पर्यावरण को लेकर कई सारे अभियान शहरों के साथ ग्रामीण इलाकों में होते रहते हैं। अक्सर ऐसा कहा जाता है कि पर्यावरण की असली पहचान गांव में होती है। गांवों में पर्यावरण के स्वरूप को और निखार देते हुए ग्रामीण महिलाएं सतत इसके लिए प्रयास करते हुए आ रही हैं। आइए जानते हैं विस्तार से कि कैसे महिलाएं पर्यावरण की सिपाही बनी हुई हैं।
छत्तीसगढ़ की महिलाएं कर रही हैं पर्यावरण की रक्षा
छत्तीसगढ़ के गौठानों में महिलाएं पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रेरणादायक काम कर रही हैं।गौठानों की फसलों से पर्यावरण की सेवा और सुरक्षा के साथ वे सभी खुद को आर्थिक तौर पर मजबूत भी बना रही हैं। गौठान के महिला समूह के जरिए फल, फूल और सब्जियों को बेचकर साल में 43 लाख के करीब की कमाई कर रही हैं। महिलाएं पौधे और पेड़ भी लगाकर पर्यावरण की अहमियत को भी समझा रही हैं। जाहिर-सी बात है कि इस योजना के जरिए ये महिलाएं महीने में 10 से 50 हजार की कमाई भी कर रही हैं। वाकई छत्तीसगढ़ की महिलाएं कई महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी हैं, जो कि काबिल-ए-तारीफ है।
चीड़ की पत्तियों से ईको फ्रेंडली सामान
उत्तराखड़ के जौनपुर ब्लॉक के टिकरी गांव में राधा रानी स्वयं सहायता समूह की महिलाएं चीड़ की पत्तियों से इको फ्रेंडली राखियां बना रही हैं। उनकी यह राखी बाजार में काफी पसंद भी की जा रही हैं। दिलचस्प है कि महिलाएं जंगलों से पत्ते उठाकर न केवल पर्यावरण की रक्षा कर रही हैं, बल्कि जंगल में पत्तों से फैलने वाले आग के खतरे का जोखिम भी कम कर रही हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत ये महिलाएं चीड़ की पत्तियों से राखी के साथ अन्य सामान बनाने का भी प्रशिक्षण लगातार ले रही हैं। टिकरी गांव की भी महिलाओं ने समूह में जाकर चीड़ की पत्तियों से घरेलू और जरूरी सामान बनाने का प्रशिक्षण लेने के बाद हर दिन अपने घरेलू काम के बाद चार घंटे राखियां बनाने का काम करती हैं। चीड़ की पत्तियों के साथ रेशम के धागे का उपयोग करके वे कई तरह के सामान बना रही हैं। यह पूरी तरह से ईको फ्रेंडली सामान होते हैं,साथ ही इनकी ब्रिकी से कमाई भी काफी अच्छी होती है। चीड़ के पत्तों से बनाए गए सामानों की कीमत 10 रुपए से 200 रुपए तक के बीच की होती है।
इन महिलाओं ने लगाया 50 हजार से अधिक पौधे
उत्तराखंड के चमोली जिले के थिरपाक गांव की लक्ष्मी रावत पर्यावरण को बचाने के लिए लगातार अपने कदम आगे बढ़ा रही हैं। चिपको आंदोलन से लेकर पर्यावरण को हर तरह से सुरक्षित करने का जिम्मा लक्ष्मी रावत ने अपने हाथों में लिया है और उनके साथ गांव की कई महिलाएं भी इसमें शामिल हैं। लक्ष्मी रावत ने स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं के साथ मिलकर उत्तराखंड के 10 जिलों में पौधारोपण का काम करते हुए आ रही हैं। इन महिलाओं ने अभी तक जितने भी पेड़ और पौधे लगाए हैं उनकी गिनती 50 हजार से अधिक है। लक्ष्मी रावत का मानना है कि पहाड़ में रहने वाली महिलाओं के लिए जंगल उनका मायका होता है, जिसकी हमेशा से उन्हें रक्षा करनी चाहिए।
20,400 महिलाओं ने लिया जैविक खेती करने का फैसला
उत्तर प्रदेश के 24 से अधिक जिलों में 20,400 महिलाओं ने जैविक खेती करने का फैसला किया है, जो कि पर्यावरण को व्यापक बनाने का एक सशक्त माध्यम है। बता दें कि महिलाओं ने खेती करने के लिए भारत सरकार कृषि विभाग के नेशनल सेंटर फॉर ऑर्गेनिक फार्मिंग पोर्टल पर पंजीकरण कराया है। इसके साथ ही प्रदेश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए 24 जिलों को इसमें शामिल किया है। महिलाओं के लिए बाजार भी उपलब्ध कराए गए है। वाकई, जैविक खेती से जुड़कर महिलाओं ने सराहनीय प्रयास किया है।
बांस से बने सैनिटरी नैपकिन
राजस्थान में कई सारी महिलाएं बांस से बने सैनिटरी नैपकिन को बनाने के साथ इस्तेमाल भी कर रही हैं, जो कि पर्यावरण की सुरक्षा की तरफ एक बड़ी पहल है। इसके लिए भारती सिंह ने साल 2013 में एक संस्था की शुरुआत की। उन्होंने मेरा पैड बांस चारकोल से सैनिटरी पैड बनाया जाता है और इस पर पूरी तरह से परीक्षण करने के बाद यह पाया गया कि यह सैनिटरी पैड पर्यावरण के लिए काफी अनुकूल है। भारती सिंह ने कोविड के दौरान कई महिलाओं को अपने इस काम से जोड़ और पैड की सिलाई का काम दिया। उनके साथ 225 महिलाएं काम कर रही हैं। यहां पर महिलाएं एक दिन में 130 के करीब पैड बना देती हैं। ये महिलाएं हर दिन 500 से 1200 रुपए के बीच की कमाई करती हैं।
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