथ एमबीए की पढ़ाई करनी शुरू की थी। जयश्री की कहानी में यही ट्विस्ट इतना दिलचस्प है, तो सोचिए पूरी कहानी कितनी रोचक होगी ? तो आइए जानते हैं जयश्री की पूरी कहानी, वह महिला जिन्होंने अपनी पढ़ाई को उम्र की सीमा में नहीं बांधा।
जयश्री, जिन्होंने बरषि डिस्ट्रिक्ट, सोलापुर में स्थित केएलइ सोसाइटी'ज सिल्वर जुबली हाई स्कूल में दसवीं तक पढ़ाई की और इसके बाद बीएससी, श्री शिवाजी महाविद्यालय, बरषि से पूरी की। इन्होंने एमएससी की डिग्री डिपार्टमेंट ऑफ केमिस्ट्री शिवजी यूनिवर्सिटी, कोल्हापुर से ली और बाद में कर्णाटक यूनिवर्सिटी, धारवाड से पीएचडी हासिल की। यह पढ़कर आप जान ही गए होंगे कि जयश्री के लिए पढ़ाई ही उनका पैशन रहा है। बचपन से वह काफी पढ़ना लिखना पसंद करती रही हैं । यह बात अलग है कि उनके पिताजी हमेशा उनके भाइयों की पढ़ाई पर ध्यान देते थे और उन्हें लगता था कि बेटी को बस इतनी पढ़ाई करनी चाहिए कि वह शादी के बाद अपने मां-पिता को चिट्ठी लिख कर अपना हाल-चाल बता सके। ऐसे माहौल में परवरिश होने के बावजूद जयश्री को अपनी मां का पूरा सपोर्ट मिला। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि जयश्री ने 13 साल की उम्र में ही अपने पिता को खो दिया। उनके स्वर्गवास के बाद घर की सारी जिम्मेदारी उनकी मां ने निभाया। हालांकि, परिवार के अन्य रिश्तेदार भी उनका साथ देते रहे, लेकिन जयश्री के लिए उनकी मां उनकी हीरो रहीं। कम उम्र से ही वह अपनी मां के साथ बैंक जातीं, स्कूल की फीस, घर का काम और घर के हिसाब-किताब में भी वह अपनी मां को आंकड़ों के बीच उलझती देखती। जयश्री कहती हैं, ‘मेरी मां ने हम तीनों बच्चों की परवरिश बहुत अच्छे से की है । मेरी तरफ उनका झुकाव हमेशा से रहा, क्योंकि मैं दो भाइयों की अकेली बहन थीं। पिताजी के गुजरने के बाद उन्होंने जिन-जिन मुश्किलों का सामना किया था, वह नहीं चाहती थी कि वह मेरे साथ भी हो। इसलिए मां ने मुझे हमेशा पढ़ने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि मैंने 1976 में बीएससी में 72.80 प्रतिशत रैंक किया।’
जयश्री ने मुंबई के माटुंगा इलाके के केमिकल टेक्नोलॉजी के ऑइल डिपार्टमेंट में भी काम किया। ऐसे सेक्टर में , जहां अक्सर पुरुष ही काम करते नजर आते हैं और इस सेक्टर में उनका अनुभव बड़ा शॉकिंग था। जयश्री ने हमें बताया कि मैं गैस और ऑइल सेक्टर में थीं। मेरे आस-पास अक्सर मर्द ही होते थे और बता दूं कि उस समय लोग औरतों के काम करने को सही नहीं मानते थे और मैं तो ऐसे मर्दों वाले सेक्टर में पहुंच गई थी। यह बहुत बुरी बात है कि लड़का और लड़की के बीच भेदभाव बड़ी से बड़ी कंपनी भी करती है। आप देश के बड़ी-बड़ी नामी कंपनी का नाम लें, मैंने सब जगह अप्लाई किया था पर, क्योंकि मैं लड़की हूं इसलिए मुझे काम नहीं मिला।”
जयश्री ने 1986 में अखबार में मैट्रिमोनियल एड के जरिए डॉ.अक्षय कुमार पारीख को ढूंढा। हां, यह बड़ी अजीब बात है कि उस जमाने में मैट्रिमोनियल एड के जरिये जयश्री के लिए लड़का ढूंढा गया। इस समय तक जयश्री ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में एमएससी, और पीएचडी कर चुकी थीं और अपने करियर में अभी और आगे जाना चाहती थीं। इतनी काबिल महिला को उस समय घर की बहू बनाना हर किसी की मानसिकता नहीं होती थी। जयश्री ने कहा, ‘अक्षय हमारी ही बिरादरी के थे और सबको बहुत पसंद थे लेकिन, मैंने उनके आगे एक शर्त रखी कि मैं आगे काम करना चाहती हूं। मेरी सास इस पर सहमत नहीं थी, लेकिन अक्षय ने मेरा हमेशा साथ दिया। उन्होंने शादी तो की ही, बल्कि बच्चे होने के बाद भी मेरी पढ़ाई और मेरे काम के बीच उन्होंने सबकुछ संभाला।”
जयश्री 1987 में जब पहली बार मातृत्व की ओर बढ़ीं तो उनकी सास ने उन्हें कहा, “बच्चे को संभालने की जिम्मेदारी तुम्हारी ही है और काम करने की जरूरत वैसे भी तुम्हें नहीं है।” सास की इन बातों को नजरअंदाज करते हुए जयश्री ने अपनी पति की राय ली और हमेशा की तरह उन्होंने सबकुछ साथ संभाल लेने की बात पर जोर दिया। जयश्री कहती हैं, ‘प्रेगनेंसी के दौरान कुछ महीनों के ब्रेक के बाद मैंने फिर से काम करना शुरू किया। 1985 से 1997 तक मैंने थाङोमल शहानी इंजीनियरिंग कॉलेज, मुंबई में लेक्चरर के रूप में काम किया। इस बीच 1990 में मेरी बेटी उर्वी भी पैदा हुई। उर्वी और विनीत, मेरे दोनों बच्चे भी काफी समझदार थे। मेरी मां दोनों का ध्यान रखती और शाम को मैं काम से लौटकर इस बात का ध्यान रखती कि मैं अपना ज्यादा से ज्यादा समय दोनों बच्चों को दूं। लेकिन, जब मेरी मां का देहांत हुआ, तब मुश्किलें थोड़ी बढ़ गईं और हमें हेल्पर की सहायता लेनी पड़ी। इस बीच कभी मेरे पति, तो कभी मैं बच्चों को संभालने का जिम्मा उठा लेते थे।”
जयश्री आगे बताती हैं कि ‘1997 से 2010 तक मैंने द्वारकादास जे संघवी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में काम किया। फिर मैंने 2013 तक दिलकप रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट स्टडीज, इंडिया में प्रोफेसर एंड एसोसिएट प्रिंसिपल के पद पर काम किया। यहां एक मोड़ आया और मैंने एमबीए करने की ठानी। मेरा बेटा विनीत भी इस समय एमबीए करने की तैयारी कर रहा था। आप यकीन नहीं करेंगी कि जब मैंने एमबीए के लिए एंट्रेंस एग्जाम के लिए अप्लाई किया, तो जहां मेरा सेंटर आया, वहां के सुपरवायजर को लगा कि मैं अपने बच्चे के एमबीए के बारे में पता करने आई हूं। जब मैंने उसे बताया कि यह मेरे लिए है, तो वह बहुत चौंक गया। वह मेरे बेटे के ही उम्र का होगा। उसे लगा मुझे कंप्यूटर चलाना नहीं आता होगा, इसलिए उसने मेरे लिए कंप्यूटर ऑन किया और जब मैं आसानी से काम करने लगी तो उसे विश्वास हुआ कि मैं यह सब जानती हूं। मैंने 2014 में जनरल मैनेजमेंट, डिस्टेंस मोड, आईसीएफएआई यूनिवर्सिटी, इंडिया से एमबीए पूरा किया, यह जानते हुए कि मैं अब रिटायर होने वाली हूं। पढ़ाई करना मेरे लिए एक मजे की बात रही हमेशा से। सच में मैंने पूरा एमबीए बिना किताब के पन्ने पलटे ही पूरा कर लिया। परीक्षा के कुछ दिन पहले बस ऊपर-ऊपर से देख लिया और बस। दरअसल, उसमें ऐसा कुछ था ही नहीं जो मैंने पहले पढ़ा या किया न हो।”
कंप्यूटर से उनकी दोस्ती पर जयश्री ने बड़े गर्व के साथ कहा कि जब कोविड आया तो मेरे साथ काम करने वाली अन्य टीचर्स का बुरा हाल था। लोगों को ऑनलाइन क्लासेज देने में काफी तकलीफ हुई। जब कंप्यूटर नया-नया आया था, तो मैंने मेरे बेटे से सुना था कि उन्हें स्कूल में कंप्यूटर सिखाया जा रहा है। तब मैंने सोचा कि सिर्फ स्कूल में सीख लेगा तो भूल जाएगा। कंप्यूटर घर पर भी होगा, तो प्रैक्टिस होती रहेगी। मैंने जब मेरे पति से कंप्यूटर खरीदने की बात कही तो वे इसके खिलाफ थे। उन्हें लगा कि इंटरनेट से बच्चे बिगड़ सकते हैं, लेकिन मैंने जिद्द की और कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मेरा ये फैसला बहुत अच्छा है, क्योंकि अब वे काफी काम घर से आसानी से कर पाने लगे थे। इसलिए कोविड के दौरान ऑनलाइन क्लास मेरे लिए बड़ी बात नहीं रही। दरअसल, लर्निंग (पढ़ाई) चीज ही ऐसी है जो आपको कभी भी काम आ सकती है।”
जयश्री अपने आपको ‘वर्किंग’ रिटायर कहती हैं। वे 2018 से 2021 तक एनएसएम डिग्री कॉलेज, विले पार्ले, मुंबई में प्रिंसिपल रहीं और इसके बाद इसी कॉलेज में 2022 तक एडवाइजर रहीं। जयश्री कहती हैं कि यह फिल्मी डायलॉग है लेकिन सच है कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती, उम्र बस एक नंबर है। जयश्री फिलहाल कई ऐसे एनजीओ से जुड़ी हुई हैं जो महिलाओं को शिक्षित करने में सहायता प्रदान करते हैं। जाते-जाते जयश्री ने हमसे कहा, ‘अगर तुम ऐसी कोई भी महिला को जानती हो, जो पढ़ना चाहती है तो उसे मुझसे कनेक्ट करवा देना। वह महिला किसी भी रिमोट एरिया में रहती हो, हम उनकी मदद जरूर करेंगे।”
वाकई, जयश्री उन तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं, जो यह मान बैठती हैं कि शादी के बाद या बढ़ती उम्र के बाद अगर पढ़ाई करूंगी, तो लोग मजाक उड़ा देंगे। लोगों की परवाह किए बगैर उन्होंने जो एक मिसाल दी है, वह काबिल ए तारीफ है।