शक्ति, धैर्य, पराक्रम, सृजन सब मां दुर्गा के ही प्रतीक हैं। जब-जब देवी दुर्गा का आगमन होता है जीवन में, इस बात पर विश्वास और अधिक प्रबल हो जाता है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होगी। दुनिया में विनाश करे वाले चाहे कितने हों, लेकिन सृजन भी होता रहेगा। ऐसे में मां ने जिन्हें सृजन किया है, वह दुर्गा पूजा पर मां का सृजन कर उन्हें ही धन्यवाद भी कहती हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं देवी दुर्गा की प्रतिमाओं और पंडालों का सृजन करने वाली होनहार महिला कलाकारों के बारे में, जो कई वर्षों से देवी दुर्गा को अपना समर्पण अपनी कला के माध्यम से दे रही हैं। देवी दुर्गा के नौ रूपों में से पहला रूप मां शैलपुत्री का है, जो धैर्य और समर्पण की ही देवी हैं और उनके यही गुण इन कलाकार महिलाओं में भी हैं, गौरतलब है कि एक ऐसा क्षेत्र जिसे कभी सिर्फ पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था, आज इस क्षेत्र में कई महिला मूर्तिकार सक्रिय हैं। तो आइए दुर्गा पूजा के प्रथम रूप शैलपुत्री का प्रासंगिकता की तलाश इन महिला मूर्तिकार और आर्टिस्ट में करते हैं।
एक लेबर के रूप में की थी शुरुआत, आज ग्रुप की हेड हूं : प्रियंका जाना, आर्टिस्ट, कोलकाता
प्रियंका जाना कोलकाता में स्थित एक आर्टिस्ट हैं। वह मूर्तिकार हैं और लंबे अरसे से मूर्तियां बना रही हैं। खासतौर से दुर्गा पूजा में मां की प्रतिमाएं बनाती हैं। उन्होंने अपनी कला के बारे में विस्तार से हमें रूबरू कराते हुए बताया कि मैं अपने कॉलेज टाइम से मूर्ति बनाती रही हूं। उस वक्त मैं सिर्फ एक मजदूर (लेबर) की तरह थी। वर्ष 2013 की यह बात है। सच कहूं तो मुझे इस बात की खुशी है कि मैं एक युवा आर्टिस्ट रही हूं, जो 20 साल की उम्र से सक्रिय है और अभी मेरी उम्र 32 है। मैंने मजदूर (लेबर) के तौर पर शुरुआत की थी और आज मैं अपने ग्रुप ट्रायो की हेड हूं।
प्रियंका मानती हैं कि आर्टिस्ट का कोई जेंडर नहीं होता है। वह कहती हैं कि हमारी इंडस्ट्री में पहले मर्द लोग ज्यादा काम करते थे, क्योंकि औरत को उस वक्त अधिक नॉलेज नहीं था या यह भी कह सकते हैं कि अधिक दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए वह इस आर्ट से नहीं जुड़ती थीं। लेकिन मुझे इसमें शुरुआती दौर से ही काफी दिलचस्पी थी। जब मैं बहुत छोटी थी और ये सुनती थी कि ऐसा डेकोरेशन बना है, तो मैं खुश हो जाती थी। प्रियंका यह भी बताती हैं कि मैं अपना अनुभव बताऊं तो मैं मैं टीनएज से काम कर रही हूं। मैंने ऐसे भी पूजा पंडाल में काम किया है, जहां एकमात्र महिला आर्टिस्ट मैं होती थी। इसके बावजूद मुझे कभी कोई असहजता महसूस नहीं हुई। मैं उन लोगों के साथ खाना भी खाती थी। जरूरत पड़ने पर उन सभी के साथ सो भी जाती थी। फिर चाहे वह दोपहर का 30 मिनट पावर नैप भी है। इतना हेल्थी माहौल था। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए वह कहती हैं मैं जब क्लास 9 में थी, उस वक्त ही एक्स्ट्रा पॉकेट मनी के लिए छोटे-छोटे बच्चों को पेंटिंग सिखाती आई हूं। वर्ष 2007 से 2019 तक मैंने बच्चों को पेंटिंग सिखायी है। एक टाइम पर साउथ कोलकाता में प्रियंका पेंटिंग के नाम से प्रसिद्ध थी। वह पूजा पंडाल की थीम के बारे में बात करते हुए कहती हैं कि बच्चों के साथ मेरा इतना लंबा एसोसिएशन रहा है, जिस वजह से मैंने एक बात महसूस किया है कि आज के बच्चों में इमेजिनेशन की कमी है। डिजिटल के जो कार्टून हैं छोटा भीम,बेन 10,डोरेमोन उनकी सोच उन्हीं तक ही निर्भर हो गयी है। वे कुछ ओरिजिनल और अपना नहीं सोच पा रहे हैं। मेरा ट्रायो करके एक ग्रुप है। इसमें हम दो लड़कियां पूजा और मैं एवं दीपोदान दास। हमारे ग्रुप ने इस बारे में बहुत सोचा और पाया कि आज के दौर में बच्चों को कहानियां ही नहीं सुनायी जा रही हैं, जैसे हम कहानियां सुनते थे। तो इस बार हमारे पंडाल का थीम है कि बच्चों को कहानियों को सुनाने के लिए प्रोत्साहित करें। तो कोलकाता के भवानीपुर में इस बार का यह पूजा पंडाल थीम होगा । थीम का नाम अवोसरों ए बोझोर पुरो टा गोलपो होगा, क्योंकि मेरा मानना है कि ये कहानियां बहुत जरूरी हैं। हमारे समाज, हमारी सोच सभी को जीवित रखने के लिए।
कोविड के बाद, इस बार मौका है पूरी कला दिखाने का : मधुरिमा पाल, आर्टिस्ट कोलकाता
मधुरिमा कोलकाता के थीम बेस्ड पंडालों की आर्टिस्ट हैं। वह पूरे साल दुर्गा पूजा की खास तैयारी में लगी रहती हैं और बहुत मेहनत करती हैं। इस साल भी वह बेहद व्यस्त हैं, क्योंकि कोविड महामारी के बाद, यह पहला साल है, जब बिना किसी रुकावट के उन्हें अपने सृजन और कला को दर्शाने का मौका मिलेगा। मधुरिमा बताती हैं कि वह आर्ट्स की ही स्टूडेंट रही हैं।
वह इस बार के थीम पंडाल पर बात करते हुए कहती हैं कि अरबिंदो सेतु सरबोजोनिन में थीम 'बोहोन' है। हमें अपने पूर्वजों की खूबियां विरासत में मिली हैं, वह एक अद्भुत कला को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं। वह कहती हैं कि कभी-कभी कलात्मक गुण जो अक्सर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चले जाते हैं। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण ओड़िशा का एक छोटा सा गांव रघुराजपुर है। ऐसे में INTACH द्वारा दो साल के शोध और प्रलेखन परियोजना के बाद, इस गांव को 2000 में राज्य के पहले विरासत गांव के रूप में पहचाना गया। वहां के कलाकार सावधानीपूर्वक पटचित्र बनाते हैं, पारंपरिक मुखौटे, मूर्तियां, लकड़ी के खिलौने बनाते हैं। गांव के हर घर को कलात्मक ढंग से सजाया जाता है। घर की दीवारों पर रघुराजपुर की पारंपरिक कलाकृतियां बनाई गई हैं। ऐसे में हम दुर्गा पूजा के बहाने उसी इतिहास को संभालने और संजोने की कोशिशों में पूरी तरह से जुटे हुए हैं। मधुरिमा का मानना है कि वह आर्ट को किसी भी दायरे में नहीं रखना चाहती हैं, हमेशा ही आगे बढ़ते रहना चाहती हैं, उनको कोई टोकेगा भी तो वह रुकने वाली नहीं हैं, वह अपने काम से प्यार करती हैं और हमेशा आगे बढ़ती रहेंगी।
पैसे से ज्यादा सम्मान की जरूरत है : सुष्मिता रुद्र पाल मित्रा, आर्टिस्ट, कोलकाता
सुष्मिता बताती हैं कि उन्होंने मूर्ति बनाने की कला अपने घर की महिला सदस्य से सीखी थी। माला पाल को वह मां की प्रतिमा बनाते हुए देखती थीं, तो उन्हें इसमें रुचि हुई। उन्होंने इस बारे में विस्तार से बातचीत करते हुए कहा कि मेरे पिताजी जाने-माने आर्टिस्ट रहे, उन्होंने मुझे इसमें आने के लिए प्रेरित किया, मेरी मां चाची भी इसमें आयीं। वर्तमान दौर में सुष्मिता कहती हैं कि हम आर्टिस्ट के लिए बड़ी चुनौती यह हो गई है कि कोविड की मार से जो बाजार गिरा है, हर चीज का भाव बढ़ा है, लेकिन लोग अब प्रतिमा खरीदने में काफी बार्गेन करते हैं, जहां एक लाख मिलना चाहिए, 50 हजार मिलने लगा है, उन्हें लगता है कि महंगी प्रतिमाएं क्यों लेनी है। सुष्मिता कहती हैं कि उनके जो लेबर हैं, उनको एक दिन में 1500 से 2000 का खर्चा देना पड़ता है, ऐसे में उनके पास कुछ बच नहीं पा रहा है। साथ ही लोगों ने सम्मान की नजर से देखना बंद कर दिया है, लोगों को लगता है कि मामूली सी बात है, इस पर इतना पैसा क्यों दिया जाये। तो इस वक्त आमदनी की चुनौती के साथ-साथ सम्मान की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है, एक आर्टिस्ट हमेशा कला के सम्मान का भूखा होता है और वह चाहता है कि उन्हें सम्मान मिले। तो लोगों से गुजारिश है कि हमें सम्मान की नजर से देखें। सुष्मिता ने यह भी बताया कि उनके परिवार के पुरुष सदस्यों ने महिलाओं को इस काम में आने के लिए प्रेरित ही किया है, भाई, पिता और अब सुष्मिता के पति भी उनका साथ देते हैं, हालांकि कुम्हार टोली में ऐसे कई परिवार रहे हैं, जहां पुरुषों को महिलाओं का यह काम करना पसंद नहीं आता था, लेकिन सुष्मिता खुद को भाग्यशाली मानती है कि उनके परिवार में कला को किसी जेंडर में नहीं बांधा गया।
कुम्हारटोली और महिला मूर्तिकार
कोलकाता का कुम्हारटोली का अपना इतिहास रहा है, जहां देवी दुर्गा की प्रतिमाएं भव्य रूप से बनाई जाती हैं और दुर्गा पूजा के आगमन के कई महीने पहले से इस पर काम शुरू हो जाता है। इस जगह की खास बात यह रही है कि अरसे तक, यहां पुरुषों द्वारा ही देवी दुर्गा की प्रतिमाएं तैयार की जाती थीं, लेकिन कुछ महिलाओं ने अपनी सूझ-बूझ और सोच से इसमें बदलाव किया। चीना पाल उन महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने कुम्हार टोली में दुर्गा मां की प्रतिमाएं बनाने की शुरुआत करने वाली महिलाओं में से एक रही हैं। उन्होंने वर्ष 1994 में उस वक़्त इस काम की शुरुआत की, जब उनके पिताजी बीमार पड़े और उनके दो भाइयों को इसमें कोई रुचि नहीं ली, चीना को लेकर लोगों ने कई बातें बनायीं, लेकिन उन्होंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपने काम को जारी रखा, आज वह बड़ी आर्टिस्ट बन चुकी हैं और पूरे कोलकाता में उनकी बनाई देवी मां की प्रतिमा स्थापित होती हैं। इनके अलावा माला पाल, अल्पना पाल, सुष्मिता पाल और ऐसी कई कुम्हारटोली की महिलाएं हैं, जो मूर्तिकार हैं और अपनी कला से बेइंतेहां मोहब्बत करती हैं।