भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक नहीं, बल्कि कई दफा महिलाओं की सुरक्षा, सेहत और अधिकार को लेकर ऐतिहासिक फैसले सुना चुका है। हाल ही में भी ऐसे कई जरूरी फैसले और महिलाओं से जुड़े कई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तीखी टिप्पणी की है और साथ ही अहम फैसले भी सुनाए हैं। जरूरी है कि हर महिला को इस संबंध में जानकारी हो। आइए जानते हैं विस्तार से महिलाओं के लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले।
महिलाओं के नाम से पहले मिस और कुमारी पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर अपना फैसला सुनाया कि जिसमें यह कहा गया था कि महिला को अपने नाम के आगे मिस, कुमारी या फिर मिसेज जैसे उपसर्ग लगाने के लिए नहीं बोला जाना चाहिए। जस्टिस एसके कौल और जस्टिस ए अमानुल्ला की बेंच ने इस पर फटकार लगाते हुए कहा है कि यह क्या याचिका है? यह एक तरह का प्रचार करने का तरीका है। कोर्ट ने आगे कहा कि किसी भी महिला के नाम के आगे मिस, कुमारी या फिर मिसेज लिखना है या नहीं लिखना यह आप उस व्यक्ति को इस्तेमाल करने से रोक नहीं सकते हैं। यह किसी भी व्यक्ति के पसंद पर निर्भर करता है कि उसे उपसर्ग का इस्तेमाल करना है या नहीं। इस संबंध में कोई भी आदेश जारी नहीं किया जा सकता है।
ओडिशा कोर्ट का फैसला, ऐसा करना एक गर्भवती महिला का अपमान
एक महिला शिक्षक ने साल 2013 में स्कूल में बच्चे की डिलीवरी के लिए अप्लाई किया था। शिक्षा विभाग ने महिला को छुट्टी दे दी, लेकिन वेतन देने से मना कर दिया। इस बात की शिकायत महिला ने हाईकोर्ट में की। इस पूरे मामले पर ओडिशा हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि एक महिला के जीवन में मां बनना सबसे बुनियादी, स्वाभाविक और प्राकृतिक घटना है और किसी भी महिला को बच्चे के जन्म देने की सुविधा के लिए जो भी जरूरी है, वह पूरा करना उसके एंप्लायर की जिम्मेदारी है। कोर्ट ने आगे कहा कि एक महिला के प्रति सहानुभूति होनी चाहिए कि जो शारीरिक परेशानी का सामना करके एक कामकाजी महिला गर्भ में बच्चे को ले जाने के समय या फिर उसके जन्म के बाद भी कार्यस्थल पर अपने कर्तव्यों का पालन करती है। कोर्ट का कहना है कि यह एक व्यक्ति के तौर पर उसकी गरिमा पर हमला है।
तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
तलाक के लिए छह महीने का वेटिंग पीरियड अनिवार्य नहीं बताते हुए जस्टिस संजय किशन कौल,संजीव खन्ना और पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि अगर पति-पत्नी के रिश्ते में सुलह की गुंजाइश नहीं बची हो, तो संविधान के आर्टिकल 142 के तहत मिले विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए कोर्ट उन्हें तलाक की मंजूरी दे सकता है।
महिला और पुरुष की शादी की उम्र एक समान
महिला और पुरुष की शादी की उम्र को लेकर एक याचिका दायर करते हुए तर्क दिया गया कि पुरुषों और महिलाओं के लिए विवाह की निर्धारित उम्र में फर्क पितृसत्तात्मक रूढ़ियों पर आधारित था, इसका कोई भी वैज्ञानिक समर्थन नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने एक समान उम्र की याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि कुछ मामले संसद के लिए आरक्षित किए गए हैं। हम उन्हें संसद के लिए रखना चाहते हैं। हम यहां कानून नहीं बना सकते हैं। जिस तरह संविधान एक मात्र संरक्षक है,ठीक इसी तरह संसद भी संरक्षक है।
शादी के 3 साल के अंदर युवा महिलाओं की हालत- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई और बताया गया कि शादीशुदा मर्दों में आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। ऐसे में पुरुषों की समस्या समझने और उपाय तलाशने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस पर सुनवाई से इंकार कर दिया। कोर्ट का कहना है कि यह एक तरफा तस्वीर है, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। पीठ ने याचिकाकर्ता पर सवाल उठाते हुए कहा कि क्या आप जानते हैं कि शादी के पहले 3 साल के अंदर कितनी युवा महिलाएं मर जाती हैं, क्या आप इन 3 सालों के भीतर का डेटा पेश
कर सकते हैं।
बच्चे के उपनाम का अधिकार मां के हाथ : सुप्रीम कोर्ट
बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा था कि बच्चे का उपनाम तय करने का अधिकार मां का होता है। खासतौर पर महिलाओं के लिए यह जरूरी फैसला है, जिसमें बताया गया है कि बच्चे की एकमात्र अभिभावक उसकी मां होती है, इस वजह से बच्चे का उपनाम तय करने का अधिकार उसकी मां का होता है।
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