‘जब एक महिला को अपने बच्चों को पढ़ाते, उनकी शादी और नौकरी के काबिल बनाते देखती हूं, तो मुझे लगता है कि शायद कुछ तो अच्छा किया है ‘ : रेशमा दत्ता
ग्रामीण इलाके में पली-बढ़ी एक आर्टिस्ट, जो जापान से पढ़ाई करती हैं और फिर एक दिन जिंदगी में एक ऐसा जिंदगी में बड़ा मोड़ आने वाला लम्हा हो जाता है और वह निर्णय लेती हैं कि वह अपने गांव में रह कर उन महिलाओं के लिए कुछ करेंगी, जिनके पास आय के कोई साधन नहीं है। एकबारगी आपको यह संदर्भ सुन कर कोई फिल्मी कहानी याद आई होगी। मुमकिन है कि आपको शाह रुख की फिल्म ‘स्वदेस’ का किरदार मोहन भागर्व याद आ जाए , क्योंकि संदर्भ ही कुछ ऐसा है। लेकिन यह कहानी बिल्कुल फिल्मी नहीं है, बल्कि सौ प्रतिशत सही है। आर्टिस्ट रेशमा दत्ता, झारखंड के बुंडू इलाके से ताल्लुक रखने वालीं एक ऐसी महिला हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी में प्राथमिकता कुछ और रखी। उन्होंने जो कुछ भी सीखा, उसे दूसरों की भलाई करने के लिए इस्तेमाल करने का निर्णय लिया। वह सिंगल वुमन हैं और उनकी जिंदगी में शादी से बढ़ कर भी और जिम्मेदारियां हैं, इसके बावजूद उनका एक ऐसा परिवार है, जिसकी जिम्मेदारियां वह खुद उठाती हैं, जी और उनके परिवार में शामिल हैं, बुंडू जैसे पिछड़े इलाके की कई ऐसी महिलाएं, जिनके पास कमाने का माध्यम नहीं था, उनके लिए रेशमा ने उन्हें आत्म-निर्भर बनाने के लिए आधार नामक संस्था की शुरुआत की, जहां महिलाएं टेराकोटा, सेरामिक, म्यूकल आर्ट का काम करती हैं। यह कितना खूबसूरत संयोग है कि आज दुर्गा पूजा का दूसरा दिन है और पूरे भारत में मां की रूप ब्रह्मचारिणी की पूजा हो रही है, जो प्योरिटी यानी पवित्रता की प्रतीक हैं और जो दूसरों को देने में यकीन करती हैं, जिन्हें किसी मोह माया से मतलब नहीं है और आज के दिन हम ऐसी ही एक शख्सियत की बात कर रहे हैं, जिनके जीने का भी ऐसा ही नजरिया है। तो आइए इनके बारे में विस्तार से जानें।
झारखंड राज्य के रांची शहर से आप सभी वाकिफ होंगे, जी वहीं शहर, जो धोनी का शहर कहलाता है। वहीं से लगभग 42 से 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बुंडू, जो कभी माओवादी ग्रसित इलाका माना जाता था। लेकिन वहीं, एक महिला रेशमा दत्ता ने अपनी सोच और इरादों से कुछ नहीं करने वाली महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा होना और अपने बच्चों को काबिल बनाना सीखा दिया। जी हां, रेशमा की कहानी काफी प्रेरणादायक है, जो खुद एक जमींदार परिवार से संबंध रखती हैं, लेकिन उनका दिल भौतिक सुविधाओं में नहीं, बल्कि अपना कला का इस्तेमाल कुछ नेक काम करने में लगता है। पूरी कहानी, उनकी ही जुबानी।
आधार की ऐसे हुई शुरुआत
रेशमा दत्ता बताती हैं कि उन्होंने आधार नामक संस्था की नींव कुछ इस तरह से रखी थी कि वहां बुंडू में लोगों के लिए कुछ रोजगार के माध्यम बने। वह बताती हैं कि मैंने आधार शुरू किया था वर्ष 2001 में। वर्ष 2001 मैंने अपना काम दो लोगों के साथ शुरू किया था। दरअसल, आधार में उन महिलाओं को काम करने का मौका मिलता है, जो टेराकोटा, सेरामिक और ऐसे ही मिट्टी के बर्तन और सामान बना कर, पूरे भारत में सेल करती हैं। रेशमा बताती हैं कि मैंने शांति निकेतन से फाइन आर्ट्स ( कला) की पढ़ाई की है और मेरे ये जो दो दोस्त हैं, जिनके साथ मैंने यह काम शुरू किया था। यह मेरे कॉलेज में जूनियर थे और पॉटर थे। मैंने उनसे कहा कि मुझे कुछ शुरू करना है, तो उन्होंने मेरा साथ दिया।
और मेरे लिए वहां से जीने का नजरिया बदला
रेशमा बताती हैं कि मैंने जापान से फाइन आर्ट्स का कोर्स किया इसके बाद, जब 1999 में मैं वापस जा रही थी, तो मेरी मां ने कहा कि एक बार श्री श्री रवि शंकर से मिल कर जाओ। वहां जब मैं पहुंची तो अचानक ऐसा हुआ कि मेरे पैर में चोट आ गयी और मुझे तीन से छह महीने वहां रहना पड़ा । मेरा जापान जाना चेंजिंग हुआ, वहां मैंने जो कुछ भी देखा, मुझे लगा कि मुझे अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहिए, मैंने वापस जाने के बारे में इरादा बदल दिया और घर वापस आयी। हमलोग जमींदार परिवार से हैं, तो मेरे पापा के पास काफी खाली जमीन थी। उनकी फैक्ट्री भी बंद हो गई थी, तो हमलोगों ने उस खंडर को ही फैक्ट्री बना दिया और तय किया कि पॉटरी बनाने का काम शुरू करते हैं। उस वक्त हम, बाप्पा और बहादुर तीनों लोग ही सारा काम करते थे। फिर हम दिल्ली हार्ट में गए थे, वहां पर काफी अच्छा सेल हुआ, तो हमलोग को काफी सपोर्ट मिला। इसके बाद, गांव में हमारे पास कई लड़कियां आने लगीं, महिलाएं आने लगी कि कुछ काम दीजिए दीदी, हमने उन्हें भी इसमें शामिल किया। धीरे-धीरे हमलोग का महिलाओं का ग्रुप बना, फिर एक बड़ी जगह से म्यूरलआर्ट का आर्डर मिला। वहां हमारा काम वहां कॉपरेटिव सेक्रेटरी राजबाला ने देखा और उन्होंने हमारा कॉपरेटिव बनवाया। तो 2006 से हमने पूरी तरह से काम शुरू किया।
महिलाओं के पास करने को कुछ नहीं था
रेशमा बताती हैं कि उनके गांव की महिलाओं के पास करने को कुछ नहीं था। कुछ के पति गायब हो जाते थे, तो कुछ भाग जाते थे तो किसी का देहांत हो जाता था। उस वक़्त माओवादी प्रभावित इलाका भी था। तो महिलाएं कहती थीं कि बच्चों को पालना है, तो हमने ऐसी महिलाओं को ट्रेनिंग देना शुरू किया और धीरे-धीरे उनके लिए इसे रोजगार के माध्यम बना दिया। वह आगे बताती हैं कि मेरे परिवार का काफी साथ मिला था। महिलाएं अब वहां सिर्फ खेतीबाड़ी नहीं, बल्कि कलात्मक काम करने लगी थीं और उनका आय का भी स्रोत बनने लगा था। रेशमा यह भी बताती हैं कि उन्हें कभी भी किसी गिरोह ने रोकने की कोशिश नहीं की थी, क्योंकि सबको पता था कि हम गांव की भलाई के लिए ही कुछ कर रहे हैं। सबका सहयोग ही मिला।
उन्हें देख कर लगता है, चलो कुछ तो किया
रेशमा कहती हैं कि वह भले ही जमींदार परिवार से हैं, लेकिन बचपन में गांव में स्कूल न होने की वजह से पहले नानी के घर जाकर पढ़ाई की, फिर हॉस्टल चली गई थीं और उनके परिवार में चारु मजूमदार जैसे अलग सोच रखने वाले लोग भी थे, इसलिए उनका दिल कभी भौतिक चीजों में नहीं लगा। परिवार से हमेशा ही सपोर्ट मिला, रेशमा को पढ़ाई से अधिक ऐसी ही गतिविधियों में मन लगता था। उनकी बहन इंजीनियर हैं, लेकिन उनका रुझान हमेशा से कला की तरफ ही रहा। वह बताती हैं कि शुरुआती दौर में एक महिला थीं, वह कुछ नहीं कर पाती थी, उसके पति का देहांत हो गया था, लेकिन उसके तीन बच्चों को उसने न सिर्फ पढ़ाया, घर लिया, शादी की, बच्चे को इंजीनियर बना दिया। एक छोटी लड़की और थी, वह शुरू में सहमी-सी रहती थी, आज ये आलम है कि पूरे भारत में सेल करने जाती है, फैक्ट्री का कार्यभार संभालती है। रेशमा कहती हैं कि ऐसी कहानियां देखती हूं तो लगता है कि कुछ किया चलो जिंदगी में।
मुस्लिम लड़कियां हैं काफी सक्रिय
रेशमा बताती हैं कि उनका आधार धर्म निरपेक्ष हैं, वहां मुस्लिम लड़कियां और महिलाएं काफी हैं, जो कि पूजा पाठ में और सारे पर्व में हिस्सा लेती हैं। विश्वकर्मा पूजा के दिन हिन्दू लड़कियां पूजा करती हैं, तो वह खाना बनाती हैं, ऐसे में मुझे खुशी होती है कि आधार एकता की सोच को भी बढ़ावा दे रहा है। रेशमा बताती हैं कि शुरू में मुस्लिम लड़कियों को काम करने से उनके परिवार वाले मना करते थे, लेकिन जब अखबार में उनकी खबरें आने लगीं तो उन्हें भी लगा कि कुछ काम कर रही हैं।
निवेश पर है यकीन
रेशमा ने एक दिलचस्प बात यह बताई कि हमलोग जब भी ज्यादा पैसा आता है, उसको किसी अकाउंट में नहीं रखते हैं,बल्कि निवेश करते हैं, अभी कोविड के बाद, लोगों ने डेकोरेटिव आयटम्स खरीदने बंद कर दिए थे, उस वक्त कुल्लड़ की मशीन लगाई है और इससे अच्छी कमाई हो रही है। अब काफी ऑर्डर भी मिलने लगे हैं।
वाकई, ऐसी मिसाल से भरी कहानियां दर्शाती हैं कि जीवन का मतलब सिर्फ अपने लिए सोचना नहीं है, भौतिक सुख का भोग करना ही नहीं है, बल्कि समाज की बेहतरी और खासतौर से महिलाओं के लिए कुछ करना भी है। रेशमा की इस सोच को वाकई सलाम है।