भारतीय रंगमंच की परंपरा शताब्दियों से चली आ रही हैं, किंतु सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश के कारण प्राचीन भारत में महिलाएं, लेखक या निर्देशकों के तौर पर रंगमंच में अधिक योगदान नहीं दे पाती थीं, तो आइए जानते हैं रंगमंच में महिला लेखिकाओं की स्थिति के बारे में विस्तार से।
रंगमंच में महिलाओं की उपस्थिति
19वीं शताब्दी के शुरुआत से ही कहानियों, उपन्यासों और कविताओं के जरिए महिला लेखिकाओं ने अपना महत्व अंकित करना शुरू कर दिया था, किंतु रंगमंच से वे अब भी कोसों दूर थीं। ऐसा नहीं है कि वे इसमें शामिल नहीं थीं, किंतु या तो उनकी उपस्थिति नगण्य मानी जाती थी या फिर उनके योगदान को दर्ज ही नहीं किया जाता था। हां 19वीं शताब्दी के अंत तक स्थिति कुछ-कुछ बदलने लगी थी। क्षेत्रीय रंगमंचों के जरिए ही सही, लेकिन अब उनके महत्व को आंका जाने लगा था। गौरतलब है कि 20वीं सदी की शुरुआत में बालमणि अम्मल नामक एक पूर्व देवदासी ने अपनी मंडली का नेतृत्व करते हुए उन महिलाओं के लिए पूरे तमिलनाड़ु में यात्रा की, जिन्हें आश्रय की आवश्यकता थी। उसके बाद इसका अनुसरण करते हुए आर नागरत्नम्मा नामक निर्देशक और अभिनेता ने 1958 में महिलाओं को लेकर कन्नड़ कंपनी की शुरुआत की।
रंगमंच में महिला लेखिकाओं की जड़ें
नाटक लेखन की बात करें, तो सबसे पहले स्वर्णकुमारी देवी द्वारा लिखे बांग्ला नाटक और इसके बाद उर्दू में रशीद जहां द्वारा लिखे नाटकों का उल्लेख मिलता है। इन दोनों ने अपनी-अपनी भाषा में सामाजिक बुराइयों पर प्रकाश डालते हुए नाटकों की रचना की थी। इसके बाद कॉर्नेलिया सोराबजी नामक भारतीय महिला ने अंग्रेजी में पहला नाटक लिखा था, जो पेशे से वकील थी। गौरतलब है कि इस दृष्टांत नाटक का प्रकाशन, उन्होंने लंदन में करवाया था।
आजादी के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन
आजादी के बाद महिला लेखिकाओं में न सिर्फ उल्लेखनीय वृद्धि हुई, बल्कि उनके उठाए गए ज्वलंत मुद्दों ने सबको चौंका भी दिया। बंगाली नाटककारों में महाश्वेता देवी, नबनीता देव सेन और साओनली मित्रा, गुजराती नाटककारों में धीरूबेन पटेल और वर्षा अदलजा, हिंदी नाटककारों में मन्नू भंडारी, कुसुम कुमार, मृदुला गर्ग, शांति मेहरोत्रा और मृणाल पांडे, मराठी नाटककारों में मालतीबाई बेड़ेकर, मुक्ता दीक्षित, तारा वनरासे, ज्योति म्हाप्सेकर, सुषमा देशपांडे और प्रेमा कंटक, पंजाबी नाटककारों में मंजीत पाल कौर, तमिल में अंबाई और मंगई, तेलुगु में वोल्गा और विनोदिनी, उर्दू में जमीला निशात, उड़िया में निबेदिता जेना और संघमित्रा मिश्रा तथा अंग्रेजी में दीना मेहता का नाम काफी सम्मान से लिया जाता है।
नई सहस्राब्दी की बेहतर शुरुआत
पिछले कुछ सालों में भारतीय रंगमंच के मद्देनजर महिला नाटककारों में एक सुखद और सकारात्मक बदलाव आया है। इनमें सबसे पहला नाम आता है मंजुला पद्मनाभन का। मंजुला पद्मनाभन को सबसे पहले उनके नाटक हार्वेस्ट के लिए प्रसिद्धि मिली थी। उसके बाद लाइट्स आउट, हिडन फायर्स और मेटिंग सीजन को भी काफी सराहा गया। पोइले सेनगुप्ता ने भी मंगलम और किट्स वाज अ ट्यूबर नामक आकर्षक नाटक लिखे। इस दौरान महिला लेखिकाओं ने जिस तरह नाटक की कमान संभाली है, उससे लगता है जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जो इनसे अछूता रह गया हो। पुनर्निर्माण की मांग करती, उनकी बुलंद आवाज, सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। रंगमंच का नारीवादी सिद्धांत, एरिस्टोटेलियन की धारणा को अस्वीकार करता है। वह दर्शकों से भी इस बात की मांग करती हैं कि वे मनोरंजन से इंकार करते हुए समाज के उपेक्षित वर्गों, जैसे महिला और बच्चों पर अपना ध्यान केंद्रित करें।
महिला लेखिकाओं के साथ महिला निर्देशकों का वर्चस्व
वर्षों से पुरुष निर्देशकों और लेखकों द्वारा नाटकों में उपभोग की वस्तु की तरह प्रस्तुत की जा रही महिलाओं की स्थिति, अब महिलाओं की उपस्थिति से काफी सुधर गई है। भारतीय नाटककारों में महिला लेखिकाओं के साथ महिला निर्देशकों जैसे दीना गांधी पाठक, शांता गांधी, शिला भाटिया, विजया मेहता, रेखा जैन और जॉय माइकल जैसे अग्रणी और सफल महिला निर्देशकों ने इसे नई राह दिखाई, तो कीर्ति जैन, अनुराधा कपूर, अमल अल्लाना, नीलम मान सिंह, चौधरी, उषा गांगुली, सोहाग सेन, त्रिपुरारी शर्मा, अनामिका हक्सर, अंजना पुरी, बी जयश्री, माया राव, रति बार्थोलोम्यू, नादिरा जहीर बब्बर और विनापानी चावला ने इसे आगे बढ़ाया। अब नई पीढ़ी के रूप में रोबोजिता गोगोई, शैलजा जे, जयति बोस, निबेदिता जेना, भास्वती बसु और सस्मिता राणा जैसी युवा प्रतिभाएं बदलाव के नए मुहावरे गढ़ रही हैं।
भारतीय रंगमंच का नया प्रतिमान
महिला नाटककारों और निर्देशकों के परिदृश्य में आने के बाद से भारतीय रंगमंच में चीजें काफी हद तक बदल गई हैं। अपने मुद्दों को प्रभावी ढ़ंग से नाटकीय बनाने के लिए इतिहास के साथ पौराणिक कथाओं और प्राचीन घटनाओं का इस्तेमाल करते हुए महिलाओं के दृष्टिकोण से उसकी पुनर्व्याख्या की जा रही है। महिलाएं लिंग-भेद संबंधी निर्धारणों को पार करते हुए अपनी बात अधिक खुलेपन और मानवतावादी दृष्टिकोण से कर रही हैं।