दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार को इस बात की घोषणा की है कि महिला आरोपी का कौमार्य परीक्षण ( वर्जिनिटी टेस्ट ) कराना असंवैधानिक, लैंगिक भेदभाव और गरिमा के अधिक का उललंघन है। अदालत ने कहा कि ऐसी कानूनी प्रकिर्या नहीं है, कौमार्य परीक्षण का प्रावधान करती है और ऐसा परीक्षण अमानवीय व्यवहार का एक रूप है। यह आदेश न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने सिस्टर सेफी की याचिका पर सुनाया, जिन्होंने 1992 में केरल में एक नन की मौत से संबंधित आपराधिक मामले के सिलसिले में उनका कौमार्य परीक्षण कराये जाने को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की थी। न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि यह घोषित किया जाता है कि हिरासत में ली गई एक महिला, जांच के दायरे में आरोपी, पुलिस या न्यायिक हिरासत में ली गई महिला का कौमार्य परीक्षण असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जिसमें गरिमा का अधिकार भी शामिल है। न्यायाधीश ने कहा कि इसलिए अदालत व्यवस्था देती है कि यह परीक्षण लैंगिक भेधभाव पूर्ण है। यदि महिला को हिरासत में रखते हुए इस तरह का परीक्षण किया जाता है, तो यह महिला अभियुक्त की गरिमा के मानवाधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने जोर देकर कहा कि एक महिला की हिरासत में गरिमा की अवधारणा के तहत पुलिस हिरासत में रहते हुए भी सम्मान के साथ जीने का महिला का अधिकार शामिल है। महिला आरोपी का कौमार्य परीक्षण करना न केवल उसकी शारीरिक पवित्रता, बल्कि उसकी मनोवैज्ञानिक पवित्रता के साथ जांच एजेंसी के हस्तक्षेप के समान है।
बता दें कि सिस्टर अभया हत्याकांड के दो दोषियों में से एक सिस्टर सेफी द्वारा दायर 14 साल पुरानी याचिका पर यह फैसला आया है। गौरतलब है कि सिस्टर सेफी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील रोमी चाको ने तर्क दिया कि 25 नवंबर, 2008 को केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा उनकी सहमति के खिलाफ उन्हें जबरदस्ती कौमार्य परीक्षण से गुजरना पड़ा।
साथ ही सीबीआई के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के मुद्दे पर, उच्च न्यायालय ने कहा कि उस अवधि के दौरान सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश या अन्यथा ऐसे परीक्षणों को असंवैधानिक घोषित करने के लिए मौजूद नहीं थे।
उच्च न्यायालय ने कहा कि मुआवजा देने या सिस्टर सेफी को हिरासत में प्रताड़ित करने के बारे में सवाल का फैसला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा किया जाना है।
न्यायमूर्ति शर्मा ने इस बारे में विस्तार से बताया "एक अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार उसी क्षण निलंबित हो जाता है जब उसे गिरफ्तार किया जाता है क्योंकि यह राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक हो सकता है। हालांकि, गरिमा का अधिकार किसी अभियुक्त, विचाराधीन या दोषी के लिए भी निलंबित या माफ नहीं किया जाता है’’।