रानी लक्ष्मीबाई एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जो आंदोलन किया, वह देश के लिए उनका समर्पण था। उन्हें झांसी की रानी के नाम से किया जाता रहा है। उनका जन्म 19 नवंबर, 1828 में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, लेकिन प्यार से लोग उन्हें मनु भी बुलाया करते थे। उनकी मां का नाम भागीरथी और पिता का नाम मोरोपंत था। खास बात यह थी कि उनकी माता भागीरथीबाई एक बुद्धिमान। लेकिन उनका देहांत बहुत जल्दी हो गया। ऐसे में घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में जाने लगे। वहां सभी इन्हें छबीली कह कर भी बुलाते थे। रानी लक्ष्मीबाई ने बचपन में ही शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा ली। कम उम्र में उनका विवाह झांसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ, और वे झांसी की रानी बनीं। लेकिन उन्होंने खुद को एक रानी बन कर नहीं, बल्कि योद्धा बनाने का निर्णय लिया। सन 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन चार माह में ही उनका देहांत हुआ, इसके बाद यह दर्द गंगाधर झेल नहीं पाए, वह इसके बाद बीमार रहने लगे। और उनकी मृत्यु हो गयी। गौरतलब है कि राजा गंगाधर राव की मृत्यु कम उम्र में हो गई थी। उसके बाद, झांसी का पूरा दारोमदार रानी लक्ष्मीबाई ने ही संभाला। इसके बाद, उन्होंने बालक दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र बनाया।
रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष
रानी लक्ष्मीबाई ने 27 फरवरी को लॉर्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद को अस्वीकृत मान लिया और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा करने लगे, तब रानी ने यह स्पष्ट कर दिया कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी और फिर 7 मार्च 1854 में झांसी पर अधिकार हुआ, लेकिन झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दिया और यही से एक नया संग्राम शुरू हुआ। अंग्रेजों के राज्य में लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजा महाराजा अंसतुष्ट थे। सभी में एक अलग ही तरह का विद्रोह था। ऐसे में उन्हें कई लोगों का साथ मिला, उन्हें बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, बहादुर शाह, तात्या टोपे और कई राजाओं ने उनका साथ दिया।
रानी लक्ष्मीबाई हमेशा रहीं निडर योद्धा
रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों को अपने गढ़ से भगाने के लिए वह सबकुछ किया, जो उन्हें करना चाहिए था। उन्होंने ग्वालियर राज्य में एक सेना का प्रशिक्षण शुरू किया। उनकी सक्रिय भागीदारी और रणनीतिक कौशल ने सभी को प्रेरित किया। झांसी के लोग भी पूरी तरह से उनके सहयोग में आगे आये। फिर वह भयावह दिन आया, जब ब्रिटिश सैनिकों ने जून 1858 की चिलचिलाती गर्मी की सुबह में ग्वालियर पर हमला किया। झांसी की रानी ने उनसे निडर होकर सामना किया। उनके बारे में अंग्रेजों ने भी माना था कि वह किसी भी तरह के हमलों से डरी नहीं थीं और उन्होंने सबका सामना किया था। बता दें कि अंतिम लड़ाई जून, 1858 में लड़ी गयी। घोड़े पर सवार रानी लक्ष्मीबाई को न जाने कितनी गोलियां लगीं, लेकिन वह मरते दम तक लड़ती रहीं। लेकिन अंतत : लड़ते-लड़ते एक वीरांगना के रूप में वह शहीद हुईं, उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, उन्हें सूखी घास के ढेर पर रखा गया और उसका अंतिम संस्कार किया गया, उन्हें दुश्मन और उनकी गुलामी की बेड़ियों से अछूता रखा गया।
रानी लक्ष्मीबाई की उपलब्धियां
रानी लक्ष्मीबाई ने हमेशा ही अपने देश के लिए सबकुछ कुर्बानी दी, उन्होंने झांसी की कमान संभालते ही कई बार विरोध झेला और कई बार युद्ध जैसे हालात सामने आते रहे, लेकिन अंतिम वक्त तक वह अडिग रही, लेकिन उन्होंने खुद को अंग्रेजों को नहीं सौंपा। रानी ने अपने राज्य में सेना को तैयार किया और उन्हें मजबूत करने के लिए वह जो भी कदम उठा सकती थीं, उन्होंने उठाया और फिर उन्होंने महिलाओं को भी सेना में भर्ती करने का निर्णय लिया। एक महत्वपूर्ण घटना यह भी रही कि सितंबर 1857 में रानी के राज्य झांसी पर पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजाओं ने आक्रमण किया था, जिसे रानी ने पूर्ण रूप से हरा दिया था। बता दें कि अंग्रेज कैप्टन ह्यु रोज ने रानी लक्ष्मीबाई के बारे में कहा था कि 1857 के विद्रोह की रानी लक्ष्मीबाई सबसे खतरनाक विद्रोही के रूप मे सामने आयी थी, जिसने अपनी सूझ-बूझ से साहस और निडरता का परिचय देकर सबको हैरान कर दिया था।
रानी लक्ष्मीबाई से जुड़ीं कहानियां
उनसे जुड़ीं कहानियों की बात करें तो अंग्रेजों ने झांसी को चारों तरफ से घेर लिया था। वह लगातार हमले कर रहे थे, ऐसे में किसी नागरिक को लालच देकर उन्होंने झांसी के दक्षिण द्वार से प्रवेश करने का जुगाड़ कर लिया था। खास बात यह रही कि वह एक बार भी विचलित नहीं हुई। यही नहीं, वह हर मोर्चे पर खुद निगरानी रखती थीं और सबके खाने-पीने का ध्यान भी रखती थी। यह 12 दिनों तक लगतार चला, फिर उन्होंने पड़ोसी रियासतों को पत्र लिख कर मदद मांगीं। रानी ने कई दिनों तक खाना नहीं खाया और न ही एक पल के लिए भी सो पायीं। यह भी उनके बारे में मशहूर कहानी है कि चैत महीने में झांसी में हल्दी-कुमकुम का त्यौहार होता था। ऐसे में इस बार उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी। लेकिन जब रानी को लगा कि झांसी के लिए इसके बाद फिर वे दिन नहीं आएंगे। तो उन्होंने ऐसा समारोह किया, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।
रानी लक्ष्मीबाई के साथ उनके ही राज्य के एक व्यक्ति ने धोखा किया था, ऐसा इतिहासकार मानते हैं, उन्होंने झूठी अफवाह फैला दी थी कि अंग्रेजों का मनोबल टूट गया है, यह सुन कर रानी ने खाना खा लिया। लेकिन यह खबर झूठी थी, अंग्रेज वहां से हटे नहीं थे, बल्कि वे दूसरे गुप्त रास्तों से झांसी के महल में प्रवेश कर गए थे। इसके बाद रानी ने बहुत दुखी महसूस किया, उन्हें लगा कि वह खुद इसकी जिम्मेदार हैं कि उनकी वजह से उनके लोगों को परेशानी हुई। रानी ने पहले हिम्मत हारी, लेकिन फिर उन्होंने कमान संभाली और अपने प्रिय सफेद घोड़े के साथ पुत्र को अपनी पीठ में बांधा और निकल पड़ीं अंग्रेजों का सामना करने। रानी लक्ष्मीबाई के बारे में इतिहासकारों का मानना था कि वह तलवार भांजने वाली योद्धा नहीं थीं, बल्कि वह अपनी प्रजा से भी काफी प्यार करती थीं। उन्होंने घुड़सवारी सीखी थी और युद्ध के लिए जब सैनिक अभ्यास करते थे, तो वह देखा करती थी।
तो रानी लक्ष्मीबाई के योगदानों को इतिहास कभी नहीं भूल सकता है, वह हमेशा वीरांगना के रूप में याद की जाएंगी और हमेशा ही अमर रहेंगी। उनके बारे में हमेशा ही यह कहा जाएगा कि खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।