अपनी सांस्कृतिक विरासत से समृद्ध भारत देश में कई ऐसे लोक नृत्य हैं, जिनका आनंद आपने अपने सफर के दौरान उठाया होगा। आइए जानते हैं कुछ स्थानीय लोक नृत्य के बारे में।
गर्भ में पल रहे शिशु का प्रतीक है ‘गरबा’
परंपरागत रूप से मिट्टी के घड़े में एक दीपक रखकर उसे मां दुर्गा का प्रतीक मानकर गरबा की शुरुआत हुई थी, जिसका शाब्दिक अर्थ गर्भ है। यही वजह है कि उस घड़े को गर्भ दीप कहा जाता है, और इसी के चारों ओर महिलाएं गोल घेरा बनाकर परंपरागत नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहते हैं। मां दुर्गा के सम्मान में नवरात्रि के दौरान गरबा, पूरे गुजरात में किया जाता है। गरबा सांस्कृतिक ही नहीं, जीवन-मरण का प्रतीकात्मक स्वरूप भी दर्शाता है, जिसके अंर्तगत गोल घूम रही महिलाएं, हिन्दू धर्म में समय चक्र को दर्शाती हैं। इसका तात्पर्य है जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म। आधुनिक समय में गरबा का स्वरूप बदल चुका है। पहले गरबा, महिलाओं का और डांडिया रास, पुरुषों का नृत्य हुआ करता था, लेकिन अब वो एकाकार हो चुका है। जीवंत संगीत के साथ रंग-बिरंगी पोशाकों और आनंदमय नृत्य का संगम, गरबा का हिस्सा यदि आप भी बनना चाहती हैं, तो नवरात्रि के दौरान गुजरात की यात्रा जरूर करें।
किसानी अभिव्यक्ति का प्रतीक है ‘भांगड़ा
पूरे भारत में विभिन्न नृत्य शैली हैं, जिनमें से 8 को क्लासिकल नृत्य का दर्जा मिला हुआ है और बाकी विधाओं को स्थानीय कहानियों, लोक संस्कृतियों और मौखिक परंपरा के अनुरूप अलग-अलग बांट दिया गया है। इनमें पहला नाम आता है पंजाब राज्य के भांगड़ा का। गौरतलब है कि भांगड़ा की शुरुआत किसानों द्वारा अच्छी फसल का जश्न मनाने के लिए की जानेवाली अभिव्यक्ति के रूप में हुआ था। नाम के अनुरूप इसका नाम भारत के एक फेस्टिवल ड्रिंक ‘भांग’ से लिया गया है, जो आम तौर पर उत्सव के दौरान दूध और ड्राईफ्रूट से बनाया जाता है। भांगड़ा डांस को आप पंजाब की विकसित लोक-परंपराओं और समुदाय के उत्सव की भावना के रूप में भी देख सकते हैं, किंतु समय के साथ भांगड़ा में एनर्जेटिक फुटवर्क के साथ लयबद्ध तालियां और ढोल जैसे कई अन्य तत्व जुड़ते गए और इसका स्वरूप विकसित हो गया। आज मॉडर्न डांस फॉर्म और म्यूजिक के साथ भांगड़ा ने अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान कायम कर ली है, जिसे भांगड़ा पॉप के नाम से भी जाना जाता है। आज आलम यह है कि अपनी ग्रामीण जड़ों से निकलकर भांगड़ा, पंजाबी संस्कृति की पहचान बन चुका है। आप चाहे जिस शहर में रहती हों, हमें यकीन है आपने कभी न कभी भांगड़ा का आनंद लिया ही होगा।
फसल की समृद्धि का प्रतीक है ‘बिहू’
स्थानीय भाषा के अनुसार ‘बी’ का अर्थ है मांगना और ‘हू’ का अर्थ है देना। इस लेन-देन के संयोजन को ‘बिहू’ उत्सव के रूप में मनाया जाता है। गौरतलब है कि असम राज्य का यह सांस्कृतिक फसल उत्सव, कृषि कैलेंडर के अनुसार वर्ष में तीन बार मनाया जाता है। इसमें पहला बिहू, वसंत के आगमन स्वरूप ‘बोहाग बिहू’ या ‘रोंगाली बिहू’ के रूप में मनाया जाता है, जो सात दिनों तक चलता है। दूसरा बिहू, ‘कटि बिहू’ कहलाता है, जो फसलों की कटाई के दौरान ईश्वर से आशीर्वाद मांगने के लिए मनाया जाता है। तीसरा और अंतिम बिहू, जिसे ‘माघ बिहू’ भी कहते हैं, फसल के मौसम का अंत होता है। इसे दावत का उत्सव भी कह सकते हैं, क्योंकि इस दौरान किसानों के अन्न भंडार भरे होते हैं और वे आराम करते हैं। बिहू नृत्य के दौरान जहां महिलाएं पारंपरिक आभूषणों के साथ मेखला चादर और मिशिंग स्टोल पहनती हैं, वहीं पुरुष गमुसा के साथ धोती-कुर्ता या असमिया जापी के साथ पारंपरिक टोपी पहनते हैं। ये रंगीन पोशाकें, बिहू नृत्य की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हुए उसकी खूबसूरती भी बढ़ाते हैं। बिहू नृत्य आम तौर पर ढ़ोल, बांसुरी और हॉर्नपाइप जैसे वाद्ययंत्रों के साथ खुले मैदान में किया जाता है। तो एक बार आपको भी असम जाकर, कमर पर हाथ रखकर बिहू नृत्य का आनंद जरूर लेना चाहिए।
झूमर, झुमैर या झुमुर
बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम और पश्चिम बंगाल, इन सभी राज्यों में फसलों के दौरान अपनी खुशी जाहिर करने के लिए किया जानेवाला झुमुर डांस न सिर्फ सामुदायिक संबंधों को बढ़ावा देता है, बल्कि मनोरंजन का भी साधन है। विशेष रूप से छोटा नागपुर में कई जातीय समूहों का केंद्र है, जो अपनी मूल भाषा में झुमुर के माध्यम से सुंदर गीतों के साथ हर फसल के मौसम का जश्न मनाते हैं। हालांकि उनके इन गीतों में अक्सर वहां के लोगों की करुण कहानी के साथ उनकी कठिनाइयों का जिक्र भी होता है। फिर भी अपनी मजबूत लय और जीवंत धुनों के साथ झुमुर डांस, वहां के लोगों का उत्साह दिखाता है। झुमुर में वहां की लोक संस्कृतियों के कई रंग हैं, शायद यही वजह है कि वहां के लोगों के साथ आम दर्शकों से भी यह अपना गहरा संबंध स्थापित करने में कामयाब होता है। तो अगली बार जब आप इन राज्यों में घूमने जाएं, तो झुमुर का हिस्सा बनना न भूलें।
लावण्यमयी ‘लावणी’
महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों से निकली लावणी, सौंदर्य का प्रतीक है। जीवंत और अभिव्यंजक कला के रूप में उभरी लावणी, महाराष्ट्र की संस्कृति और परंपराओं का खूबसूरत चित्रण है। माना जाता है कि इस नृत्य की शुरुआत 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान सैनिकों और उनके परिवारों को प्रेरित करने के लिए हुई थी, क्योंकि उस दौरान पूरा महाराष्ट्र सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। विशेष रूप से पेशावरी राज्य के दौरान लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुंची लावणी, महिलाओं द्वारा घुंघरू की पायल पहनकर, ढ़ोल की थाप पर किया जानेवाला एक खूबसूरत नृत्य हुआ करता था। किंतु समय के साथ इसमें मंजीरा, टुनटुनी, डफ और हारमोनियम जैसे अन्य वाद्ययंत्र जुड़ते चले गए। लावणी के दो प्रकार है, निर्गुणी लावणी और शृंगारी लावणी। निर्गुणी लावणी में जहां दर्शन होता है, वहीं शृंगारी लावणी, कामुकता पर आधारित होता है। कभी पति-पत्नी के अलगाव और सैनिकों के भावुक प्रयासों का चित्रण करती लावणी, आज सिनेमा के दौर में पूरी तरह से शृंगारी हो चुकी है।
आओ, गिद्दा पाओ
भांगड़ा की तरह ही गिद्दा भी पंजाबी संस्कृति का प्रतीक है, जो मूल रूप से पंजाबी महिलाओं द्वारा शादी-ब्याह या किसी उत्सव के दौरान किया जाता है। पुरुषों द्वारा किए जानेवाले भांगड़ा के मुकाबले महिलाओं द्वारा किया जानेवाला गिद्दा डांस काफी मुश्किल होता है। हालांकि इसमें भी लयबद्ध संगीत के साथ एनर्जेटिक फुटवर्क होते हैं, किंतु इसकी शैली थोड़ी जटिल होती है। यह डांस आम तौर पर ‘बोलिस’ नामक ट्रेडिशनल पंजाबी लोक गीतों के गायन के साथ होता है, जिसके अंतर्गत प्यार, रोजमर्रा की परेशानियों और सांस्कृतिक कहानियां सुनाई जाती हैं। गिद्दा, पंजाबी महिलाओं की जीवंतता के साथ उस समुदाय की खुशी को भी दर्शाती है। सच पूछिए तो ये लोक नृत्य, सांस्कृतिक परंपराओं को संभालकर युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का शानदार तरिका है।
राजस्थानी शान का प्रतीक ‘घूमर’
राजस्थानी जनजातियों द्वारा देवी सरस्वती की श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप किए जानेवाले घूमर नृत्य को, समय के साथ राजस्थान के अन्य समुदायों ने न सिर्फ सराहा, बल्कि अपनाया भी। आज के दौर में राजस्थानी संस्कृति का हिस्सा बन चुका घूमर नृत्य, विवाह के बाद की जरूरी रस्म बन चुका है। इस रस्म के अनुसार नवविवाहिता दुल्हन अपने वैवाहिक घर में प्रवेश करने के बाद यह नृत्य करती है। विभिन्न आभूषणों से सजी-धजी नवविवाहिता अपने नए घर में इस नृत्य के माध्यम से सबका अभिवादन करती है। जैसा कि ‘घूमर’ नाम से ही जाहिर होता है, इसमें महिलाएं सुंदर ढ़ंग से गोल घेरे में घूमती हैं। गोल घुमते हुए जिस नजाकत से वे अपने दोनों हाथों को हिलाती हैं, उसे देखकर हमें यकीन है कि आपका मन भी इसे करने को कहता होगा। तो देर किस बात की। निकल पड़िए राजस्थान, घूमर के साथ घूमने को।
भारतीय ग्रामीण ऑपेरा ‘यक्षगान’
कर्नाटक के सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर यक्षगान एक जीवंत पारंपरिक नृत्य शैली है, जिसकी शुरुआत नॉर्थ कन्नड़ के होन्नावर तालुका के गुणवंते गांव से हुई थी। ऑपेरा या ब्रॉडवे की तरह इसमें भी भव्यता के साथ डायलॉग, डांस, म्यूजिक और फैंसी ड्रेसेस होते हैं, जिनकी जड़ें संस्कृत साहित्य से जुड़ी हुई हैं। 11वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी के बीच, विजयनगर साम्राज्य के बाद तटीय कर्नाटक और केरल के कुछ हिस्सों में इस परंपरा की शुरुआत हुई थी। यक्षगान का प्रदर्शन मूल रूप से रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर आधारित होता है। कर्नाटक के ग्रामीण भागों में कई परिवार, पीढ़ियों से यक्षगान की कला को आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं। पहले यक्षगान की पोशाकों का निर्माण हलकी लकड़ी, दर्पण और रंगीन पत्थरों से किया जाता था, लेकिन वक्त के साथ अब लकड़ी की जगह थर्माकोल ने ले लिया है। अगर आप भी भारतीय ग्रामीण शैली के ऑपेरा का हिस्सा बनना चाहती हैं, तो अगली बार जब कर्नाटक जाएं तो यक्षगान का आनंद उठाना न भूलें।
पैतृक आत्माओं का सम्मान है थेय्यम
थेय्यम के द्वारा महान कहानियों को कला के माध्यम से प्रस्तुत करने की शुरुआत नॉर्थ केरल राज्य में हुई थी। ऐसी मान्यता है कि थेय्यम के जरिए प्राचीन जनजातियों की मान्यताओं को सम्मान देते हुए पैतृक आत्माओं का सम्मान किया जाता था। थेय्यम के पारंपरिक वाद्ययंत्रों में चेंडा, विक्कुचेंडा, इलाथलम और कुरुमकुजल शामिल है। वर्तमान समय में पूरे केरल राज्य में 400 से भी अधिक प्रकार के थेय्यम मौजूद हैं, जिनमें रक्त चामुंडी, कारी चामुंडी, मुचिलोट्टू,भगवती, वायनाडु कुल्वेन, गुलिकन और पोट्टन शामिल हैं। इसके अंतर्गत मेकअप और गरिमामयी पोशाकों के साथ एक शक्तिशाली नायक का चित्रण किया जाता है। विशेष रूप से कन्नूर और कासरगोड के कई मंदिरों में दिसंबर से अप्रैल तक थेय्यम का प्रदर्शन जोर-शोर से किया जाता है। इसके अलावा, उत्तरी मालाबार में करीवल्लूर, नीलेश्वरम, कुरुमाथुर, चेरुकुन्नू, एजोम और कुन्नाथुरपाड़ी में वार्षिक थेय्यम का आयोजन किया जाता है, जिसे देखने काफी लोग आते हैं। तो यदि आप भी थेय्यम का हिस्सा बनना चाहती हैं, तो एक बार केरल के इन जगहों की यात्रा जरूर करें।
पुंग चोलोम नृत्य
पुंग चोलोम नृत्य, मूल रूप से मणिपुर का प्रसिद्ध नृत्य है। नृत्य के दौरान इस्तेमाल किए जानेवाले ड्रम को पुंग कहा जाता है। पुंग चोलोम में थांग ता और सरित सारक जैसे पारंपरिक मणिपुरी मार्शल आर्ट के कुछ अंश भी शामिल होते हैं। मणिपुरी संस्कृति के एक स्वरूप नाट संकीर्तन से यह काफी जुड़ा हुआ है, क्योंकि उसमें भी पुंग (ड्रम) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। माना जाता है कि 154-264 ई के आसपास खुयोई टॉमपोक द्वारा इसे पहली बार प्रस्तुत किया गया था।