‘कांदुर कड़ाही‘ में विभा रानी यानी लेखिका ने अपनी पृष्ठभूमि का आधार कश्मीर और बिहार की दो विस्थापित स्त्रियों की स्मृतियों को बनाया है। एक महिला के जीवन में पाक कला यानी खाना बनाने की कला से जीवन के काफी शुरुआती दौर में नाता जुड़ जाता है। फिर धीरे-धीरे, जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती है, इस कला को ज्यादातर थोपा जाना शुरू कर दिया जाता है। लेकिन कभी इस काम के लिए उन्हें सम्मानित या अच्छे बोल भी नहीं बोले जाते हैं, फिर भले ही आप किसी भी उच्च पद पर पहुंच गई हों। लेखिका इस बात को मुख्य रूप से रेखाँकित करती हैं कि महिलाओं के घरेलू काम को आज भी किसी काम की श्रेणी में नहीं आंका जाता है, जबकि उनकी पूरी जिंदगी पाक कला में ही बीत जाती है। लेखिका के दो किरदार काजल कौल और सरिता मंडल हैं।‘कांदुर कड़ाही‘ में खान-पान के बहाने महिलाओं की निजी जिंदगी से जुड़े ऐसे प्रसंगों को रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है, जिसका सामना हर महिला रोजमर्रा की जिंदगी में करती है। रोचक यह भी है कि दोनों ही महिला किरदार विस्थापित हैं।
इस उपन्यास में लेखिका की यही कोशिश है कि रसोई के काम को जो कि ‘थैंकलेस जॉब’ ही माना जाता है, उसे आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में तो दर्शाया ही जाए, साथ ही समाज की संवेदनाओं पर भी विशेष ध्यान देने की कोशिश है। दिलचस्प यह भी है कि इसकी कहानी आठवें दशक से शुरू होकर वर्ष 2021 से शुरू होती है और फिर इसमें उस दौर के सामाजिक ढांचे की खूबियों और कमियों को तलाशने की कोशिश की है। लेखिका ने किताब में खान-पान के बैकड्रॉप में बिहार, कश्मीर और पूरे देश को उस वक्त के हालात को ऐसे पेश किया है कि आप इससे लगातार रूबरू होते जायेंगे। इस किताब का सबसे रोचक पहलू यह है कि कश्मीर की स्थिति और बिहार की परिस्थिति,अलग-अलग राज्यों के होने के बावजूद क्यों एक-सी है, इस पर भी गहराई से प्रकाश डाला गया है और अंत में जैसा कि लेखिका से इस बारे में किताब के समर्पण में लिखा है कि ‘कांदुर-कड़ाही में तब्दील हर औरत के लिए जिसकी देह और दिल में देश की रूह है और मन में बदलाव का स्वप्न’, वाकई में अपने इन चंद शब्दों में उन्होंने किताब का पूरा भाव प्रस्तुत कर दिया है और यही वजह है कि आप किताब पढ़ने के लिए पूर्ण रूप से प्रेरित होंगी।
पुस्तक : कांदुर कड़ाही
लेखिका : विभा रानी
प्रकाशक : वनिका पब्लिकेशंस
मूल्य : 340/-