देश-विदेश में अपनी खूबसूरती से सबका मन मोह रही कुल्लू शॉल, हिमाचल प्रदेश के हथकरघा विरासत को सहेजे हुए है। आइए जानते हैं कुल्लू शॉल से जुड़ी कुछ खास बातें।
कुल्लू में हथकरघों का चलन
स्वतंत्रता से पहले परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण गर्म कपड़े कुल्लू घाटी तक नहीं पहुंच पाते थे, ऐसे में खुद को भीषण ठंड से बचाने की बुनियादी जरूरत के मद्देनजर वहां के लोग पिटलूम के जरिए पट्टी बुनते थे। पुरुष इन पट्टियों से जहां कोट ,पायजामा और टोपी बनाते थे, वहीं महिलाएं इसे पट्टू के रूप में इस्तेमाल करती थीं। यह पट्टियां ऊन के प्राकृतिक काले, सफेद और भूरे रंगों में बुनी जाती थीं। वर्ष 1936 तक पिटलूम पर कपड़े बनाए जाते रहे, लेकिन उसके बाद ब्रिटिश प्रभाव के कारण हथकरघों का चलन शुरू हो गया। वर्ष 1940 में जब पहली बार शिमला से हथकरघों के साथ बुनकर कुल्लू घाटी आए तो उनके शिल्प ने कुल्लू के लोगों को काफी प्रभावित किया। शिमला के बुनकर मुख्यत: जियोमेट्रिक डिजाइन बनाया करते थे। ऐसे में इन डिजाइनों का प्रयोग जब उन्होंने कुल्लू की सभ्यता पट्टू पर की तो पूरी घाटी उनकी बुनाई की दीवानी हो गयी। हालांकि अब तक पारंपरिक रूप से ऊन से पट्टू बना रहे कुल्लू वासियों के बीच सिंथेटिक धागों ने 1940 में दस्तक दे दी थी। उस दौरान कुल्लू घाटी में कोई कताई मिल नहीं थी, इसलिए बुनकर पंजाब के लुधियाना शहर से धागा लाते थे। इन धागों का प्रयोग वे पट्टू और शॉल बनाने में करते थे, जो देखते ही देखते पूरी कुल्लू घाटी में लोकप्रिय हो गया।
एक्ट्रेस देविका रानी ने निभाई अहम भूमिका
कभी भेड़-बकरियों से प्राप्त ऊनों और उनके प्राकृतिक रंगों से पट्टू का निर्माण होता था, लेकिन समय के साथ विभिन्न डिजाइनों और रंगों में इनका निर्माण होने लगा। वर्तमान समय में मिल रहे खुबानी, गेरू, जंग, भूरा, जैतून जैसे वनस्पति रंगों से बनी कुल्लू शॉल इसका प्रमाण हैं। हालांकि 1942 में स्थानीय करघों में पैदा हुई गहरी रूचि की वजह शिमला के बुनकरों की ज्यामितीय डिजाइन के साथ प्रसिद्ध रूसी पेंटर निकोलस रोरिक की बहू और मशहूर फिल्म एक्ट्रेस देविका रानी का कुल्लू दौरा भी है। उनके अनुरोध पर ही बनोंत्तर गांव के शेरू राम ने पहली बार शहरी आकार का पहला शॉल बनाया था। इस शॉल की खूबसूरती ने पंडित उर्वी धर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने शॉल के व्यावसायिक उत्पादन की शुरुआत कर कुल्लू की बुनाई विरासत के विकास का फैसला कर लिया।
परंपरागत कुल्लू शॉल की विशेषता
परंपरागत रूप से पहले कुल्लू शॉल काले, सफेद, भूरे या नैचुरल ग्रे होते थे, लेकिन समय के साथ इनमें पीले, लाल, हरे, नारंगी और नीले चटख रंगों का इस्तेमाल किया जाने लगा। वर्तमान समय में ये चमकीले रंग अब पेस्टल रंगों में बदल चुके हैं, जो अधिकतर शहरी ग्राहकों की पहली पसंद बन चुके हैं। कुल्लू शॉल में 1 से 8 रंगों का एक स्पेक्ट्रम होता है, जिन्हें सोच-समझकर आपस में जोड़कर एक नया पैटर्न बनाया जाता है। गौरतलब है कि कुल्लू शॉल में भेड़ की ऊनों के साथ पश्मीना, याक की ऊन, अंगोरा और हाथ से बुने रेशे होते हैं। इन धागों को बड़ी सफाई से वनस्पति या रासायनिक रंगों से रंगा जाता है, जिससे विभिन्न रंगों के कपड़े मिल सके। पहाड़ी यात्रा करनेवाले पर्यटकों के बीच लोकप्रिय कुल्लू शॉल, आज हथकरघा क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे बुनकरों की आजीविका बन चुकी है।
जियोमेट्रिक डिजाइनों के साथ हो रहे हैं अन्य प्रयोग
जियोमेट्रिक डिजाइनों से बनी कुल्लू शॉल, कुल्लू हथकरघा की पहचान बन चुकी है। हिमाचल की पहाड़ियों में आ रहे अधिकतर मेहमान पर्यटकों की पहली पसंद अब भी सादी बुनाई, टवील बुनाई, महीन जिगजैग और धारियों जैसी तकनीकों का प्रयोग करके सावधानीपूर्वक बुनी जा रही पारंपरिक कुल्लू शॉल ही है। फिर भी कुल्लू के बुनकर अपने क्षेत्र में आनेवाले विभिन्न मेहमान पर्यटकों की पसंद का ख्याल रखते हुए विभिन्न रंगों और डिजाइनों के साथ काफी प्रयोग कर रहे हैं, जिससे उन्हें बेहतर विकल्प मिल सके। पुरुष पर्यटकों के लिए सफेद शॉल के साथ चेक, स्ट्राइप और सादे प्राकृतिक रंगों से मफलर और स्कार्फ बनाए जा रहे हैं। पुरुष बुनकरों के साथ अब कुल्लू की महिला बुनकर भी इस कला में शामिल हो चुकी हैं, जो जमीन पर बैठकर कॉम्पैक्ट करघे पर पैटर्न वाले हथकरघे की पट्टियां बुनती हैं। इन पट्टियों से हिमाचली टोपी के साथ सजावटी बॉर्डर भी बनाए जाते हैं, जो किसी भी परिधान से आसानी से जुड़कर उनकी खूबसूरती बढ़ा देते हैं।
हिमाचल प्रदेश की सशक्त अर्थव्यवस्था
शॉल बनाने के लिए आम तौर पर कच्चे माल के रूप में ऊन और उपकरण के तौर पर चरखा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऊनी धागों से आम तौर पर शॉल और स्टोल बनाए जाते हैं। हथकरघे से कपड़ा और टेपेस्ट्री बुनी जाती है। फिलहाल फ्लाइंग शटल ने हथकरघा को एक मशीन का स्वरूप दे दिया है, जिससे एक ही बुनकर कम समय में काफी कपड़ा तैयार कर लेते हैं। गौरतलब है कि इस मशीनी दौर में भी कारीगर पीढ़ियों से चली आ रही बुनाई पद्धति का पालन करते हुए पिट और फ्रेम लूम का उपयोग कर रहे हैं। सिर्फ यही नहीं, जटिल डिजाइनों पर हाथ से कलात्मक कढ़ाई भी की जाती है, जिससे पारंपरिक कुल्लू शॉल की विरासत बरकरार रहे। इस क्षेत्र के लगभग हर घर में यह बेहतरीन शॉल बनाए जाते हैं। वर्तमान समय में हिमाचल प्रदेश में बीस हजार बुनकरों का समुदाय है, जिनमें से 60 प्रतिशत बुनकर व्यक्तिगत रूप से या बुनाई सहकारी समितियों के साथ मिलकर कुल्लू शॉल के निर्माण में लगे हैं। ऐसे में अगर यह कहें तो गलत नहीं होगा कि हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में कुल्लू शॉल बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है।