मैं कोई अनजान नहीं हूं, आपके घर के खिड़की के बाहर पड़ी हुई हूं मैं, या फिर किसी मैली सी सफेद थैली में लपेटकर आपने मुझे अपनी अलमारी के ऊपर रख दिया है। अगर मैं इन दोनों जगह पर नहीं मिलती हूं, तो एक बार मंदिर के ऊपर बाएं तरफ मुझे देख लेना, वहां पर जरूर मैं धूल खाती हुई अपनी चमक से अलग दिखाई दूंगी। मैं कुम्हार की मेहनत का दीया हूं, जिसे फिर आज से 11 दिन बाद आप सभी बाजार से खरीदकर घर ले आयेंगे। मैंने अपने कुम्हार बाबा से सुना है कि माटी की कोई कीमत नहीं होती, लेकिन जब भी बाबा मुझे बाजार लेकर आते हैं, तो लाइटिंग और झालरों के सामने मेरी चमक लोगों को फीकी दिखाई देती है।
कहते हैं, जलना-जलाना अच्छा नहीं होता, लेकिन एक दिवाली ही है, जो मेरे (दीये ) के जलने और आपके ( दिये) जलाने से ही मेरे बाबा (कुम्हार) के घर के चुल्हे की कच्ची मिट्टी को पका कर उस पर खुशियों की, उम्मीद की और आर्थिक बल के कई तरह के पकवान बना देती है। आज मैं आप सभी के घर को रोशन करने से पहले कुछ कहना चाहती हूं। अपने कुम्हार बाबा की दीया बिटिया बनना चाहती हूं। क्या आप जानती हैं, कि कैसे अपने हुनर को कमाई का जरिया बनाकर पीढ़ी दर पीढ़ी से मेरे कुम्हार बाबा सूखी और गीली मिट्टी के संगम से खुद के लिए दो वक्त की रोटी का जरिया तलाश करते हैं। बीते कई सालों से मैंने देखा है कि किस तरह कुम्हार बाबा ने हमारी बनावट को भी आधुनिक कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक चाक से मिट्टी को दीयों का स्वरूप दिया जा रहा है। इससे उन्हें चाक पर हाथ घुमाना नहीं पड़ता, लेकिन मिट्टी के दीये बनाने और उसे पकाने में जो खर्च आता है, कई बार दीये की बिक्री से भी वो खर्च पूरा नहीं हो पाता है। ईंधन भी पहले से महंगा हो चुका है। ऐसे में लागत मिलना भी कुम्हारों के लिए मुश्किल हो जाता है, मुनाफे के बारे में भी वे सोच नहीं सकते हैं।
यह हमारे लिए दुखद है कि लाइटिंग आपके घर को रोशन करती है लेकिन मिट्टी के दीये की खरीदारी पहले की तुलना में कम होने लगी है। इसी कारण साल भर त्योहार की प्रतीक्षा करने वाले कुम्हारों की दुनिया पहले की तरह रोशन नहीं होती है। पहले के मुकाबले दीये के लिए अच्छी मिट्टी मिलना भी मुश्किल हो रहा है। शहरों की आबादी बढ़ने के कारण खाली जगह नहीं बची है। मिट्टी के बर्तन और दीये बनाने के लिए मिट्टी बाहर से लानी पड़ती है। मिट्टी की ट्राली लेनी पड़ती है,जिसका भाव भी पहले से अधिक हो चुका है। पहले जहां 500 रुपए की ट्राली की कीमत फिलहाल 5000 रुपए के करीब की हो चुकी है। मिट्टी का दीया को पकाने के लिए गोबर के उपलों की भी जरूरत होती है उनके दाम भी दिवाली में चार गुना बढ़ जाते हैं। जब बाजार में हमारी बिक्री होती है, तो ग्राहक माटी के दीये की कीमत माटी के समान समझते हैं, जिससे कुम्हारों का हौसला घटने लगता है और जब सारी प्रक्रिया के बाद मैं कुम्हार बाबा की झोली में बैठकर बाजार आती हूं, तो बाबा की हाथ से मिली हुई चमक खरीदारों की शक भर निगाहों के साथ मोल-भाव की बोली के बीच गुम होने लगती है।
यही सवाल आता है कि ईंट और मिट्टी के घर में अपने परिवार के साथ दिवाली मनाते वक्त मिट्टी के दीये की कीमत क्यों कम लगती है, क्यों आखिर बाजार जाते समय मिट्टी के दीये को लेकर भाव करने लगते हैं कि भैया 10 रुपए कम कर दें। अरे, ये कितना महंगा है। वहीं लाइटिंग और झालरों पर हम 100 और 200 रुपए देने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस दिवाली क्यों न आप मेरे कुम्हार बाबा के जीवन की कच्ची माटी को पक्का बनाने का संकल्प लें और ज्यादा कुछ न करते हुए सिर्फ मिट्टी के दीये से अपने मकान को घर बनाएं। बिना किसी दीये की कीमत लगाते हुए कुम्हारों को दिवाली की भेंट में यह वचन दें कि ‘मेरे घर के दीये कुम्हारों के घर की दिवाली को रोशन करेंगे’। उम्मीद करती हूं कि इस साल आप मेरी कीमत समझेंगे और मेरी तुलना रेडीमेड लाइटिंग से नहीं करेंगे।