डियर आजादी,
आजादी के 76वें साल में कदम रखते हुए मेरे हौसलों के पैर अभी भी लड़खड़ाते हैं, कई बार ऐसा होता है जब मेरे आत्म-सम्मान पर कोई तलवार चला जाता है, मैं शून्य होकर अपने आत्मविश्वास के टुकड़ों की गिनती करती रहती हूं। ऐसा नहीं है कि भारत मां की ये बेटी आजाद नहीं है, लेकिन शायद, मेरी तरह कई ऐसी बेटियां हैं, जिन्हें आजाद तो किया गया है, लेकिन वे किसी न किसी तरह की विचारधारा की पिंजर में अभी भी कैद हैं। आत्मनिर्भर होने के बाद भी उन्हें अपनी छोटी से बड़ी इच्छाओं को त्याग देने का बंधन होता है। जो रात में लॉन्ग ड्राइव पर जा सकती है, अकेले दूसरे शहर ट्रेवल कर सकती हैं, लेकिन फोन या फिर किसी दूसरे जरिए से अपने करीबी को लगातार यह बताने की बंदिश में रहती हैं कि वे जहां है सुरक्षित हैं। वे अपने पसंद के कपड़े, मेकअप और खाने की चीजें खुद की कमाई से खरीद सकती हैं फिर भी उन्हें दुबले, मोटे, काले और कपड़ों को लेकर कई तरह के हीन कमेंट्स से, सोच से, कभी रास्ते, तो कभी दफ्तर पर मुलाकात करनी होती है। जो कभी मां बनकर अपनी सपनों को उबलते हुए दूध की उबलाहट में खत्म कर देती है, तो कभी पत्नी, बेटी या फिर बहन जैसे हर रिश्ते में मुट्ठी बांध अपनी ख्वाहिशों को कैद करती रहती हैं। शॉर्ट ड्रेस के साथ खुद को आजाद दिखाते हुए अपनी पोनी टेल में कभी वाई फाई के बिल की परवाह, तो कभी अकेलपन की परेशानी बांधे आजाद होने की पहेली बूझती रहती है। एक तरफ हाथों की उंगलियां लैपटॉप पर टिप टिप करती हैं, तो दूसरे ही पल कलाई कड़ाही में स्वाद की लड़ाई लड़ती रहती है। तुम ही बताओ आजादी, क्या ऐसा नहीं लगता कि कुछ देर ठहर कर सोचा जाए, जीवन की घुटन, दर्द, मान-अपमान के साथ सारे सुख और दुखों को पलक झपका कर जाने दिया जाए। जब भी कोई उलझन हो या मन उदास हो, या फिर दिमाग में टेंशन का पारा परवान पर हो, तो आंख बंद करके लंबी सांस लेकर खुद से ये बोला जाए, ये वक्त गुजर गया, अब इसकी सिलवटों से माथे को आजाद किया जाए, जाने दिया जाए।
कई बार तो मैं सोचती हूं कि काश ! मैं भी वैसी आजादी जीती, जो अक्सर मुझे ट्रेन में सफर करती महिलाओं के अंदर छिपी लड़कियों में दिखाई देती है। अपने घर के दरवाजे बंद करके जब वो निकलती हैं तो उनका अंदाज महिला वाला नहीं होता। न खुद को लेकर उसमें कोई उदासी होती है । न तो वो किसी बोझ के तले दबी होती। एक बोझिल महिला होने का उस पर कोई दबाव नहीं दिखता। न परिवार की जिम्मेदारी दिखती है, न तो ( क्या कहेंगे लोग) वाली शिकायत होती है। ट्रेन हो या बस, जब भी वो रास्ते पर होती हैं, अपने पंख खोलकर वो उड़ रही होती हैं। अपने बैग से हेड फोन निकाल कर इंस्टाग्राम पर रील घुमाकर, चिप्स की पैकेट की कर्कश आवाज के साथ मुस्कुराती हुई। खिड़की वाली सीट पर बैठ स्मार्ट वॉच लगा वो लड़की वाली जिंदगी में बंधी होती है। उसके कंधे पर भाजी की थैली नहीं, बैग में मेकअप और हाथों में खुद की तस्वीर होती है। वो एक महिला नहीं, लड़की होती है, जिस में आजाद जिंदगी जीने की हौसले से भरी जिद्द होती है।
इन तमाम बातों के बावजूद मैं तुमसे अंत में यह कहना चाहूंगी कि मैं उम्मीद करती हूं कि अगली बार जब यह चिट्ठी मैं तुम्हें लिखूं तो वास्तविक मायने में आजादी के मायने अपना सकूं, क्योंकि उम्मीद का ही तो दूसरा नाम औरत है।