ज़ेहरा निगाह एक उर्दू कवि और लेखिका हैं। वह 1950 के दशक में प्रमुखता हासिल करने वाली दो महिला कवियों में से एक थीं, वो भी तब, जब इस जगह पुरुषों का वर्चस्व था। उन्होंने कई टेलीविजन नाटक धारावाहिक लिखे हैं। उन्होंने टेलीविजन धारावाहिक उमराव जान लिखी, जो मिर्जा हादी रुस्वा की उमराव जान अदा पर आधारित थी। ज़ेहरा निगाह ने अपने लेखन करियर की शुरुआत बचपन में ही कर दी थी। जब वह 14 साल की थीं, तब उन्होंने प्रमुख कवियों की कविताएं दिल से सीखीं। वह उर्दू कविता की शास्त्रीय परंपरा से प्रेरित हैं। यहां पढ़िए ज़ेहरा निगाह की कुछ बेहतरीन और प्रमुख रचनाएं।
नक़्श की तरह उभरना भी तुम्ही से सीखा
नक़्श की तरह उभरना भी तुम्ही से सीखा
रफ़्ता रफ़्ता नज़र आना भी तुम्ही से सीखा
तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत
और हर मौज से लड़ना भी तुम्ही से सीखा
अच्छे शेरों की परख तुम ने ही सिखलाई मुझे
अपने अंदाज़ से कहना भी तुम्ही से सीखा
तुम ने समझाए मिरी सोच को आदाब अदब
लफ़्ज़ ओ मअनी से उलझना भी तुम्ही से सीखा
रिश्ता-ए-नाज़ को जाना भी तो तुम से जाना
जामा-ए-फ़ख़्र पहनना भी तुम्ही से सीखा
छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था
पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्ही से सीखा
बैठे-बैठे कैसा दिल घबरा जाता है
बैठे- बैठे कैसा दिल घबरा जाता है
जाने वालों का जाना याद आ जाता है
बातचीत में जिस की रवानी मसल हुई
एक नाम लेते में कुछ रुक सा जाता है
हँसती-बस्ती राहों का ख़ुश-बाश मुसाफ़िर
रोज़ी की भट्टी का ईंधन बन जाता है
दफ़्तर मंसब दोनों ज़ेहन को खा लेते हैं
घर वालों की क़िस्मत में तन रह जाता है
अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों बाद भी आते हैं
हम ने जिस रस्ते पर उस को छोड़ा है
फूल अभी तक उस पर खिलते जाते हैं
दिन में किरणें आँख-मिचोली खेलती हैं
रात गए कुछ जुगनू मिलने जाते हैं
देखते देखते एक घर के रहने वाले
अपने अपने ख़ानों में बट जाते हैं
देखो तो लगता है जैसे देखा था
सोचो तो फिर नाम नहीं याद आते हैं
कैसी अच्छी बात है 'ज़ेहरा' तेरा नाम
बच्चे अपने बच्चों को बतलाते हैं
बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
देखो ख़ाली दामन वाले अब भी हैं
देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे
देखो उन के मुँह पर ताले अब भी हैं
देखो उन आँखों को जिन्हों ने सब देखा
देखो उन पर ख़ौफ़ के जाले अब भी हैं
देखो अब भी जिंस-ए-वफ़ा नायाब नहीं
अपनी जान पे खेलने वाले अब भी हैं
तारे माँद हुए पर ज़र्रे रौशन हैं
मिट्टी में आबाद उजाले अब भी हैं
बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो
बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो
आज ऐसा लगा यहीं कहीं हो
महसूस हुआ कि बात की है
और बात भी वो जो दिल-नशीं हो
इम्कान हुआ कि वहम था सब
इज़हार हुआ कि तुम यक़ीं हो
अंदाज़ा हुआ कि रह वही है
उम्मीद बढ़ी कि तुम वहीं हो
अब तक मिरे नाम से है निस्बत
अब तक मिरे शहर के मकीं हो