मातृ मृत्यु दर को लेकर, कुछ जरूरी आंकड़े सामने आये हैं। अगर पिछले कुछ वर्षों पर गौर करें, तो वर्ष 2000 से 2017 के बीच विश्व स्तर पर मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) में 38 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो प्रति 100,000 जीवित दर पर 342 मौतों से 211 मृत्यु हो गई है। इन मौतों का एक बड़ा हिस्सा निम्न और मध्यम आय वाले देशों में केंद्रित था, खासकर अफ्रीका और दक्षिण एशिया में। दक्षिण-एशियाई क्षेत्र में, संख्या 2000 में प्रति लाख जीवित जन्मों पर 395 मातृ मृत्यु के बराबर थी। देशों और अंतर्राष्ट्रीय निकायों द्वारा ठोस और संयुक्त कार्यों के कारण 2017 में यह आंकड़ा घटकर 163 प्रति लाख जीवित दर रहा। इस कमी का 40 प्रतिशत भारत में एमएमआर में कमी (डब्ल्यूएचओ, 2000) के कारण था। भारत के भीतर, एमएमआर प्रदर्शन में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। एसआरएस के आंकड़ों के मुताबिक, देश में 2016-18 से 2017-18 तक 113 से 103 मातृ मृत्यु दर प्रति लाख जीवित जन्मों में 10 अंकों की गिरावट आई है। हालांकि हम 2015 के संयुक्त राष्ट्र लक्ष्यों से चूक गए, अध्ययनों से पता चलता है कि हम एमएमआर (डब्ल्यूएचओ, 2015) के लिए 2030 एसडीजी लक्ष्यों को पूरा कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लक्ष्य 3 का लक्ष्य 2030 तक वैश्विक स्तर पर प्रति 100000 जीवित दर पर 70 से कम मातृ मृत्यु का है।
गौरतलब है कि इनमें से अधिकांश मातृ मृत्यु को रोके जाने की पूरी गुंजाईश है। इसे हासिल करने के लिए प्रमुख रणनीतियों में से एक है, प्रसवपूर्व देखभाल (एएनसी) सेवाएं। जी हां, एएनसी की उपस्थिति स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की शुरुआती पहचान में महत्वपूर्ण है, जो गर्भावस्था के नकारात्मक परिणामों को जन्म दे सकती हैं और उन्हें प्रबंधित करने और आगे की जटिलताओं को रोकने की दिशा में काम कर सकती हैं। इन सत्रों के दौरान, महिलाओं को गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं जैसे एनीमिया, प्रीक्लेम्पसिया, यौन संचारित रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, आदि की जांच की जाती है और इन स्थितियों का उचित प्रबंधन किया जाता है। इन सत्रों के दौरान, वजन की निगरानी, टेटनस टॉक्सोइड टीकाकरण, और आयरन और फोलिक एसिड, कैल्शियम और एल्बेंडाजोल जैसे पूरक जैसी अतिरिक्त सेवाएं दी जाती हैं। इन सेवाओं को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि जब सही तरीके से उपयोग किया जाता है, तो जन्म के समय कम वजन, समय से पहले प्रसव, सहज गर्भपात, मातृ और प्रसवकालीन मृत्यु दर के जोखिम को कम किया जाता है। यह भी देखा गया है कि जैसे-जैसे महिलाएं इस चरण के दौरान सेवा प्रदाताओं के संपर्क में आती हैं, उनकी सुविधा-आधारित डिलीवरी और प्रसवोत्तर देखभाल के उपयोग की संभावना बढ़ जाती है।
एक महिला को इस बात की जानकारी जरूर होनी चाहिए कि एएनसी क्या है, इसमें किस तरह की सुविधाएं मिलती हैं, क्योंकि पूर्ण एएनसी देखभाल तब पूर्ण रूप से प्राप्त हुई मानी जाती है, जब एक महिला ने कम से कम चार एएनसी यात्राओं में भाग लिया हो, कम से कम एक टीटी इंजेक्शन प्राप्त किया हो और कम से कम 100 दिनों के लिए आईएफए की खुराक का सेवन किया हो। एनएफएचएस 4 की बात की जाए, तो 2014-15 में, 21 प्रतिशत ने देश में पूर्ण एएनसी देखभाल प्राप्त की थी और देश में एनएफएचएस 4 से एनएफएचएस 5 तक एएनसी कवरेज में समग्र वृद्धि हुई है। वैसे यह सकारात्मक बात है कि पूर्ण एएनसी कवरेज का उपयोग करने वाली महिलाओं के प्रतिशत में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
एक महत्वपूर्ण बात यह जाननी जरूरी है कि नागालैंड के तुएनसांग में केवल 0.7 प्रतिशत, गाजीपुर में एक प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 1.1 प्रतिशत ही कवरेज है, जबकि दक्षिण गोवा और नागालैंड में लगभग 89.1 प्रतिशत कवरेज है, केरल में भी यह प्रतिशत अच्छा है, लेकिन अब भी संभवत: 81 प्रतिशत भारत के जिलों में, केवल 50 प्रतिशत ही एएनसी कवरेज सेवा पहुंच पाई है । अब इसके कारण क्या हैं, तो सेवा प्रदाता/सुविधाओं की दूरी, परिवारों की सामाजिक आर्थिक स्थिति, महिला और उसके पति का शिक्षा स्तर, महिला की आयु, निवास स्थान जैसे कई कारक हैं, तो एएनसी कवरेज में भौगोलिक स्थिति भी एक महत्वपूर्ण कारक है। इस बारे में कई अध्ययन बताते हैं कि पहाड़ी इलाकों में यह परेशानी बड़ी है। साथ ही आदिवासी बहुल इलाके वाले क्षेत्रों में सेवा की खपत चुनौतीपूर्ण है। गौरतलब है कि एनएफएचएस 4 के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में सात में से एक से अधिक महिलाओं को उनकी पिछली गर्भधारण के लिए एएनसी सेवाएं नहीं मिलीं, क्योंकि उनके पति इसकी अनुमति नहीं देते थे या इसे आवश्यक नहीं मानते थे।
जाहिर है कि इस स्थिति में सुधार के लिए महिलाओं को ही नहीं, परिवार के लोगों को जागरूक होना जरूरी है, क्योंकि तभी वह इसकी जरूरत को समझ पाएंगे।