'जब 82 वर्ष की महिला ने कहा आज तक अपना नाम सिर्फ सुना था, अब लिख कर महसूस कर पा रही हूं, इतना कर पायी, वही मेरी उपलब्धि है' : हर्षिका सिंह
फर्ज कीजिए, एक गांव है जहां महिलाएं सिर्फ घर का काम करना जानती हैं, अपना नाम लिखना भी नहीं जानती हैं और फिर एक समय ऐसा आता है, जब 80 साल की महिलाएं भी न सिर्फ अपना नाम लिख लेती हैं, बल्कि बैंक में होने वाली धोखाधड़ी से भी खुद को बचा लेती हैं। कहने को तो हम यहां दो पंक्तियों में अपनी बात खत्म रख दे रहे हैं, लेकिन किसी बेहद पिछड़े इलाके में, जहां पहाड़ों और नदियों के पास लोग घरों में रहते हैं, उन्हें इस काबिल भी बनाना एक आसान लक्ष्य नहीं रहा होगा। लेकिन अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझते हुए एक काबिल जिला कलेक्टर वहां आती हैं और फिर यह मिशन तय करती हैं कि उस इलाके में किसी भी तरह का फ्रॉड नहीं होने देंगी और महिलाओं को साक्षर करेंगी, फिर चाहे इसके लिए उन्हें जो भी मेहनत करनी पड़े और मशक्क्त करनी पड़े। ऐसे ही मजबूत इरादों के साथ मध्य प्रदेश के तिकमगढ़ और मंडला इलाके में हर्षिका सिंह आयीं, जो एक आईएस ऑफिसर हैं और डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर हैं और उन्होंने एक मुहिम छेड़ कर अपने इलाके को फंक्शनल साक्षरता की बात करें, तो 100 प्रतिशत साक्षरता ले आयीं। यह सफर उनके लिए आसान नहीं रहा। खासतौर से पिछड़ी ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को प्रोत्साहित किया। तो आइए जानें, आखिर उन्होंने इस पूरे सफर में क्या चुनौतियां महसूस की।
हर्षिका सिंह झारखंड के रांची से संबंध रखती हैं, उनकी परवरिश वहीं से हुई है। हर्षिका ने विश्व के सबसे बड़े संस्थान लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई की है और हर्षिका हमेशा से इन बातों को लेकर स्पष्ट रही हैं कि वह खुद को भाग्यशाली मानती हैं कि उन्हें अच्छा परिवार मिला, जहां उन्हें कभी पढ़ाई में या किसी भी तरह की परेशानी नहीं हुई, बल्कि भाई से अधिक उन्हें प्यार और प्रोत्साहन मिला, कभी किसी तरह का भेदभाव नहीं रहा। ऐसे में वह बचपन से ही इन बातों को लेकर स्पष्ट रहीं कि जब उन्हें मौका मिला है, तो जब वह सक्षम होंगी, तो वह अन्य महिलाओं को भी इसके लिए प्रेरित करेंगी। ऐसे में 2012 में जब उन्होंने अपना पद ग्रहण किया तो सिर्फ इसे सरकारी काम की तरह नहीं देखा और उनकी जब छत्तीसगढ़ के बेहद पिछले इलाके तिकमगढ़ में पोस्टिंग हुई, जहां पितृसत्ता शासन रहा। वहां पर उन्होंने महिलाओं को साक्षर बनाने का निर्णय लिया। हर्षिका मानती हैं कि आप जब एक सरकारी नौकरी में होते हैं, तो यह सच बात है कि आपके पास काफी अधिक काम होता है, लेकिन इन सबके बीच अगर एक सामाजिक जिम्मेदारी को समझते हुए आप थोड़ा सा भी कदम उठा लेते हैं और इससे एक प्रतिशत भी किसी का भला होता है, तो वह करना चाहिए,फिर चाहे इसके लिए आपको अपनी भौतिक खुशियों में थोड़ी कमी ही क्यों न करनी पड़े। हर्षिका कहती हैं कि जब एक 80 साल की महिला कहती हैं कि वह इतने सालों तक, बचपन से अपना नाम सिर्फ सुनती आ रही थीं, लेकिन अब लिख सकती हैं और महसूस कर सकती हैं, यह उनकी सफलता है और उन्हें ऐसी महिलाओं से प्रेरणा मिलती है।
औरतें सिर्फ बेटे के लिए बच्चे पैदा करती जा रही थीं
हर्षिका बताती हैं कि उनकी पोस्टिंग जब मध्य प्रदेश एक तिकमगढ़ में हुई, उस वक्त उन्होंने देखा कि वहां के घरों में पुरुषों का ही शासन चलता है और औरतें घूंघट में रह रही हैं, उन्हें बाहर निकल कर, खुल कर बातचीत करने की पूरी आजादी नहीं थी। एक महिला, कई बच्चों को सिर्फ बेटे की आस में जन्म दिए जा रही हैं, अपनी सेहत के बारे में बिना सोचे। ऐसे में आबादी भी बढ़ रही है और साक्षरता का नाम दूर-दूर तक नहीं था। हर्षिका ने तय किया कि वह यहां की महिलाओं को साक्षरता को लेकर जागरूक करेंगी। इसी क्रम में उन्होंने मॉडल बनाना जब शुरू किया तो पाया कि वहां पर कुछ महिलाएं हैं, जो पंचायत में हिस्सा लेती हैं और हर्षिका की बातों को समझ पा रही थीं। हर्षिका कहती हैं कि हमने महिला ज्ञानालय का कॉन्सेप्ट वहां शुरू किया, जहां महिलाओं के लिए काम के बाद, शाम में पढ़ने का माहौल बनाया। इसके बाद आंगनबाड़ी की महिलाओं से भी जाकर बातचीत की, पंचायत में महिलाओं से मदद ली और फिर जाकर यहां की महिलाओं को कम से कम इतना साक्षर बनाने की कोशिश की कि वह अपना नाम लिख पाएं और नियमित जीवनशैली से जुड़ी जरूरतों को पूरा कर पाएं। हर्षिका कहती हैं कि हमारे लिए इन इलाकों में सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि हम जो यह सब कर रहे थे, वह पहले पुरुष करने देना नहीं चाहते थे, वह अड़चने डालते थे, लेकिन मैंने उन्हें स्पष्ट कर दिया था कि आपके जिले को एक महिला अधिकारी चला रही है और वहां की महिलाएं अनपढ़ रहें, यह मैं होने नहीं दूंगी। वक्त तो लगा, साथ ही महिलाओं को इसलिए भी मनाना थोड़ा कठिन हो रहा था, क्योंकि हम इसके तहत कोई सरकारी स्कीम या लाभ की बात नहीं कर रहे थे, न ही कोई आर्थिक रूप से मदद कर रहे थे, ऐसे में उन्होंने मनाना कि उनके बाकी चीजों के लिए पढ़ना क्यों जरूरी है, शुरुआत में कई कठिनाइयां आयीं, लेकिन हम वहां की पंचायत की महिलाओं को छोटी-छोटी चीजों से अहम दर्शाने की कोशिश करते थे, जैसे 15 अगस्त जैसे अवसर पर उनके बीच से ही मुख्य अतिथि चुनते थे, ताकि उनको लोगों के बीच आत्म-विश्वास और सामजिक लोकप्रियता का एहसास होता रहे। साथ ही काफी लोगों का साथ मिलता गया और हमने महिला ज्ञानालय को सफल बनाया।
और फिर शुरू हुआ मंडला का सफर
हर्षिका बताती हैं कि तिकमगढ़ के बाद, उनकी अगली पोस्टिंग मध्य प्रदेश के ही इलाके मंडला में, जो कि आदिवासी समुदाय का इलाका है। वह कहती हैं, यहां पोस्टिंग के बाद मैंने गौर किया कि लगातार मेरे पास बैंक फ्रॉड के मामले आ रहे थे। खासतौर से महिलाओं के। उनके पैसे बैंक से कौन निकाल ले रहा है। उन्हें पता नहीं चल रहा था। तब मैंने इस पर गंभीरता से सोचना शुरू किया, तो पता चला कि वहां की महिलाओं को नोट गिनने या बैंक का खाता खोलना या बैंक से जुड़े कोई भी काम तो आते ही नहीं हैं। वे छोटी-छोटी बातें, जो नियमित जीवनशैली में आती हैं, उससे भी वाकिफ नहीं हैं। तो यहां भी हमने 90 ज्ञानालय की शुरुआत की, यहां एक बड़ी बात यह थी कि आदिवासी समुदाय खुली विचारधारा पर काम करता है और उनके जो लीडर्स होते हैं, उनकी बातों को सुनते हैं, ऐसे में हमने उनके लीडर्स को भी वक्त की जरूरत को समझाते हुए अपनी मुहिम के बारे में बताया। उन्होंने काफी सहयोग किया। फिर हमने लोक भाषाओं के माध्यम से, नुक्क्ड़ नाटक और ऐसी कई गतिविधियों के माध्यम से महिलाओं को इसमें शामिल होने के लिए जागरूक किया। फंक्शनल लिट्रेसी का मॉडल शुरू किया। हमने 7000 के लगभग में महिला वॉलेंटियर को शामिल किया। हमने महिलाओं को प्रेरित किया कि हिंदी में अपना नाम लिख सकें, गिनती कर सके, कम से कम इतना भर समझ लें कि अपनी जिंदगी का काम कर सके, इसके बाद हमने फिनांशियल लिट्रेसी का कांसेप्ट शुरू किया। फिर तीसरे स्तर पर हमने कंप्यूटर लिट्रेसी को शामिल किया।
निरक्षरता से आजादी कैम्पेन को मिली दिशा
हर्षिका कहती हैं कि मंडला में हमने जो कैम्पेन शुरू किया और उसमें जो प्रगति दिखी, हमने तय किया कि हम टोटल अडल्ट लिट्रेसी कैम्पेन करेंगे। ऐसे में जो वहां डेढ़ लाख लोग थे, 2020 में 15 अगस्त में हमें निरक्षरता से आजादी नामक कैम्पेन दिया। इसके बाद हमने एक और कार्यक्रम लांच किया, जिसमें पूर्ण रूप से वयस्क साक्षरता फंक्शनल लिट्रेसी को ध्यान में रखते हुए, सोशल वोलेंटियर को मोबलाइज किया।
वह आगे कहती हैं कि यह कोई सरकारी योजना नहीं थी, बल्कि सेल्फ ड्रिवेन चीज थी, इसमें दो जरूरत थी कि दो वर्ग के लोगों को शामिल किया जाए। माध्यमिक और उच्च क्लास के बच्चों के बीच यह बात रखी कि आपके घर परिवार में जो मां हैं या कोई महिला सदस्य हैं, जैसे उम्रदराज की भी महिलाएं, जो अपना नाम भी नहीं लिख सकती हैं, उनको पढ़ने के लिए प्रेरित किया। यहां हमारे साथ लगभग 25000 से भी अधिक वॉलेंटियर साथ आये। इसके अलावा, 615 जन चेतना क्लासेज शुरू किया, जहां पर देर शाम के क्लासेज शुरू किये, जिसमें सोशल वॉलेंटियर अडल्ट लिट्रेसी के क्लासेज चलाते थे। इसमें जो एक और बात थी कि हमने एक योजना शुरू किया, जिसमें आम लोगों से अपील किया कि वह जो कुछ भी दे सकते हैं, दें, जैसे चॉक, वर्णमाला की किताबें, कॉपियां। हमें सबका सपोर्ट मिला। यहां एक बड़ी चुनौती यह थी कि यहां का भौगोलिक ढांचा बहुत कठिन है। कहीं पहाड़ के ऊपर चार घर है, कहीं नदी के ऊपर चार घर है। जंगल के बीच दो घर है, तो हम लोग लगातार सर्वे करवा रहे थे कि कहां-कहां पर लोग है, जो अपना नाम नहीं लिख पाते हैं, हमने फिर मैपिंग करते थे, मॉनिटर करते थे, बैंक से आंकड़े लेते थे कि क्या किसी ब्रांच में कोई आदमी आ रहे हैं, जो अपना नाम भी नहीं लिखा पा रहा है और फिर लगातार हमने उन्हें जोड़ने की कोशिश की और इसके बाद बेहद तसल्ली मिलती है कि पूरे अभियान के बाद, जब हमने सर्वे करवाया तो, उसमें हमने पाया कि वहां फंक्शनल साक्षरता की बात करें, तो यह 97. 08 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच चुका है, बाकी जो प्रतिशत शेष रहे, वे वैसे लोग हैं, जो पलायन कर जाते हैं या फिर घर के वैसे लोग, जो बिसर से उठ पाने में भी असमर्थ हैं। आज की तारीख की बात करूं तो बैंक फ्रॉड कम होने लगे हैं। लोग अपना नाम लिख पा रही हैं, बैंक के सारे काम कर पा रही हैं। ऐसे में हाल ही में हमारे इस इलाके में निरक्षरता से आजादी अभियान में सफलता मिली है और यहां की बुजुर्ग महिलाओं को भी जब अब लिखते-पढ़ते देखती हूं तो बेहद तसल्ली मिलती है। सबसे अच्छी बात यह रही कि इन सभी महिलाओं ने अपने ही बीच की महिलाओं से पढ़ना शुरू किया।
हर्षिका कहती हैं वह मेरे लिए सबसे खास दिन था, जब एक 82 वर्ष की महिला ने कहा कि बचपन से नाम सिर्फ सुनती आ रही थी, अब महसूस कर पा रही हूं। हर्षिका कहती हैं यह मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी और भविष्य में उनकी जहां भी पोस्टिंग होगी, वह अपनी तरफ से शिक्षा के क्षेत्र में लोगों को जागरूक बनाने का काम करती रहेंगी, क्योंकि एक नौकरी के साथ-साथ सरकारी मुलाजिम और जिम्मेदारियों को संभालते हुए भी जरूरी है कि आप एक अच्छे इंसान बनें और अपनी शिक्षा का जो भी इस्तेमाल करें, कर देना चाहिए।
वाकई, हर्षिका जैसी लड़कियां, इस बात की मिसाल हैं कि कम संसाधन में भी सिर्फ शिकायती होने की बजाय, अगर कोई कुछ करना चाहती हैं, तो वह कर ही जाती हैं और सामाजिक सुधार में अपना योगदान देती ही हैं, सारे ऐशो-आराम के बीच क्योंकि किसी का मिशन, एक अच्छा इंसान बनना और किसी के काम आना भी होता है।