महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों की नाट्य परंपरा को हिंदी साहित्यकारों ने समय के साथ न सिर्फ प्रोत्साहित किया, बल्कि समृद्ध भी किया। आइए जानते हैं हिंदी साहित्य में नाट्य रचना के बारे में विस्तार से।
छोटे से जीवन में बड़े काम
आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने 35 वर्ष के छोटे से जीवन में भारतीय साहित्य को नाटकों से न सिर्फ समृद्ध किया, बल्कि जनमानस का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हुए हिंदी साहित्य का सितारा भी बन गए। रंगकर्मी, निर्देशक, प्रबंधक और नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने जीवन काल में लगभग 18 नाटक लिखे, जिनमें ब्रिटिश हुकूमत को ध्यान में रखकर लिखा गया अंधेर नगरी नाटक आज भी लोकप्रिय है। हालांकि प्रायोजकों और रंगमंच प्रबंधकों की कमी के कारण उनके बाद हिंदी रंगमंच संघर्ष के दौर से गुज़री। यही वजह है कि उनके समकालीन जयशंकर प्रसाद और उपेंद्रनाथ अश्क़ की कृतियाँ पढ़ी तो गयीं, लेकिन मंचित नहीं हुई।
पौराणिक और ऐतिहासिक कृतियों से हुई शुरुआत
माना जाता है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता गोपाल चंद्र ने 1859 में नहुल नामक पहला नाटक लिखा था, लेकिन इस नाटक के मंचन के बहुत कम प्रमाण मौजूद हैं। इसके बाद शीतल प्रसाद त्रिवेदी के पहले नाटक जानकी मंगल का मंचन बनारस थियेटर में 1868 में किया गया, जिसे पुराना नाचघर के नाम से भी जाना जाता है। गौरतलब है कि इस नाटक में स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक अभिनेता के रूप में अपनी शुरूआत की थी। मौजूद दस्तावेज़ों के अनुसार भारतेंदु काल से पहले हनुमान, अमास्य सार नाटक, विचित्र नाटक, शकुंतला उपख्यान, आनंद रघुनंदन और इंदर सभा जैसे पौराणिक नाटकों का चलन था। इसी से प्रेरित होकर जहाँ भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सत्य हरिश्चंद्र, भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी लिखी थी, वहीँ 19वीं सदी के अंत में जयशंकर प्रसाद ने स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी और मैथिलीशरण गुप्त ने तिलोत्तमा, चंद्रहास और अनघ लिखा था।
नाट्य परंपरा में एकांकी नाटकों ने निभाई प्रमुख भूमिका
जयशंकर प्रसाद के बाद महत्वपूर्ण नाटकों की रचना में बद्रीनाथ भट्ट और लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम आता है, जिनके नाटक यथार्थवाद के लिए जाने जाते हैं। उनकी कृतियों में सन्यासी, रक्षा का मंदिर, मुक्ति का रहस्य, राजयोग और सिंदूर की होली प्रमुख है। इसी दौरान 1938 में प्रेमचंद ने साहित्यिक पत्रिका हंस की शुरुआत के साथ, उसमें कई महत्वपूर्ण एकांकी नाटकों का प्रकाशन कर, हिंदी रंगमंच को एक नई राह दिखाई। 1930 के दशक में हिंदी रंगमंच में एकांकी नाटकों ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। इनमें मुख्य रूप से गणेशप्रसाद द्विवेदी की सुहाग बिंदी, भुवनेश्वरप्रसाद की कारवां और सत्येंद्र की कुणाल शामिल है। इसी के साथ रामकुमार वर्मा ने पृथ्वीराज की आँखें और रेशमी ताई जैसे एकांकी नाटक लिखे, जो मूलत: कवी, नाटककार, आलोचक और इतिहासकार थे। वैसे हिंदी साहित्य में उनके द्वारा लिखा गया नाटक, चारुमित्रा, आधुनिक हिंदी का उत्कृष्ट नाटक माना जाता है। गौरतलब है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद 40-50 के दशक में मोहन राकेश जैसे नाटककारों ने हिंदी रंगमंच को काफी समृद्ध किया।
आज़ादी के बाद की चुनौतियाँ
आज़ादी के बाद अपने पैरों पर खड़े हो रहे देश में सबकी अपनी-अपनी चुनौतियां थीं। उसी दौरान नाटककारों ने अपनी क्षमता का प्रयोग करते हुए ऐसे नाटक रचे, जो अविस्मरणीय हैं। विशेष रूप से जगदीशचंद्र माथुर ने कोणार्क और उपेंद्रनाथ अश्क़ ने अंजो दीदी के साथ अपने विषयगत विकास और मंचीय शिल्प की विकसित समझ को प्रदर्शित किया। इसी कड़ी में 1960 में आई ज्ञानदेव अग्निहोत्री की व्यंग्यात्मक क्लासिक नाटक शुतुरमुर्ग भी उल्लेखनीय है। वैसे 20वीं सदी का पहला नाटक 1953 में आया धर्मवीर भारती का अंधा युग माना जाता है। महाभारत से प्रेरित इस कृति में आधुनिक असंतोष और भ्रष्टाचार को दर्शाया गया है। इसके बाद 1958 में प्रकाशित मोहन राकेश का पहला नाटक आषाढ़ का एक दिन, संस्कृत नाटककार कालिदास के जीवन पर आधारित था। इसे पहला आधुनिक हिंदी नाटक की संज्ञा भी मिली हुई है। इसके बाद मोहन राकेश ने आधे-अधूरे और लहरों के राजहंस नामक दो और नाटक लिखे, जिसने हिंदी रंगमंच के स्वरूप को बदलकर रख दिया। इसके अलावा पाँव तले की ज़मीन भी उनका एक अधूरा नाटक है, जिसे पूरा करने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। उनके ये तीनों नाटक आज न सिर्फ भारतीय रंगमंच के क्लासिक्स बन चुके हैं, बल्कि यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रमों का हिस्सा भी हैं।
लौटे अपनी जड़ों की ओर
हिंदी साहित्य में एक दौर ऐसा भी आया, जब कई लेखक पश्चिमी रंगमंच से प्रेरित होने लगे थे, लेकिन जल्द ही वे अपने जड़ों की ओर लौटने लगे। ऐसे में भारतीय रंगमंच को पश्चिमी रंगमंच से दूरी बनाने के लिए जड़ों का रंगमंच नामक आंदोलन का उदय हुआ। इनमें हबीब तनवीर ने अपनी कृति आगरा बाज़ार और चरणदास चोर में स्वदेसी पुट अपनाया। हालांकि इसके अलावा सुरेंद्र वर्मा जैसे युवा नाटककार भी थे, जिन्होंने सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक तथा द्रौपदी और आठवाँ सर्ग नामक इन दो नाटकों के माध्यम से नाटक का एक नया प्रारूप प्रस्तुत किया। इसी के साथ कुछ ऐसे लेखक भी थे, जिन्होंने अपने पाठकों के साथ दर्शकों को कुछ बेहतर देने की गरज से इस क्षेत्र में कदम रखा था। इनमें भीष्म साहनी का नाम उल्लेखनीय है, जिनका सांप्रदायिक उपन्यास तमस आज भी मील का पत्थर माना जाता है। तमस के अलावा हनुश, माधवी और मुआवज़े उनके चर्चित नाटक हैं।