थियेटर की दुनिया में हिंदी की लोकप्रियता हमेशा ही रही है। हिंदी के कई धुरंधरों ने इसमें कमाल किया है, तो आइए 3 अप्रैल हिंदी रंगमंच दिवस के बहाने इसके पूरे इतिहास के बारे में जानने की कोशिश करते हैं।
क्या है इतिहास
गौरतलब है कि बनारस में 3 अप्रैल 1868 की शाम पहली बार ‘जानकी मंगल’ नाटक का मंचन हुआ था और इसमें भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने लक्ष्मण की भूमिका निभाई थी। वर्ष 3 अप्रैल 1868 को बनारस में पहली बार शीतलाप्रसाद त्रिपाठी कृत हिन्दी नाटक ‘जानकी मंगल’ का मंचन हुआ था। पूरी काशी नगरी में खूबसूरत माहौल था। महाराज काशी नरेश द्वारा आयोजित नया तमाशा थियेटर देखने के लिए पूरी भीड़ उमड़ी थी। बता दें कि हिंदी रंगमंच का प्रारम्भ 1853 ईसवीं में नेपाल के माटगांव में अभिनीत ‘विद्याविलाप‘ नाटक से माना जाता है। इसी के बाद कोलकाता में ‘मॉर्डन थिएटर ‘ ने मुंबई की ‘ पारसी रंगमंच ‘ की ‘ इम्पीरियर ‘ जैसी अनेक नाटक कंपनियों को खरीदकर कोलकाता को रंगमंच का केंद्र बना दिया। मुंबई और कोलकाता के इन रंगमंच के एकीकरण में हिंदी रंगमंच के विकास की शुरुआत हुई।
हिंदी रंगमंच का विकास
पारसी रंगमंच ने हिंदी रंगमंच को बढ़ावा दिया, जिनमें नौटंकी, रासलीला, रामलीला, स्वांग, नकल, खयाल, यात्रा, यक्षगान, नाचा और तमाशा आदि लोकप्रिय लोक-नाट्य रूप रहे हैं। हिंदी रंगमंच के अगर विकास की बात की जाये, तो बलिया नाट्य समाज‘ की भूमिका दी ऐतिहासिक मानी जाती है। 1884 ईसवीं में फिर भारतेंदु ने नाटक पर एक लंबा व्याख्यान दिया था। उसी समय ‘ सत्य हरिश्चंद्र ‘ और ‘नीलदेवी‘ नाटकों का मंचन किया गया था। उसी समय भारतेंदु ने हरिश्चंद्र की भूमिका निभाई थी। इस नाटक के मंचन को उस क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। इस संदर्भ में गोपालराम गहमरी ने लिखा है कि "पात्रों का शुद्ध उच्चारण हमने उसी समय हिंदी में नाटक स्टेज पर सुना था।
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में हिंदी रंगमंच ने काफी अधिक विकास किया। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से कई कलाकारों ने फ़िल्मी दुनिया की तरफ भी उत्थान किया। और सन 1959 में संगीत नाटक अकादमी की घटक इकाइयों में से एक के रूप में स्थापित और बाद में एक स्वतंत्र इकाई में बदल गया। यहां से जिन कलाकारों ने भी पहचान बनाई, हिंदी भाषा ने उन्हें काफी मदद की है।
हिंदी रंगमंच की प्रमुख प्रवृतियां
भारतेंदु युग में न सिर्फ नाट्य-लेखन हुआ, बल्कि उनके मंचन के लिए भी प्रेरणा मिली। दरअसल, भारतेंदु नाट्य लेखन एवं अभिनय के केंद्र में एक संस्था की तरह कार्यशील थे। उन्होंने पश्चिम की ग्रीक परंपरा को भी सीमित मात्रा में समाविष्ट किया। साथ ही साथ भारतेंदु ने अपने नाटकों में अभिनय करने को प्राथमिकता दी। उन्होंने अपने नाटकों में पात्र योजना, भाषा, संवाद संयोजन और अभिनय को प्राथमिकता दी। वहीं, पारसी थियेटर शुद्ध व्यवसायिक थियेटर था , इसलिए उसने अपनी मौलिक रंग पद्धतियों का विकास किया। पारसी थियेटर ने हिंदी के दर्शक बढ़ाये और लोगों में थियेटर देखने की प्रवृति को बढ़ावा दिया। वहीं इप्टा यानी ‘इंडियन पीपल थियेटर एसोसिएशन ‘ का जन्म देश की आजादी की लड़ाई और विश्वव्यापी फासीवाद विरोधी आंदोलन के गर्भ से हुआ था। इसकी स्थापना 25 मई 1943 को मुंबई में हुई थी। यहां भी हिंदी नाटकों के विकास को नयी दिशा मिली। हिंदी रंगमंच की दुनिया में और बात यह भी हुई कि पृथ्वी थिएटर को देश का राष्ट्रीय हिंदी रंगमंच माना गया, जिसे पृथ्वीराज कपूर ने बनवाया था। साथ ही साथ मोहन राकेश की ‘रंग-दृष्टि’ भी हिंदी रंगमंच की दुनिया में बड़ा नाम बना, उन्हें हिंदी के नए एवं मौलिक रंगमंच की खोज करने का प्रयास किया।