अनामिका का जन्म बिहार के मुजफ्फपुर इलाके में हुआ था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए और पीएचडी किया। इसके बाद डी लिट की भी उपाधि हासिल की। अनामिका ने गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में, दूब धान, एक ठो शहर, एक गो लड़की, पर कौन सुनेगा, तिनका तिनके पास, कहती हैं औरतें जैसी कई रचनाएं लिखी हैं। आइए पढ़ते हैं उनकी ऐसी ही कुछ रचनाएं।
स्त्रियां
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है कागज बच्चों की फटी कॉपियों का 'चनाजोर गरम' के लिफाफे के बनने से पहले!
देखी जाती है कलाई घड़ी अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
देखा गया हमको जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
सुना गया हमको यों ही उड़ते मन से जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर ठसाठस्स ठुँसी हुई बस में!
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा- हम भी इंसान हैं
हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बीए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है।
बहुत दूर जलती हुई आग।
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा ।
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से टिड्डियाँ उड़ीं
और रंगीन अफवाहें चींखती हुई
चीं-चीं 'दुश्चरित्र महिलाएँ, दुश्चरित्र महिलाएँ
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर
फूली फैलीं अगरधत्त जंगल लताएँ !
खाती-पीती, सुख से ऊबी और बेकार बेचैन,
आवारा महिलाओं का ही शगल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।' (कनखियाँ इशारे, फिर कनखी) बाकी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों- बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो !
फर्नीचर
मैं उनको रोज़ झाड़ती हूँ
पर वे ही हैं इस पूरे घर में
जो मुझको कभी नहीं झाड़ते!
रात को जब सब सो जाते हैं-
अपने इन बरफाते पाँवों पर आयोडिन मलती हुई सोचती हूँ मैं-
किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फ़र्नीचर,
कठुआ गए होंगे किसी शाप से ये!
मैं झाड़ने के बहाने जो छूती हूँ इनको,
आँसुओं से या पसीने से लथपथ -
इनकी गोदी में छुपाती हूँ सर-
एक दिन फिर से जी उठेंगे ये !
थोड़े-थोड़े-से तो जी भी उठे हैं।
गई रात चूँ-चूँ-चू करते हैं
ये शायद इनका चिड़िया का जनम है, कभी आदमी भी हो जाएँगे!
जब आदमी ये हो जाएँगे,
मेरा रिश्ता इनसे हो जाएगा क्या
वो ही वाला
जो धूल से झाड़न का ?
एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
वह होटल के कमरे में दाख़िल हुई ! अपने अकेलेपन से उसने
बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया! कमरे में अँधेरा था घुप्प अँधेरा था कुएँ का उसके भीतर भी! सारी दीवारें टटोली अँधेरे में,
लेकिन 'स्विच' कहीं नहीं था!
पूरा खुला था दरवाज़ा, बरामदे की रोशनी से ही काम चल र सामने से गुज़रा जो 'बेयरा' तो आर्तभाव से उसे देखा ! उसने उलझन समझी और बाहर खड़े-ही-खड़े
दरवाज़ा बंद कर दिया! जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ,
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल व
'भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता उसने सोचा ।
डनलप पर लेटी,
चटाई चुभी घर की
अंदर कहीं- रीढ़ के भीतर !
तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ? सात गलीचों के भीतर भी उसको चुभ जाता है कोई मटरदाना आदिम स्मृतियों का? पढ़ने को बहुत कुछ घरा था, पर उसने बाँची टेलीफ़ोन तालिका और जानना चाहा
अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का
ठीक-ठाक खर्चा।
फिर अपनी सब डॉलरें खर्च करके
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल! सबसे पहले अपने बच्चे से कहा-
'हलो-हलो, बेटे-
पैकिंग के वक़्त... सूटकेस में ही तुम ऊँघ गए सबसे ज़्यादा याद आ रही है तुम्हारी- तुम हो मेरे सबसे प्यारे!”
अंतिम दोनों पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं ऑफ़िस में खिन्न बैठ अंट-शंट सोचते अपने प्रि फिर चौके में चिंतित, बर्तन खटकाती अपनी माँ . अब उसकी हुई गिरफ़्तारी ।