भारत की यही खूबसूरती है कि यहां इतने सारे पर्व त्योहार हैं, जिसकी वजह से हमारी संस्कृति विविधता के साथ-साथ, रंग-बिरंगी भी नजर आती है, ऐसे में अब हमारे त्योहार, सिर्फ अच्छे कपड़े या पुआ-पकवान तक सीमित नहीं हैं और खासतौर से महिलाएं, अब केवल किचन में ही पकवानों को अपनी कला से सजाती नजर नहीं आ रही हैं, बल्कि वे बाहर निकल कर अपने लिए एक नया आशियाना ढूंढ रही हैं। और यह मौका उन्हें इस साल रक्षाबंधन के पर्व ने भी दिया है।
जी हां, पूरे भारत में महिलाओं ने इस बार रक्षाबंधन को केवल, एक पारिवारिक आयोजन के रूप में नहीं देखा है, बल्कि अपने लिए और बाकी महिलाओं के लिए, आत्म-निर्भर बनने का एक मौका दे दिया है। रक्षाबंधन के बहाने, अपने नए और रचनात्मक अंदाज में जिस तरह से राखी मेकिंग को एक नया उड़ान दिया है, वह कई महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान लेकर आया है। पूरे भारत में इस बार, महिलाओं को स्वयं उद्यम बनाने में इको-फ्रेंडली राखी मेकिंग ने एक मिसाल कायम किया है। दिलचस्प बात यह है कि सिर्फ भारत में ही नहीं, विदेशों में भी इनके कामों की गूंज हुई है। गाय के गोबर से लेकर, बीज और बाकी कई प्राकृतिक चीजों से राखी बना कर, ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ एक बड़ा योगदान रक्षाबंधन के बहाने इन महिलाओं ने दिया है।
जयपुर में तो महिलाओं ने जो कारनामा कर दिखाया है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। उन्होंने राखी बनाने के लिए जिस चीज का इस्तेमाल किया है, वह हमारी कल्पना से भी बाहर है। उन्होंने ऑर्गनिक गाय के गोबर से राखियां बनाई हैं और जिसके खरीदार अमेरिका से लेकर मॉरीशस में हैं। 40 हजार से भी अधिक राखियां इन देशों में भेजी गई हैं। हहनेमन चैरिटेबल मिशन सोसायटी की महिलाओं ने खुद के लिए इसे आत्मनिर्भर का जरिया बनाया है। इसे बनाना इतना भी आसान नहीं, महिलाओं ने इसके लिए काफी मेहनत की है, उसे धूप में सुखाने से लेकर, उसमें चंदन की लकड़ियां मिलाने से लेकर, काफी प्रक्रिया के बाद ये राखियां बन कर तैयार हुई हैं।
वहीं, ओड़िशा में महिलाओं ने बीज से राखी बना कर कमाल किया है। ओड़िशा की ग्रामीण विकान और मार्केटिंग सोसायटी ने बीज से बनी राखी को खूब प्रोमोट किया है। दामपाड़ा ब्लॉक के लगभग 80 महिलाओं ने तीन निर्माता ग्रुप्स के रूप में राखी बनाने का काम किया है। उन्होंने जूट फाइबर, बेंट और बैम्बू जैसी इको फ्रेंडली चीजों का इस्तेमाल किया है। और लगभग 70 हजार राखियों का निर्माण किया है। यहां की महिलाओं ने इस विचार पर काम किया है कि रक्षाबंधन के पर्व के खत्म होने के बाद, राखियां कचरे में फेंकी जाती हैं, तो काफी गंदगी फैलती है, ऐसे में इको-फ्रेंडली राखी के साथ यह परेशानी नहीं आएगी।
वहीं, महाराष्ट्र की महिलाएं भी खुद को आत्म-निर्भर बनाने और पर्यावरण को बचाने में कहीं से भी पीछे नहीं हैं। मीनाक्षी वाल्के, जो कि महाराष्ट्र की बैम्बू वुमन मानी जाती हैं, उन्होंने अभिसार इनिशिएटिव के साथ बैम्बू की राखियां बनाई हैं। इनकी बनी राखियां और रक्षाबंधन के और भी गिफ्ट्स पूरे भारत में बिक्री किये गए हैं। खास बात यह है कि लंदन तक में भी इनकी राखियां, एनआरआई के बीच पसंद की गई है।
हिमाचल प्रदेश की महिलाएं भी नया रचने में पीछे नहीं रही हैं, उन्होंने तो पाइन यानी देवदार की सुइयों वाली कांटेदार पत्तियों को राखी का रूप दे डाला है। सबसे खास बात, जो इन महिलाओं की रही है, वह यही है कि इन्होंने देवदार की लकड़ियां, जो जंगल के रूप में जल जाया करती थीं, उन्हें नया रूप दिया है। सोलन और शिमला की ग्रामीण इलाके की लगभग 500 महिलाओं ने इसके माध्यम से अपने लिए स्वयं रोजगार के अवसर दिए हैं। यह उनके लिए जीविका की वजह बनी है। उन्होंने लगभग 84 लाख इसकी राखियां और प्रोडक्ट्स बना कर बिक्री करने के बाद कमाई की है।
वहीं, दिल्ली की गुलमेहर की महिलाएं भी किसी से पीछे नहीं हैं, इनकी कहानी भी अपने आप में एक बड़ी कहानी है, जहां कचरा चुनने वालीं महिलाओं को गुलमेहर का साथ मिला है और उन्हें अब आर्टिस्ट बनने का मौका दिया जा रहा है। उन्होंने इको-फ्रेंडली राखियां बना कर, अपने लिए जीविका अर्जित करने का एक खास तरीका ढूंढ निकाला है। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में भी आदिवासी महिलाएं, जम कर इको-फ्रेंडली राखियां बना रही हैं और इससे जीविका अर्जित कर रही हैं।
वाकई, इन महिलाओं के जोश और जज्बे को सलाम है, क्योंकि जिस तरह से वह लगन के साथ यह काम कर रही हैं और अपने लिए रास्ते निकाल रही हैं, वह कमाल है। ऐसे में यह कहना बिल्कुल सही होगा कि रक्षाबंधन का पर्व, इन महिलाओं के लिए नए अवसर, खुद के अंदर की प्रतिभा को तलाशने का एक जरिया बना है और साथ ही खुद को आत्मनिर्भर और कलात्मक बनाने का भी माध्यम बना है।