भारतीय वस्त्र उद्योग के साथ ग्रामीण महिलाओं के जीवन में हथकरघा का काफी महत्व रहा है। आइए जानते हैं हथकरघा उद्योग की माहेश्वरी साड़ियां किस तरह ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बना रही हैं।
मां साहेब की जीवित विरासत का हिस्सा हैं माहेश्वरी साड़ियां
18वीं शताब्दी के अंत में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने जीवित विरासत का हिस्सा रही माहेश्वरी हथकरघा और रेशम का प्रचार-प्रसार ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक स्थिति को सशक्त बनाने के लिए किया था। 1700 के दशक में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने हैदराबाद और सूरत से बुनकर समुदायों को अपनी राजधानी महेश्वर में आमंत्रित कर एक कपड़ा उद्योग की स्थापना की थी। ये बुनकर समुदाय शाही दरबार के लिए वस्त्र तैयार करने के साथ बुनाई की कला भी सिखाते थे, जिसका नतीजा मध्य प्रदेश की विश्वप्रसिद्ध लोकप्रिय माहेश्वरी साड़ियां हैं। आज भी बुनाई और कताई, महेश्वर की संस्कृति का एक हिस्सा होने के साथ हाशिए पर रहनेवाली ग्रामीण और स्थानीय महिलाओं को टिकाऊ काम प्रदान कर रही है, जिससे वे अपने परिवार में आर्थिक योगदान कर सकें।
अहिल्याबाई होल्कर के बाद शाही बहू सैली होल्कर
बीते कुछ सालों में इस व्यवसाय को बढ़ाने के लिए काफी संस्थाएं आगे आकर अपना-अपना योगदान देने में लगी हुई हैं। इन संगठनों में विशेष रूप से 2003 में स्थापित वीमेनवीव संस्था महिलाओं को उचित मजदूरी देने के साथ उन्हें सुरक्षित और स्वच्छ कामकाजी परिस्थितियां भी मुहैया करवा रही है, जिससे इस व्यवसाय में उनका उत्साह बना रहे। इस संस्था की संस्थापक महाराजा यशवंत राव होल्कर की शाही बहू सैली होल्कर हैं, जो माहेश्वरी साड़ियों के अस्तित्व को बनाये रखने के प्रयास में लगी हुई हैं। हथकरघा उद्योग के प्रति समर्पित इस संगठन का मुख्य उद्देश्य स्थानीय और वैश्विक बाजारों में हथकरघा की क्षमता को उजागर करते हुए बुनकरों के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करना है।
आर्थिक सुरक्षा के साथ सुखद कामकाजी माहौल
इस संस्था से जुड़ी काफी महिलाओं के अपने-अपने अनुभव हैं। उनके अनुसार खेतिहर मजदूरी की बजाय माहेश्वरी साड़ियों की बुनाई ज्यादा सम्मानजनक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करनेवाली है। इसके अलावा खेती में जहां उनके पास सिर्फ 7 से 8 महीने काम होता है, वहीं यहां बारह महीने काम होता है और पैसे भी अच्छे मिलते हैं। खेतिहर मजदूरों के अलावा इस व्यवसाय में कई ऐसी महिलाएं हैं, जो अपने परिवार की एकमात्र कमाऊ सदस्या हैं। इस संस्था के माध्यम से बुनकरों को स्वचालित चरखे दिए गए हैं, जो पारम्परिक खादी चरखों से काफी अलग हैं। घुटन भरे बदबूदार बंद कमरों की बजाय मजदूरों को साफ-सुथरी, ठंडी आब-ओ-हवा में काम करने का मौका दे रही ये संस्था, आज माहेश्वरी साड़ियों के साथ महेश्वर की पहचान बन चुकी है।
हर वर्ग की महिलाओं का सशक्तिकरण
इस संस्था से जुड़ी महिलाएं कताई, रंगाई और बुनाई के बाद कच्चे रेशों को कपड़ों में बदलकर उससे साड़ियां बनाती हैं। विभिन्न परिवेश से आनेवाली भिन्न-भिन्न महिलाओं के लिए ये संस्था समय-समय पर परियोजनाएं शुरू करती रहती हैं। हाल ही में गुड़ी-मुड़ी परियोजना के माध्यम से इस संस्था ने लगभग 160 कमजोर महिलाओं को सशक्त बनाया है, जिनमें तलाकशुदा, विधवा, विकलांग और बिना पारिवारिक आय वाली खेतिहर मजदूर महिलाएं शामिल थीं। महारानी अहिल्याबाई के शासनकाल में इन साड़ियों की डिजाइन मुख्य रूप से अहिल्या किले से प्रेरित हुआ करती थी। उसी स्थानीय बुनाई परंपरा का अनुसरण करते हुए आज भी उसी के अनुरूप साड़ियां बनाई जाती हैं। बस, अब आज की महिलाओं को ध्यान में रखते हुए उनमें आधुनिक रंग संयोजन और पैटर्न का उपयोग किया जाता है। इनमें खास बात यह है कि स्थानीय बुनाई परंपरा के साथ उत्पादन प्रक्रिया के किसी भी चरण में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग नहीं किया जाता।
डिजाइनरों और बुनकरों की अगली पीढ़ी की तैयारी
माहेश्वरी साड़ियों के निर्माण में महेश्वर की परंपरा का निर्वहन करते हुए हर वर्ष छः महीनों के लिए एक हथकरघा स्कूल चलाया जाता है, जिससे डिजाइनरों और बुनकरों की अगली पीढ़ी तैयार हो सके। इसके अंतर्गत सिर्फ मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश के ग्रामीण और शहरी हिस्सों से आए पारंपरिक बुनाई समुदायों और परिवारों के स्त्री-पुरुषों को हथकरघा व्यवसाय की बारीकियां सिखाई जाती हैं। इसके साथ ही स्कूल की समाप्ति पर उन्हें डिजाइन, एंथ्रेप्रेन्योरशिप और मैनेजमेंट में प्रमाणपत्र भी दिए जाते हैं।
पर्यावरण अनुकूल उत्पादनों के साथ उपभोक्ता जागरूकता
फिलहाल ये संस्था ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के हरसंभव प्रयास में लगी हैं। इसके अलावा पर्यावरण अनुकूल उत्पादनों पर जोर देते हुए ये कपड़ों की सुंदरता के साथ उपभोक्ता जागरूकता भी बढ़ाने में लगी है, जिससे देश-विदेश में ग्राहकों में टिकाऊ बुनाई के प्रति उत्सुकता बढ़े और इस क्षेत्र से जुड़ी ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक स्थिति में बढ़ोत्तरी हो। इसके साथ ही कताई-बुनाई के लिए वे ऐसे कपास का इस्तेमाल करते हैं, जो स्थानीय स्तर पर उगाया जाता है। इस तरह स्थानीय किसानों की भी मदद हो जाती है।