जब-जब लोगों ने उन्हें चैलेंज किया और उन्हें फिनिश ऑफ़ लिखा, वह एक अलग मिजाज में आयीं और दुनिया को दिखा दिया कि अभी वह खत्म नहीं हुई हैं. हमेशा जज्बे से भरपूर रहने वालीं, एक ऐसी खिलाड़ी, जो कई महिलाओं के लिए मिसाल बनीं, जी हाँ, हम बात कर रहे हैं अर्जुन अवार्ड्स और पद्मश्री से सम्मानित पीटी उषा के बारे में , जिन्हें आप ‘क्वीन ऑफ ट्रैक एंड फील्ड’, ‘द पय्योली एक्सप्रेस’ या फिर शायद ‘उड़न परी’ के नाम से जानते होंगे. अपनी डिस्पिलिन और डेडिकेशन की वजह से पीटी उषा ने भारत की पहली महिला एथलीट होने का गौरव हासिल किया और कई कामयाबी अपने नाम की.
1964 में केरल के पय्योली गाँव में जन्मीं पीटी उषा (पिलावुलकंडी थेक्केपराम्बिल उषा). चौथी क्लास में थीं वह, जब उन्होंने अपने जिले की चैंपियन को हरा कर बता दिया कि वह उड़ने के लिए ही बनी हैं. जब उन्होंने अपने पंख पसारने शुरू किए, तो आसमान भी कम पड़ गया. जिस दौर में लड़कियों का खेल जगत से कोई सरोकार नहीं था, ऐसे में पीटी उषा ने भारतीय एथलेटिक्स के इतिहास में महिलाओं के योगदान को एक नई पहचान दी. विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए, वह आगे बढ़ती गईं और महिलाओं के लिए एक मिसाल बन गईं.आइए,जानते हैं इस महान धाविका के बारे में, उनकी ही जुबानी कि कैसे उन्होंने अपने लिए लिखी एक सफलता की कहानी. पेश है उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश, पीटी उषा ने हमेशा माना कि ज़िंदगी में आप जब लक्ष्य तय करें, तो आपके कदम सिर्फ और सिर्फ जीत की ओर ही अग्रसर होने चाहिए.
लंबा मगर यादगार स्पोर्ट्स करियर
मेरे स्पोर्ट्स करियर की शुरुआत तब हुई, जब मैं बहुत छोटी थी और कामयाबी तक का यह सफर बहुत मुश्किलों से भरा हुआ था. केरल के गाँव से लेकर, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना आसान नहीं था. बहुत मेहनत की है मैंने, यहां तक पहुँचने में, मैंने कई हर्डल्स पार किए हैं, लेकिन अच्छी बात यह है कि मेरे पेरेंट्स ने मुझे हमेशा सपोर्ट किया और यही कारण था कि मैं अच्छा परफ़ॉर्म कर पाई.
आसान नहीं था जीत हासिल करना
जब मैंने शुरुआत की थी, उस समय स्पोर्ट्स को ही इतना महत्व नहीं दिया जाता था, न सरकार की तरफ से, न समाज की तरफ से. फिर इसके बाद यदि आपको स्पोर्ट्स में जाना है, तो आपको एक सिस्टम की ज़रूरत होती है. आपको एक अच्छे कोच, सही फूड, अच्छे फिज़ियो, डॉक्टर, मसाजर, न्यूट्रिशनिस्ट, ट्रैक और इंफ्रास्ट्रक्चर फैसिलिटी आदि सभी की ज़रूरत होती है, जो कि मेरे समय में बिल्कुल भी नहीं था. उन दिनों यह सोच नहीं थी कि खिलाड़ियों को सही डायट और न्यूट्रिशन देने की जरूरत है. अब आप ही सोचिए, जब मैंने स्पोर्ट्स शुरू किया था, तब मेरा हीमोग्लोबिन 12 था और इसे 12.2 - 12.5 तक लाना भी बहुत मुश्किल काम था. तब अवेयरनेस की कमी के कारण हमको यह ही नहीं पता था कि हमको करना क्या है. यहां तक कि मैंने सिंथेटिक ट्रैक तब देखा था, जब मैं मॉस्को ओलंपिक्स (1980) में गई थी. अब तो हर स्टेट और हर डिस्ट्रिक्ट में इसकी सुविधा उपलब्ध है.
अब सरकार खिलाड़ियों को हर तरह की सुविधा देने की कोशिश करती है
1980 से लेकर आप अब तक देखें, तो फैसिलिटीज़ के मामले में बहुत कुछ सुधार हुआ है. अब तो सरकार खिलाड़ियों को ज्यादा से ज्यादा चीज़ें प्रोवाइड कर रही हैं और पूरा ध्यान भी दे रही है. अब खिलाड़ियों को कोच, ट्रेनर, मसाजर, फिजियो, डॉक्टर आदि सभी विदेशों से मिल रहे हैं, सभी डिस्ट्रिक्स में सिंथेटिक ट्रैक्स हैं, अब एथलीट्स को भी कॉम्पिटिशन, ट्रेनिंग और अन्य चीज़ों के लिए विदेशों में भेजा जा रहा है. यदि कोई खिलाड़ी सिर्फ एक मैडल भी जीत ले, तो उन पर पैसों की बारिश कर दी जाती है और लोग उन्हें स्पॉन्सरशिप देने लगते हैं.
ज़िंदगी का वह पल शायद ही भूल पाऊं
वह मेरी ज़िंदगी का बहुत खराब लम्हा था, जब मैं 1984 लॉस एंजेल्स ओलंपिक्स (400 मीटर हर्डल्स) में एक्सपोज़र की कमी के कारण, केवल 1 सेकेंड के सौंवे हिस्से से मेडल हार गयी थी. मैं करीब-करीब जीत चुकी थी. मेरा पांव आगे था, लेकिन मैं अपने सीने को आगे नहीं झुका सकी. अगर मैं ऐसा कर पाती, तो मैं निश्चित रूप से मेडल जीत लेती. उस समय मेरी आंखों में आंसू आ गए थे. उस ओलंपिक से पहले, मैंने भारत में केवल 2 रेस दौड़ी थी और लॉस एंजेल्स में मेरी तीसरी रेस थी, जब मैंने ग्रां प्री रेस में भाग लेकर अमेरिकन एथलीट को हरा कर वह रेस जीती थी | मेरी चौथी रेस सीधे ओलंपिक्स हर्डल्स हीट थी. अब यदि आज के समय में मुझे परफ़ॉर्म करना पड़ता, तो मैं वर्ल्ड रिकॉर्ड बना चुकी होती.
हार के बाद क्रिटिसिज़्म ने हिम्मत तोड़ दी थी
1984 ओलंपिक्स में जब मुझसे मेडल मिस हो गया था, तब मैंने फिर से बहुत हार्डवर्क के साथ प्रैक्टिस की, जिससे मेरे एक पैर के घुटने में चोट लग गई थी. लेकिन किसी ने इस बात पर विश्वास नहीं किया था. इसके बावजूद मैंने प्रैक्टिस जारी रखी और बाद में दूसरे पैर में भी चोट लग गई थी. मेरी ट्रेनिंग में कंटिन्यूटी नहीं रह पाई, इसलिए मेरा वह साल पूरा खराब गया और मैं उस ओलिंपिक में कुछ नहीं कर पाई. लोगों ने मुझे क्रिटिसाइज़ करना शुरू कर दिया. मेरे बारे में न्यूज़पेपर्स में काफी खराब बातें लिखी जाने लगीं. तब मुझे बहुत दुख हुआ कि मैं देश के लिए कर रही हूं फिर भी लोग मुझे दोष दे रहे थे. तब मैंने सोच लिया था कि दुनिया को दिखाना है कि पीटी उषा खत्म नहीं हुई है. 6 महीने के बाद मैं ठीक हुई और ट्रेनिंग शुरू की और 1989 एशियन चैंपियनशिप में मैंने बहुत अच्छा कमबैक किया. फिर जो लोग मुझे क्रिटिसाइज़ करते थे वही मेरी तुलना ‘फिनिक्स बर्ड’ से करने लगे.
मैं हमेशा बहुत पॉज़िटिव रही हूँ
यह तो रीत ही है कि यदि आप अच्छा परफॉर्म करते हैं, तो लोग आपको बहुत बड़ा बना देते हैं और आसमान पर बिठा देते हैं, वहीं अगर आप एक बार हार गए, तो वे आपको नीचे जमीन पर ले आएंगे. लेकिन मैं हमेशा इसे पॉजिटिव तरीके लेती थी और फाइट बैक करती थी. मेरा तो एक ही लक्ष्य था कि मुझे ओलंपिक, एशियन गेम्स और वर्ल्ड चैंपियनशिप में जाकर जीतना है, बाकी मैं किसी बात की मैं परवाह नहीं करती थी. |
खेलों में लड़कियों के लिए बढ़े अवसर
अब तो लड़कियां हर तरह के खेल में आगे बढ़ रही हैं. केरल में मेरा एक एथलीट स्कूल है, जहां मेरे पास ट्रेनिंग के लिए काफी लड़कियां आती हैं और उन्होंने लड़कों से ज्यादा अच्छा परफ़ॉर्म किया है. आपको स्पोर्ट्स में जाना है, तो थोड़ी बोल्डनेस होना चाहिए. जब आप प्रैक्टिस करती हैं, तब सोच में बहुत फोकस और कॉन्सेंट्रेशन होना चाहिए. आपका लक्ष्य सिर्फ जीत होना चाहिए. लोगों की बात की परवाह नहीं करना चाहिए.
एक कोच के रूप में खिलाड़ियों को सभी सुविधाएं देने की कोशिश
जो फ़ैसिलिटीज़ की कमी मुझे रही, मैं वे सब अपने स्टूडेंट्स को देने की कोशिश करती हूँ | हम सभी स्टूडेंट्स को ठीक से ट्रेनिंग दे रहे हैं, उन्हें स्पोर्ट्स किट फ्री देते हैं. फूड के लिए न्यूट्रिशनिस्ट द्वारा बनाया गया मेनू दिया जाता है, ताकि उन्हें अच्छा फूड मिल सके. स्पोर्ट्स मेडिसिन के लिए डॉक्टर का सपोर्ट है. हम उन्हें अच्छा फिज़ियो और मसाजर दे रहे हैं, इसीलिए तो मेरे एकेडेमी के स्टूडेंट्स अच्छा परफ़ॉर्म कर रहे हैं.
नई जनरेशन में धैर्य की कमी है
नई जनरेशन में टैलेंट की कमी नहीं है, लेकिन उनमें धैर्य नहीं है. उन्हें तुरंत रिज़ल्ट चाहिए और हर तरह की सुविधाएं चाहिए. यह सब मिल गया तो ठीक है नहीं तो फील्ड ही छोड़ दो. इनको थोड़ा सब्र रखने, फोकस करने और ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है. ये लोग शुरू में 1 या 2-3 साल स्पोर्ट्स करेंगे फिर स्पोर्ट्स में नज़र नहीं आएंगे. हमारे पास दौड़ने के लिए ट्रैक नहीं था, रेल्वे ट्रैक पर दौड़कर प्रैक्टिस करते थे. आजकल के बच्चों को सिंथेटिक ट्रैक मिल रहा है, फिर भी बोलते हैं कि यह तो बहुत हार्ड है, इसमें स्ट्रेन आता है. उन्हें जिम, फिज़ियोथेरेपी और मसाज- इन सबकी सुविधा उपलब्ध मिलेगी, तभी खेलने के बारे में सोचेंगे.
सफलता के लिए डेडिकेशन और डिसिप्लिन जरूरी है
टैलेंट तो सभी लोगों में होगा, लेकिन सफलता के लिए आपके सामने सबसे पहले एक लक्ष्य होना चाहिए और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए बहुत मेहनत करनी होती है. आपको यह मानकर चलना होगा कि कड़ी मेहनत करना भी आसान नहीं होगा, इसमें भी बाधाएं आएंगी. लेकिन आपको अपना पूरा फोकस सिर्फ प्रैक्टिस पर रखना है. कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन यदि आप डिसिप्लिन और डेडिकेशन के साथ मेहनत करेंगी, तो सफलता निश्चित है. कई तरफ से समस्याएं आएंगी, लेकिन जीत हासिल करने के लिए आपको काफी कुछ त्याग करना पड़ता है.
पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के लिए जरूरी है स्पोर्ट्स
अगर आप कोई स्पोर्ट्स खेलती हैं, तो यह वुमन एम्पावर्मेंट को बढ़ावा देता है. मुझे ही देखिए मैंने 2000 स्पोर्ट्स छोड़ दिया था, फिर भी लोग मुझे याद करते हैं, खास मौकों पर बुलाते हैं, सम्मानित करते हैं. अब ये सब स्पोर्ट्स से ही तो मिला है. स्पोर्ट्स से पर्सनैलिटी डेवलपमेंट होता है | आप विदेश में जाकर जब स्पोर्ट्स में जीतेंगी, तो राष्ट्र गान जन, गन, मन बजेगा. स्पोर्ट्स के अलावा और किसी फील्ड में ऐसा नहीं होता है. स्पोर्ट्स के जरिए आप देश का नाम ऊँचा कर सकती हैं और देश का गौरव बढ़ाती हैं, इसलिए एक स्पोर्ट्स परसन पर्सन बन कर मैं खुश हूँ.
फैमिली ने किया सपोर्ट
मेरे मम्मी-पापा, मेरे अंकल्स और मेरे कोच नाम्बियार सर ने मुझे बहुत सपोर्ट किया. शादी के बाद पति वी श्रीनिवासन का भी बहुत सपोर्ट मिला है. वह भी मेरे साथ एकेडेमी में ही हैं और उसके डायरेक्टर हैं. अब मेरा बेटा उज्ज्वल भी मेरे साथ ही काम कर रहा है वह स्पोर्ट्स मेडिसिन में डॉक्टर है और मेरे एकेडमी से जुड़ा है. इसलिए मैं बोलती हूं कि शादी उससे करनी चाहिए, जो आपके फील्ड का हो. मेरी फैमिली स्पोर्ट्स में बहुत इंटरेस्ट रखती है इसलिए मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं हुई. ,
स्पोर्ट्स से अलग भी है ज़िंदगी
एकेडमी से घर आने के बाद मैं वह करती हूँ, जो मेरे पति और बच्चों को पसंद है. यूं तो घर में कई सर्वेंट हैं, लेकिन मैं खुद ही घर की साफ़-सफाई और देख-रेख करती हूं और कभी-कभार खाना भी बनाती हूं. मुझे गार्डनिंग करना पसंद है. कभी समय मिला, तो टीवी और न्यूज़ देखती हूं. जब मेरा अच्छा मूड होता है, तो फिल्म देखती हूं या फिर गाने सुनती हूं. मुझे मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार और लता मंगेशकर के गाने बहुत पसंद हैं . मैं मलयालम और हिंदी गाने सुनती हूं.
ड्रीम जो सच करना है
मेरा ड्रीम है कि मेरी एकेडेमी के स्टूडेंट्स ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतें और इसके लिए मैं बहुत कोशिश कर रही हूं | एकेडेमी में हम हर साल स्टूडेंट्स का सेलेक्शन करते हैं, उनसे कोई फीस नहीं लेते हैं, हम उन्हें सभी फैसिलिटीज़ फ्री में दे रहे हैं.
पीटी उषा के बारे में जानें ये जरूरी बातें
जब उन्होंने 1980 के मॉस्को ओलंपिक्स में हिस्सा लिया, तब वह सिर्फ 16 साल की थी और वह सबसे कम उम्र की पहली भारतीय महिला एथलीट बनी. हालांकि इस दौरान उन्हें कोई मेडल हासिल नहीं हुआ, लेकिन 1982 में दिल्ली में हुए एशियन गेम्स में 100 मीटर और 200 मीटर रेस में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता.
1985 में जकार्ता एशियाई चैम्पियनशिप में 5 गोल्ड मेडल्स और 1 ब्रॉन्ज़ मेडल और सियोल एशियाई खेल में 44 गोल्ड मेडल्स और एक सिल्वर मेडल अपने नाम किया.
भारत सरकार ने उन्हें 1984 अर्जुन अवार्ड और पद्मश्री से सम्मानित किया.
1984, 85,89 और 90 में सर्वश्रेष्ठ रेलवे खिलाड़ी के लिए मार्शल टीटो पुरस्कार से सम्मानित
1985 और 86 में सर्वश्रेष्ठ धाविका के लिए विश्व ट्रॉफी हासिल की
दौड़ में श्रेष्ठता के लिए 30 अंतर्राष्ट्रीय इनाम प्राप्त हुए