उन्होंने बचपन से ही परिवार में लोगों के लिए कुछ करने वाले माहौल को देखा। ऐसे में जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयीं, उनका ध्यान दुनिया के ऐशो-आराम, लग्जरी से हटती गयी। उन्हें किसी जरूरतमंद के लिए कुछ करने में वहीं आनंद मिला करता, जो सुख किसी को शॉपिंग मॉल में जाकर कपड़े खरीदने में मिलता है। ऐसे में, वह जब भी अपने गांव के आस-पास की महिलाएं, जो मजदूरों का काम करती हैं या फिर किसी के घर खाना बनाने या फिर किसी के घर में काम करने जाने वाली औरतों के बच्चे, जैसे-तैसे बस धूप में खेलते रहते थे। उन्हें लगा कि अगर इन बच्चों को दिशा नहीं दी जाएगी, तो इनका भविष्य नहीं बन पायेगा और इसी सोच के साथ उन्होंने एक विद्यालय शुरू करने का निर्णय लिया, जिसमें उन बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठायी, जो बच्चे किसी स्कूल में पैसे देने में असमर्थ हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं झारखंड के लोहरदगा के सेन्हा के भड़गांव बेड़ाटोली में ग्रामीण इलाके में ‘आदिवासी विद्यापीठ’ की शुरुआत करने वालीं राधा तिर्की की, जिनके जेहन में हमेशा यही बात होती है कि वह जरूरतमंद बच्चों के लिए कुछ करें। आइए, शिक्षा पर सबका हक है वाली बात पर अटूट विश्वास करने राधा और उनके कार्यों के बारे में विस्तार से जानें।
एक कमरे से की थी शुरुआत
राधा तिर्की बताती हैं कि उन्होंने अधिक पढ़ाई नहीं की है। मेट्रिक तक की पढ़ाई की है, लेकिन वह यह भी मानती हैं कि उनके गांव के बच्चों को वह पूरी शिक्षा दिला कर रहेंगी। वह कहती हैं “ बचपन से ही मेरे परिवार के लोगों ने दूसरे जरूरतमंद लोगों के लिए काम करते रहने की ठानी, उन्हें देख कर ही मेरे दिमाग में यह सब आया कि मुझे बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए। ये बच्चे, ऐसे ही इधर-उधर घुमते रहते थे। इनकी मां को भी पता नहीं होता था कि बच्चे कहां गए। वर्ष 2014 में, मैंने एक कमरे से ही की और ‘आदिवासी विद्यापीठ’ नाम रखा। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे लोगों को हमारे बारे में पता चला, उन्होंने अपने बच्चों का दाखिला कराया, क्योंकि हम उनसे कोई फीस नहीं लेते हैं। नि : शुल्क होती है यहां की पढ़ाई।
और कारवां 400 तक पहुंचा
राधा बताती हैं कि हमने एक छोटी सी शुरुआती की थी, लेकिन धीरे-धीरे लोगों का विश्वास बढ़ा, जो अपने बच्चे को कुछ बनाने का सपना देखते हैं, उन्होंने अपने बच्चों को दाखिला दिलाना शुरू किया और यह कारवां 400 तक पहुंचा। हालांकि कोविड के कारण कई बच्चे लौट कर नहीं आये। तो फिलहाल संख्या 250 की रह गयी है। हमारे यहां जो भी टीचर पढ़ाने आते हैं, वे भी नि : शुल्क इन बच्चों को शिक्षा देते हैं। आदिवासी विद्यापीठ में अब 14 कमरे हो गए हैं।
लोगों से मिलती है खूब मदद
राधा तिर्की बताती हैं कि हमने जो शुरुआत की शिक्षा को लेकर, हमें शुरू में लगा था कि लोगों का सहयोग नहीं मिलेगा, लेकिन इसके उलट काफी मदद मिलती है। हमने हॉस्टल भी शुरू किया है और कई बच्चों के अभिभावक खाना बनाने में मदद करते हैं, तो कोई जंगल से जाकर लकड़ियां ले आता है, कोई चावल, तो कोई आटा देकर मदद कर देता है, यही वजह है कि आज कई बच्चे यहां अच्छी तरह से पढ़ाई कर पा रहे हैं।
अन्य गतिविधियां
राधा का मानना है कि वह बच्चों का संपूर्ण व्यक्तित्व निखारना चाहती हैं। इसलिए स्कूल में सिर्फ किताबी पढ़ाई नहीं होती है, वहां सांस्कृतिक गतिविधियां भी होती हैं। वह कहती हैं कि बच्चों को हमलोग मिल कर, आदिवासी संस्कृति का सम्मान करना भी सिखाते हैं, उसके इतिहास के बारे में, लोगों के बारे में, ताकि बड़े होकर वह अपने समाज से प्यार करें और आदिवसीयों के समर्पण को समझें। इसलिए भाषा के रूप में कुड़ुक भाषा की मुख्य रूप से पढ़ाई करवाई जाती है। फिलहाल अभी नर्सरी से लेकर आठवीं तक की पढ़ाई हो रही है यहां।
और फिर मिलती है तसल्ली
राधा बताती हैं कि वह भविष्य में इन बच्चों के लिए यही चाहती हैं कि कोई मजदूर का बच्चा मजदूर न बने, काम करने वाली के बच्चे को भी शिक्षा का हक है। हाल ही में उन्हें सबसे अधिक तसल्ली मिली, जब एक लड़की ने मैट्रिक के बाद, इंटरमीडिएट में नाम लिखवाने के लिए काफी संघर्ष किया। तब हमने और कई लोगों ने उसके लिए कोशिश की और फिर उसका दाखिला एक अच्छे स्कूल में हो गया, ऐसा कुछ होता है, तो मुझे दिल से खुशी मिलती है, मैं चाहती हूं कि भविष्य में ये सभी बच्चे आत्म-निर्भर बनें और अपने माता-पिता को कभी न भूलें, मेरा मानना है कि इनमें से कोई जब कुछ बन जाएगा, तो वापस आकर, और बच्चों की मदद करेगा और इस तरह हमारे इलाके से शिक्षा की रौशनी फैलती रहेगी, क्योंकि हमारे नहीं रहने पर भी शिक्षा की मशाल जलनी बंद नहीं होनी चाहिए।
महिलाओं से जुड़ीं कुप्रथाओं को भी रोकने का प्रयास
राधा तिर्की इस नेक काम के अलावा, अपने इलाके की महिलाओं के लिए और भी सार्थक पहल करने की कोशिश कर रही हैं। वह महिलाओं से जुड़े अंधविश्वास के खिलाफ भी कई जागरूकता अभियान, कार्यक्रम, लोगों की शिक्षित करना, नाटकों के माध्यम से लोगों तक जानकारी पहुंचाने की कोशिश करती रहती हैं। डायन कहकर महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ और ऐसे कई अंधविश्वास के खिलाफ इनकी मुहिम जारी है।
वाकई, राधा तिर्की जैसी महिलाएं मिसाल हैं, उन सभी बच्चों के लिए, जो आर्थिक रूप से असमर्थ होने के कारण और स्कूलों की महंगी फीस होने के कारण शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, फिर वह अन्य बच्चों के साथ कदमताल नहीं कर पाते हैं, उन बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की यह मुहिम वाकई, जितनी भी तारीफ की जाये, वह कम होगी। ऐसी महिलाओं को लगातार प्रोत्साहित किया ही जाना चाहिए।