साहित्य में संसार होता है। इसी साहित्य की दुनिया में आदिवासी साहित्यकारों ने अपना एक समाज बनाया है। जहां पर वह आदिवासी जीवन के संघर्ष और सरलता पर विमर्श किया जाता है। हिंदी साहित्य के साथ आदिवासी साहित्य और महिला साहित्यकारों ने अपनी पहचान स्थापित की है। भारत में जहां इसे ‘आदिवासी साहित्य’ के ऑस्ट्रेलिया में इसे ‘एबोरिजिनल लिटरेचर’ कहते हैं। भारत में आदिवासी साहित्यकार में महिलाएं अपनी ठोस पहचान को सालों से मजबूत करती आयी हैं। आइए विस्तार से जानते हैं चुनिंदा आदिवासी लेखिकाओं के बारे में, जिन्होंने अपनी लेखनी के जरिए आदिवासी समाज को साहित्य में पहचान दी है।
सुशाली सामद
साहित्य जानकारों के अनुसार शुरुआती आदिवासी हिंदी महिला लेखन में सुशीला सामद का नाम आता है। साल 1935 में सुशीला सामद का ‘प्रलाप’ नामक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ, जहां पर उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए स्त्री की प्रेरणा को व्यक्त किया। ‘प्रलाप’ और ‘सपने का संसार’ सुशाली के दो काव्य संग्रह हैं। दिलचस्प यह है कि सुशीला सामद ने उस दौर में आदिवासी महिलाओं का आईना बनीं, जब किसी भी समाज की महिला को घर से बाहर तक निकलने की आजादी नहीं थी। साल 1925 से लेकर 1930 तक उन्होंने साहित्य-सामाजिक पत्रिका ‘चांदनी’ का भी संपादन और प्रकाशन का जिम्मा उठाया।
एलिसा इक्का
एलिसा इक्का न केवल पहली आदिवासी लेखिका रही हैं, बल्कि वे अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएशन करने वाली झारखंड की पहली आदिवासी महिला भी रही हैं। उन्होंने अध्यापन भी किया है। 50 के दशक में एलिसा ने कई सारी कहानियां लिखी। बाद में कई जगहों पर उनकी रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया गया। ‘दुर्गी के बच्चे’ और ‘एल्मा की कल्पनाएं’ दलित विषय पर लिखी गई उनकी पहली हिंदी कहानी है। ‘सलगी जुगनू’ और ‘अंबा गाछ’ के जरिए आदिवासी समाज में पनपती प्रेम कहानी और ‘कोयल की लाडली सुमरी’ के जरिए उन्होंने आदिवासी महिलाओं के बुरे हालात, समाज के प्रति अपने दृष्टिकोण को अपनी सरल भाषा में कहानियों के जरिए बयान किया। साहित्य की दुनिया में आदिवासी समाज को आईने की तरह दर्शाने में एलिसा एक्का की लेखनी का बड़ा योगदान रहा है।
वंदना टेटे
झारखंड की वंदना टेटे के अंदर गीत और कविताएं लिखने का कौशल कॉलेज के दौरान से रहा। वक्त के साथ उनकी रूचि अभिनय की तरफ बढ़ी। रांची के नाट्य समूह में उन्होंने कई नाटकों में प्रस्तुति दी। दिलचस्प यह रहा है कि अपने अभिनय के जरिए भी उन्होंने आदिवासी समाज से जुड़े गंभीर मुद्दों पर रोशनी डाली। इसके बाद वंदना टेटे ने आदिवासी पत्रिकाओं का संपादन कर आदिवासी समाज के साथ साहित्य को शामिल किया। ‘पुरखा लड़ाके’, ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा’, ‘आदिवासी दर्शन कथाएं’, ‘आदिम राग’, ‘लोकप्रिय आदिवासी’ कविताओं के साथ कई सारी अन्य रचनाओं के लिए उन्हें झारखंड सरकार से सम्मान भी मिला। वंदना टेटे की लेखनी ने आदिवासी समाज में आए बदलाओं की मजबूत कड़ी रही है।
जसिंता केरकेट्टा
जसिंता केरकेट्टा आदिवासी साहित्य के नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। अपने जीवन के संघर्ष के दिनों में जसिंता ने कविताएं लिखनी शुरू की है। ‘ईश्वर और बाजार’, ‘मैं और मेरा ईश्वर’, ‘लोग मरते रहे सिर्फ ईश्वर बचा रहा’ सबसे लोकप्रिय कविताओं में शामिल है। साल 2016 में उनका पहला काव्य संग्रह ‘अंगोर’ हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। दिलचस्प है कि अपनी जन्मभूमि और मातृभाषा इत्यादि को लेकर वे इतनी एक्सप्रेसिव हैं कि वह उसका जिक्र भी अपनी लेखनी में करती हैं। वे झारखंड की पहली आदिवासी कवयित्री हैं, जिनकी कविताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साथ तीन भाषाओं में प्रकाशित किया गया है।
तेमसुला आओ
तेमसुला आओ ने अपनी लेखनी में नागा आदिवासियों के जीवन को दिखाया है। उन्होंने ऐसी कई कहानियां लिखी हुई है, जो कि आदिवासी महिलाओं के जीवन और संघर्ष को दिखाती है। तेमसुआ आओ नागालैंड के आओ ट्राइब से आती है। तेमसुआ आओ को पद्मश्री से भी नवाजा गया है। उनकी लेखनी ने आदिवासियों के जीवन को नई दिशा दी है जिसके कारण उनकी रचनाओं को हिंदी, बांग्ला, आसामी, फ्रेंच और जर्मन में भी ट्रांसलेट किया गया है। उनकी अंग्रेजी कहानी ‘लबरनम फॉर माइ हेड’ को अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया है। इससे पहले उनकी किताब ‘सोंग्स दैट टेल’को साल 1988 में प्रकाशित किया गया था।