प्रकृति के प्रति अपना आभार और प्रेम भाव प्रकट करने के लिए भारत में कई तरह के त्योहार मनाये जाते हैं, जिसका प्रचार और प्रसार लोगों के बीच केवल कुछ प्रांत तक ही सीमित है। ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी है कि किस तरह अलग-अलग प्रांत के लोग प्रकृति को धन्यवाद देने और उनकी सुरक्षा के लिए त्योहार मनाते हैं। पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के मकसद से पर्यावरण त्योहार धूम-धाम से मनाया जाता है। आइए जानते हैं विस्तार से।
जम्मू में डोगरी संक्राति
जम्मू संभाग में डोगरी संस्कृति के लोग जुलाई में संक्राति का त्योहार मनाते हैं। इस त्योहार में लड़कियां बीज बोती हैं और गोबर से पूरे घर को लेपती भी हैं। दिलचस्प है कि लड़कियां जो बीज बोती हैं, वे ही आने वाले समय की फसल मानी जाती है। यह त्योहार पूरी तरह से फसल और पर्यावरण को समर्पित होता है। इस दिन घर के बुजुर्ग डोगरी भाषा, सभ्यता और संस्कृति का भी प्रचार इस त्योहार के दिन किया जाता है। खासतौर पर डोगरी भोजन की व्यवस्था भी ती जाती हैे।
फसलों की सुरक्षा और आगमन के लिए फेस्टिवल
उल्लेखनीय है कि देश के कई सारे भिन्न-भिन्न प्रांत में फसलों के आगमन से पहले उनका स्वागत विशाल तरीके से किया जाता है। आंधप्रदेश में युगदि और उगादि मनाया जाता है। कश्मीर में हरित फसलों के लिए नौरोज का उत्सव मनाया जाता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के जरिए फसलों के आने का जश्न मनाने के साथ साल भर अच्छी फसल होने की कामना इस फेस्टिवल में की जाती है।
हरेला पर्व
उत्तराखंड में सावन की शुरुआत के साथ हरेला पर्व का उत्सव मनाया जाता है। इसे उत्तराखंड का लोकपर्व भी कहा जाता है। इसे साल में 3 बार बड़े धूम से सेलिब्रेट किया जाता है। हरेला का अर्थ हरियाली होता है। इस पूर्व को नए ऋतु के आने का संकेत भी माना जाता है। इसके लिए महिलाएं हरेला आने पर्व से 9 दिन पहले टोकरी में पांच या सात प्रकार के अनाज बोए जाते हैं। हरेला के दिन इसे काटा जाता है। खासतौर पर धान, मक्की, उड़द, गहत, तिल और भट्ट के बीज को बोया जाता है। यह माना जाता है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी अच्छी फसल होगा और कृषि से इससे अधिक लाभ मिलेगा। इस तरीके से हरेला पर्व के जरिए फसलों के सुखद आगमन की प्रार्थना की जाती है।
जुड़ शीतल पर्व
बिहार में शीतल पर्व की परंपरा कई दशकों से चली आ रही है। इसमें खास तौर पर जल की स्वच्छता और फसलों की सुरक्षा के लिए सभी लोग मिलकर प्रार्थना करते हैं। मिथिला में सत्तू और बेसन की नयी पैदावर भी इसी पर्व के दौरान होती है। इस पर्व में सत्तू और बेसन का उपयोग करके व्यंजन को अधिक समय तक बिना खराब हुए रखा जा सकता है। इस पर्व में शाम के दिन सभी लोग पेड़-पौधों में जल डालते हैं, इससे गर्मी के मौसम में भी पेड़-पौधे हरे भरे रहें और वे सूखें नहीं रहते हैं। मिथिला में लोगों का मानना है कि पेड़-पौधे भी उनके परिवार का हिस्सा है और इस पर्व में खाने से लेकर सोने तक के दौरान जल और जमीन का महत्व बताया जाता है। जमीन पर पानी गिरा कर उसे ठंडा करने से लेकर पेड़-पौधे में पानी देने तक। माना जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते हुए खतरे के बीच शीतल पर्व प्रकृति के संरक्षण की प्रेरणा देता है।
इनके अलावा, वैसाखी, छठ और जगह-जगह पर होने वाले सावन पर्व को भी प्रकृति का पर्व माना जाता है।
दुनिया में पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जरूरी पर्व
प्रकृति से खुद को जोड़ रखने के लिए दुनिया में भी कई तरह के पर्व मनाए जाते हैं। ताइवान में मियाओली काउंटी में हक्का तुंग ब्लॉसम फेस्टिवल तुंग के पेड़ों के खिलने की खुशी में मनाया जाता है। इस दौरान प्रकृति से जुड़े कई सारे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। ठीक इसी तरह कोस्टा रिका में हर साल एनविजन फेस्टिवल भी पर्यावरण की रक्षा के लिए आयोजित किया जाता है। इसके अलावा ग्लैस्टनबरी दुनिया का सबसे बड़ा संगीत फेस्टिवल है, जहां पर पर्यावरण की स्थिरता को व्यापक तरीके से संगीत और डांस के माध्यम से पेश किया जाता है।
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