हिंदी साहित्य ने भारत की साहित्यिक विरासत को सदैव विकसित और समृद्ध किया है। इनमें भी विशेष रूप से पितृसत्तात्मक समाज में अपनी सशक्त कलम से महिला साहित्यकारों ने न सिर्फ अपनी एक जगह बनाई, बल्कि हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया। आइए जानते हैं कुछ ऐसी महिला हिंदी साहित्यकारों के बारे में।
महादेवी वर्मा
हिंदी साहित्य जगत की एक प्रसिद्ध लेखिका होने के साथ-साथ महादेवी वर्मा, एक बेमिसाल कवियत्री, महिला अधिकार कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षाविद भी थीं। इलाहाबाद के पास फरुखाबाद में जन्मीं महादेवी वर्मा को हिंदी के साथ संस्कृत पढ़ने की प्रेरणा उनकी माँ से मिली थी। अगर ये कहें तो कतई गलत नहीं होगा कि छायावाद आंदोलन की अग्रणी और बेमिसाल कवियत्री महादेवी वर्मा की कविताओं से ही आधुनिक हिंदी कविता में रुमानियत की शुरुआत हुई थी। गौरतलब है कि कॉलेज में गुप्त रूप से छंद लिखनेवालीं महादेवी वर्मा की रूममेट ने न सिर्फ एक दिन उनकी कृति देखी, बल्कि उन्हें प्रेरित करते हुए इसे आगे बढ़ाने को कहा। गौरतलब है कि उनकी ये रूममेट कोई और नहीं, बल्कि विख्यात कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान थीं, जिनकी देशभक्ति से ओत-प्रोत कविताओं ने जनमानस में देशभक्ति की अलख जगाई थी। महादेवी वर्मा की बात करें तो चाँद पत्रिका का संपादन करते हुए वे सदैव अपनी संपादकीय और समीक्षाओं से हिंदी साहित्य में महिलाओं को प्रोत्साहित करती रहती थीं। उनकी लघु कथाएं नीलकंठ और गौरा, जहां पालतू जानवरों के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती हैं, वहीं गद्य कृतियाँ शृंखला की कड़ियाँ और मेरे बचपन के दिन हमारे बचपन को एक बार फिर नया कर जाती हैं। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में रेखाएँ और पथ के साथी के साथ यम, दीपशिखा, नीहार, नीरजा और अग्निरेखा शामिल हैं। भारतीय साहित्य में उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए वर्ष 1982 का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है।
कृष्णा सोबती
एक नई लेखन शैली का प्रयोग करते हुए कृष्णा सोबती ने अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से साहसिक मजबूत चरित्रों का निर्माण कर हिंदी साहित्य को समृद्व किया। पाकिस्तान के गुजरात प्रांत में जन्मीं कृष्णा सोबती के लेखन पर हिंदी, उर्दू के साथ पंजाबी भाषा का भी काफी प्रभाव था। अपनी शुरुआती कृतियों में जहाँ उन्होंने भारत-पाक विभाजन के साथ स्त्री-पुरुष के संबंध, भारतीय समाज की बदलती गतिशीलता और घटते मानवीय मूल्यों की झलक दिखाई, वहीं बाद की कृतियों में महिला पहचान डिस्फोरिया और कामुकता के विषयों को प्रस्तुत करने का साहस भी किया। विशेष रूप से उनका प्रसिद्ध उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’, ‘एक शादीशुदा’ महिला की कामुकता की खोज की एक अप्रत्याशित कहानी है। इसके अलावा, ‘सूरजमुखी अँधेरे के’, में उन्होंने बचपन में एक क्रूर बलात्कार का शिकार हुई महिला के जीवन के आघात की पड़ताल की है। उनकी अन्य क्लासिक कृतियों में ‘ज़िंदगीनामा’, ‘दार से बिछुड़ी’ और बादलों के घेरे में शामिल है। वर्ष 2017 में जहाँ उनकी आत्मकथा गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान का प्रकाशन हुआ था, वहीं इसी वर्ष उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
शिवानी
एक उत्कृष्ट कथाकार के रूप में प्रख्यात गौरा पंत, जिन्हें उनके पाठक शिवानी के नाम से भी जानते हैं, हिंदी साहित्य का अनमोल सितारा हैं। एक कुमाऊँनी परिवार में जन्मीं शिवानी ने अपनी हर रचनाओं के माध्यम से हिमालय की एक ज्वलंत, किंतु खूबसूरत तस्वीर पेश की। सिर्फ यही नहीं, अपनी महिला केंद्रित कहानियों के माध्यम से उन्होंने परंपरा बद्ध पुरुष प्रधान समाज में जी रही महिलाओं के व्यक्तित्व और जीवन से जुड़े सवाल भी उठाये। उदाहरण स्वरूप, चौदह फेरे में अपनी नायिका अहिल्या के माध्यम से उन्होंने दर्शाया है कि कैसे पुरुष, महिलाओं के जीवन पर अपना अधिकार मानते हैं। मानवतावाद से भरपूर शिवानी की कहानियों में ऐसे चरित्रों का भी चित्रण किया गया है, जिन्हें वास्तविक जीवन में काफी फीका माना जाता है, जैसे रुढ़िवादी ब्राह्मण पुजारी, उसकी पारंपरिक पत्नी या उसकी विधवा माँ। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में चौदह फेरे, कृष्णकली, अतिथि, लाल हवेली और विषकन्या शामिल हैं। हिंदी साहित्यिक जगह में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1982 में पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।
मन्नू भंडारी
हिंदी साहित्य की प्रमुख हिंदी तथा सम्मानित लेखिकाओं में अगला नाम आता है संवाद लेखिका और कहानीकार मन्नू भंडारी का। अपने दो उपन्यासों, आपका बंटी और महाभोज के साथ वे अपने पाठकों के अवचेतन मन पर आज भी छाई हैं। अपनी सभी रचनाओं के माध्यम से मन्नू भंडारी ने परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति को सदैव एक अलग आयाम देने की कोशिश की। उदाहरण स्वरूप एक कमज़ोर लड़की की नायिका जहाँ परंपरा के नाम पर अपने माता-पिता द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण अपने साहसी विचारों को अंजाम नहीं दे पाती, वहीं त्रिशंकु की नायिका सामाजिक नैतिक मूल्यों और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाने में कामयाब हो जाती है। अपनी अधिकतर कहानियों के माध्यम से उन्होंने भेदभाव पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों, दृष्टिकोणों और प्रथाओं पर प्रकाश डाला है, जो महिलाओं के व्यक्तित्व को कमज़ोर बनाते हैं। इसी के मद्देनज़र आपका बंटी में उन्होंने भारतीय समाज में एक तलाकशुदा महिला द्वारा झेले जा रहे सामजिक कलंकों पर प्रकाश डाला है। गौरतलब है कि उनकी कृति ‘यही सच है’ पर हिंदी फिल्म रजनीगंधा बनाई गई थी, जिसने वर्ष 1974 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार जीता था। इसके अलावा उन्होंने वर्ष 1977 में स्वामी और वर्ष 1986 में समय की ‘धारा’ नामक फिल्मों के लिए संवाद भी लिखे थे।
मृदुला गर्ग
कोलकाता में जन्मीं हिंदी की लोकप्रिय लेखिकाओं में से एक मृदुला गर्ग ने उपन्यास, कहानी, नाटकों और निबंध संग्रह मिलाकर कुल 20 से अधिक पुस्तकों की रचना की है। यही नहीं, 1960 में इकोनॉमिस्क से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने 3 साल तक दिल्ली यूनिवर्सिटी में बतौर अध्यापिका अपनी सेवाएं भी दी हैं। अपने उपन्यासों में कथानक की विविधता और नयेपन के कारण इन्हें समालोचकों से काफी सरहाना मिल चुकी है। अपने उपन्यास ‘चितकोबरा’ में उन्होंने न सिर्फ स्त्री-पुरुष के संबंधों में शरीर को मन के समांतर खड़ा किया, बल्कि इस पर पुरुष प्रधानता विरोधी दृष्टिकोण भी रखे। इसके लिए ये काफी चर्चित होने के साथ विवादास्पद भी रहा। अपने तीखे व्यंग्यों के लिए भी मृदुला गर्ग जानी जाती रही हैं और इसका जीता जागता प्रमाण, वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2010 तक इंडिया टूडे में छपनेवाले उनके स्तंभ कटाक्ष से भली भाँती मिलता है। उनकी कृतियों में उसके हिस्से की ‘धूप’, ‘वंशज’, ‘चितकोबरा’, ‘अनित्य’, ‘मैं’ और ‘मैं’, ‘कठगुलाब’, ‘मिल-जुल मन’, ‘वसु का कुटुम’, ‘कितनी कैदें, ‘टुकड़ा-टुकड़ा आदमी’, ‘डैफोडिल जल रहे हैं’, ‘ग्लेशियर से’, ‘उर्फ़ सैम’, ‘शहर के नाम’,’समागम’, ‘मेरे देश की मिट्टी अहा’, ‘संगति-विसंगति’, ‘जूते का जोड़ गोभी का तोड़’, ‘एक और अजनबी’, ‘जादू का कालीन’, ‘तीन कैदें’, ‘साम दाम दंड भेद’, ‘रंग-ढंग’, ‘चूकते नहीं सवाल’, ‘कृति और कृतिकार’, ‘कुछ अटके कुछ भटके’, ‘कर लेंगे सब हज़म’ ‘तथा खेद नहीं है’ शामिल हैं। लेखिका होने के अलावा वे एक पर्यावरण हितैषी तथा महिलाओं और बच्चों के लिए भी काम करती रही हैं।
उषा प्रियंवदा
हिंदी साहित्य में उषा प्रियंवदा एक ऐसा नाम है, जिनके बिना हिंदी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। अंग्रेज़ी से जुड़ी होने के बावजूद उन्होंने अपनी लेखनी से सदैव हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनकी कहानियों में आम तौर पर आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट, दुख और अकेलापन व्यक्त होता रहा है। यही वजह है कि उनकी कहानियों में नायिकाएं जहां एक तरफ आधुनिकता का प्रबल स्वर बुलंद करती नज़र आती हैं, वहीं दूसरी तरफ विचित्र प्रसंगों के माध्यम से संवेदनाओं की मार्मिक चित्र उकेरती हैं, जिससे उनके गहरे यथार्थबोध का परिचय मिलता है। उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘ज़िंदगी और गुलाब के फूल’, ‘एक कोई दूसरा’, पचपन खंभे’, ‘लाल दीवारें’, ‘रुकोगी नहीं राधिका’, ‘शेष यात्रा’ और ‘अंतर्वंशी’ शामिल हैं।
चित्रा मुद्गल
अपने लेखन में मानवीय संवेदनाओं के साथ नए ज़माने की रफ्तार में फंसी ज़िंदगी की मजबूरियों का चित्रण करनेवाली चित्रा मुद्गल आधुनिक हिंदी साहित्य की बहुचर्चित और सम्माननीय लेखिका हैं। इनकी कृतियों के पात्र आम तौर पर निम्न वर्गीय होते हैं, जो ज़िंदगी के समूचे दायरे के अंदर तक डूब कर अध्ययन करते हुए आगे बढ़ते हैं। विशेष रूप से दलित शोषित वर्ग को इनकी रचनाओं में विशेष स्थान प्राप्त है। उनके अब तक तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह और पाँच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें एक ‘ज़मीन अपनी’, ‘आंवा’, ‘गिलिगडु, भूख’, ‘ज़हर ठहरा हुआ’, ‘लाक्षागृह’, ‘अपनी वापसी’, ‘इस हमाम में’, ‘जिनावर’, ‘लपटें’, ‘जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं’, ‘मामला आगे बढ़ेगा अभी’, ‘केंचुल’ और अदि-अनादि शामिल हैं। वर्ष 2003 में उन्हें, उनके उपन्यास आंवा के लिए व्यास सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है, जो आठ भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं। उन्हें इंग्लैंड का बहुचर्चित इंदु कथा सम्मान के साथ दिल्ली अकादमी का हिंदी साहित्यकार सम्मान पुरस्कार भी मिल चुका है।
ममता कालिया
नाटक, उपन्यास, निबंध, कविता और पत्रकारिता के साथ साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी दखल रखनेवाली ममता कालिया ने अपने जीवनकाल में 200 से अधिक कहानियों की रचना की है। वर्तमान समय में वे इंटरनेशनल हिंदी यूनिवर्सिटी के मैगज़ीन हिंदी की संपादिका हैं। उनकी चर्चित कृतियों में ‘छुटकारा’, ‘एक अदद औरत’, ‘सीट नंबर 6’, ‘उसका यौवन’, ‘जाँच अभी जारी ‘है, ‘प्रतिदिन’, ‘मुखौटा’, ‘निर्मोही’, ‘थियेटर रोड के कौए’, ‘पच्चीस साल की लड़की’, ‘बेघर’, ‘नरक दर नरक’, ‘प्रेम कहानी’, ‘लड़कियाँ’, ‘एक पत्नी के नोट्स’, ‘दौड़’, ‘अँधेरे का ताला’, ‘दुक्खम-सुक्खम’, ‘कल्चर-वल्चर’, ‘सपनों की होम डिलीवरी’, ‘खाँटी घरेलू औरत’, ‘कितने प्रश्न करूँ’, ‘यहाँ रहना मना है’, ‘आप न बदलेंगे’ और ‘कितने शहरों’ में कितनी बार शामिल हैं।
गीतांजलि श्री
लघु कहानीकार और उपन्यासकार गीतांजलि श्री हिंदी साहित्य जगत की जानी मानी लेखिकाओं में से एक हैं। 12 जून 1957 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में पैदा हुई गीतांजलि श्री ने लेखन बहुत देर से शुरू किया, लेकिन बहुत कम समय में उन्होंने वो उपलब्धियाँ हासिल कर ली, जिनके लिए हर लेखक तरसता है। दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेज्यूएशन के बाद इन्होने जेएनयू से इतिहास में एमए और महाराज सयाजी राव यूनिवर्सिटी, वडोदरा से प्रेमचंद और उत्तर भारत के औपनिवेशिक शिक्षित वर्ग, सब्जेक्ट पर रिसर्च किया। गीतांजलि श्री की पहली कहानी बेलपत्र 1987 में ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। अब तक उनके पाँच उपन्यास, ‘माई’, ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘तिरोहित’, ‘खाली जगह’ और ‘रेत समाधि’ और पाँच कहानी संग्रह, ‘अनुगूंज’, ‘वैराग्य’, ‘मार्च’, ‘माँ और साकुरा’ और ‘हाथी यहाँ रहते हैं’ प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें ‘माई’ उपन्यास को जहाँ वर्ष 2001 में क्रॉसवर्ड पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, वहीं वर्ष 2022 में उन्हें उनके पाँचवे उपन्यास ‘रेत समाधि’ के लिए इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। गौरतलब है कि हिंदी साहित्य जगत में इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार जीतनेवाली गीतांजलि श्री पहली हिंदी लेखिका हैं। अपने लेखन में वैचारिक रूप से स्पष्ट और प्रौढ़ अभिव्यक्ति के साथ वह हिंदी साहित्य जगत में अपना एक विशेष स्थान रखती हैं।