हिंदी साहित्य में जब भी किसी महाकवि के नाम की चर्चा होती है, तो इस फेहरिस्त में सबसे पहला नाम जयशंकर प्रसाद का आता है। कई बड़े साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का संबोधन महाकवि के तौर पर करते हैं, जो कि साफ तौर पर साहित्य में उनकी सेवा और समर्पण को बयान करता है। इसी वजह से हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि महाकवि, कथाकार और नाटककार जयशंकर प्रसाद को कौन नहीं जानता है। जयशंकर प्रसाद की रचनाओं की सबसे बड़ी खूबी यह है कि स्कूल और कॉलेज से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन की किताबों तक में जयशंकर प्रसाद की कई सारी ऐसी रचनाएं देखने को मिलती हैं, जहां से जीवन को नई दिशा, सीख और साहस की अनोखी भेंट मिलती है। आइए जानते हैं विस्तार से।
जयशंकर प्रसाद की लेखनी में जीवन
साहित्य के जानने वालों का यह मानना है कि जयशंकर प्रसाद की लेखनी में जीवन दिखाई देते थे। उनकी हर रचनाएं मानव जीवन और उसके आस-पास के माहौल के ईद-गिर्द घूमती रहती थी। उनकी लेखनी को देखकर ऐसा लगता था कि उन्होंने हमेशा अपनी लेखनी की पूजा की है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी में हुआ। बचपन से उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा को महत्व दिया और अपनी लेखनी को कविताओं की रचनाओं की तरफ आगे बढ़ाया। उन्हें न केवल हिंदी भाषा का, बल्कि संस्कृत, पाली, उर्दू और अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञान रहा है। उन्हें अपनी लेखनी में प्रयोग करना बेहद पसंद रहा है। जयशंकर प्रसाद ने अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य में खड़ी बोली का आगमन और विकास किया है। काव्य रचना के साथ उन्होंने नाटक, उपन्यास और कहानी लेखनी से अपनी प्रतिभा और विचारों का कौशल दिखाया है। इसी वजह से साहित्य के क्षेत्र में एक कवि और नाटककार के तौर पर उन्हें ख्याति मिली है और उनकी जगह कोई नहीं ले सकता है।
जयशंकर प्रसाद और उनकी प्रमुख रचनाएं
जयशंकर प्रसाद की प्रमुख कविताएं और रचनाओं ने हमेशा से ही हिंदी साहित्य में अपना ऊंचा स्थान रखा हुआ है। उनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है- ‘झरना’, ‘आंसू’, ‘लहर’, ‘कामायनी’, ‘प्रेम पथिक’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’, ‘अजातशत्रु’, ‘विशाख’, ‘एक घूंट’, ‘कामना’, ‘करुणालय’, ‘कल्याणी परिणय’, ‘आकाशदीप’, ‘इंद्रजाल’, ककाल, तितली इरावती उपन्यास रहा है। उनकी लोकप्रिय कहानियों की बात की जाए, तो देवदासी, बिसाती, ‘नीरा’, ‘पंचायत’, ‘उर्वशी’, ‘गुलाम’, ‘चित्र मंदिर’, ‘पुरस्कार’, ‘रमला’, ‘इंद्रजाल’, ‘मधुआ’ आदि रहे हैं। दूसरी तरफ जयशंकर प्रसाद की लोकप्रिय कथाओं के बारे में बात की जाए, तो इसमें नाम शामिल है- ‘ओ री मानस की गहराई’, ‘अरे, आ गई है भूली-सी’, ‘अरे, कहीं देखा है तुमने’, ‘वसुधा के अंचल पर’, ‘मेरी आंखों की पुतली में’, ‘कितने दिन जीवन जल निधि में’, ‘कोमल कुसुमों की मधुर रात’, ‘तुम्हारी आंखों का बचपन’, ‘आह रे, वह अधीर यौवन’, ‘उस दिन जब जीवन के पथ में’, ‘हे सागर संगम अरुण नील’, ‘काली आंखों का अंधकार’, ‘मधुर माधवी संध्या में’ आदि शामिल है।
जयशंकर प्रसाद और उनके काव्य
उल्लेखनीय है कि जयशंकर प्रसाद ने अपने काव्य लेखन की शुरुआत ब्रजभाषा से की थी। इसके बाद वक्त के साथ उन्होंने अपनी लेखनी में बदलाव किया और खड़ी बोली की तरफ अपनी लेखनी को आगे बढ़ाया और दिलचस्प है कि साहित्यकारों ने साहित्य के पाठकों ने उनकी इस भाषा शैली को काफी पसंद किया। यह भी जान लें कि जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में खास तौर से भावनात्मक, विचारात्मक के साथ चित्रात्मक भाषा शैली का उपयोग और प्रयोग एक साथ देखने को मिला है जो कि बाकी के रचनाकारों के बीच महाकवि जयशंकर प्रसाद का कद बढ़ा देता है। अपनी मीठी और सरल भाषा के जरिए उनकी कविता और कहानी लेखनी को स्कूल, कॉलेज की किताबों में भी प्रमुख स्थान मिला है, जिसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। विश्व में जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘कामायनी’ लोकप्रिय हुईं। अपनी भाषा, शैली और विषय तीनों ही गुणों के कारण ‘कामायनी’ महाकाव्य के तौर पर विश्व साहित्य अपना खास स्थान बना चुकी है। उन्हें ‘कामायनी’ की काव्य रचना के लिए ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक सम्मान’ भी दिया जा चुका है। इसके साथ ही जयशंकर प्रसाद के जीवन का अंतिम काव्य भी कामायनी रहा है।
यहां पढ़ें जयशंकर प्रसाद की लोकप्रिय पांच कविताएं
दो बूंदें
शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतंलकारी शशि आयी
सुधा की मनो बड़ी सी बूंद।
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सब जीवन बीता जाता है
धूप छांह के खेल सदृश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता है प्रतिक्षण में
नव-अतीत के तुषार-कण में
हमें लगा कर भविष्य-रण में
आप कहां छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके
मेघ और बिजली के टोंके
किसका साहस है कुछ रोके
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बस बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आंख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है
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तुम कनक किरन
तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों
नत मस्तक गवर वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मोह बने रहते हो क्यों
अंधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपने पीते रहते हो क्यों
बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों
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भारत महिमा
हिमालय के आंगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत
बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि युग का मेरा इतिहास
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्र, मग्र रत्नाकर में वह रहा
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं
जातियों का उत्थान-पतन, आंधियां, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हंसते , प्रलय में पले हुए हम वीर
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सहा संपन्न
हद्य के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हद्य में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य -संतान
जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व , हमारा प्यारा भारतवर्ष
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आत्मकथ्य
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियां देखो कितनी आज घनी
इस गंभीर अनंत- नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं, अपने व्यंग्य मलिन उपहास
तब भी कहते हो कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले ।
यह विडंबना, अरी सरलते हंसी तेरी उड़ाऊं मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों को दिखलाऊं मैं।
उज्जवल गाथा कैसे गाऊं, मधुर चांदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हंसतने वाली उन बातों की।
मिला कहां वह सुख जिसका मैं स्वप्न देकर जाग गया।
आलिगंन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।
जिसके अरुण- कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में ।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है कि थके पथिक की पंथा की।
सीवन की उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएं आज कहूं?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूं ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा ?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।