आधुनिक महिला की यही विवशता है कि जो नहीं चाहते उसे करने का दबाव उनके जीवन को एकांत कर देता है। उषा प्रियंवदा का पहला उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ की नायिका सुषमा आधुनिक महिलाओं के जीवन के उसी संघर्ष को दिखाती है, जहां वह काबिल होकर भी असहाय है, जहां परिवार की पनाह में भी वो बेसहारा है। कैसे एक स्वावलंबी और आत्मविश्वासी महिला आजाद होकर भी बंद पिंजरे में फंसे पक्षी की तरह फर-फराहट को महसूस करती है, उसे लेखिका उषा प्रियंवदा अपनी लिखावट के जरिए अंदरूनी तौर पर महसूस कराती हैं।
उषा प्रियंवदा की लेखनी की हमेशा से यह खूबी रही है कि उनकी लिखावट में हमेशा से आधुनिकता की झलक रही है, तो वहीं, वे अपने किस्सागोई के साथ पुराने और नए पाठकों को हमेशा सरल और प्रासंगिक लेखनी के जरिए एक ही मंच पर लेकर आती है। यही वजह है कि साल 2009 में प्रकाशित हुई यह किताब आज भी आधुनिक महिला के जीवन में पड़ी हुई हर एक गांठ से आपको बांधकर रखती है कि कैसे प्राध्यापिका के पद पर रहते हुए भी 33 साल की सुषमा मध्यमवर्गीय परिवार की जिम्मेदारी के बोझ के तले अपने प्रेम के भाव को दबाते हुए एकल जीवन निर्वाह करने के लिए मजबूर है। रिटायर पिता और चार छोटे-भाई बहनों की जिम्मेदारी संभालते हुए सुषमा घर की बेटी नहीं बल्कि कमाऊ बिटिया बन गई है। प्रकृति से प्रेम करने वाली सुषमा कॉलेज में अध्यापन से लेकर वार्डन तक की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही है, लेकिन घर में मां के शासन और कड़े रवैये के कारण वह केवल पैसा कमा कर लाने वाली मशीन बन चुकी है, जिसे न हंसने का अधिकार है न ही मोहब्बत करने की इजाजत है। घर के आर्थिक प्रभाव ने सुषमा के जीवन पर इस तरह असर डाला है कि विवाह की इच्छा को अपने मन में दबाए हुए घर से दूर हॉस्टल में रहकर नौकरी करनी पड़ती है। इस बीच उसकी मुलाकात नील से होती है और वह घर बसाने का सपना संजोती है। रीति-रिवाजों और नियमों में बंधी हुई सुषमा प्यार और परिवार में से किसे चुनती है, इसी के ईद-गिर्द ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ की कहानी बुनी गई है। पचपन खंभे और लाल दीवारें सुषमा और नील के प्रेम के गवाह कैसे बनती है? लेखिका ने इसे आजाद महिला के बंधे हुए विचारधारा की सोच के साथ प्रस्तुत किया है। उन्होंने बखूबी इसे बयान किया है कि एक महिला का केवल किसी ऊंचे पद पर कार्य करना उसके आजाद होने का परिचय नहीं है।
सुषमा के जरिए वे बता रही हैं कि अक्सर एक महिला ही दूसरे महिला के जीवन में सवालों का घेरा बना देती है, फिर चाहे वह सुषमा की मां हो या फिर सुषमा के कॉलेज की लड़कियां, जो कि नील और उनके रिश्ते पर तीखा प्रहार करती हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि एक महिला के पैरों में पड़ी हुई सामाजिक और पारिवारिक बेड़ियों की चाबी अक्सर उसी महिला के पास होती है, जो इसकी कैद में गिरफ्त होती है, वही है जो खुद को असल मायने में आधुनिक युग की आजाद महिला बना सकती है। वो खुद के फैसलों के बलबूते खुद के सपनों को उड़ान दे सकती है।
सुषमा के जीवन की यही त्रासदी है कि कॉलेज के ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ उसके बंदिनी जीवन का प्रतीक बन जाते हैं। एक टूटी हुई नाव जिस तरह नदी के किनारे अपनी अस्तित्व की तलाश करते हुए बेजान हो जाती है, ठीक इसी तरह सुषमा का जीवन भी पराजय और निराशा की लड़खड़ाती कश्ती बन चुका है, जो अंधकार मय किनारे से निकल पाने का साहस नहीं जुटा पा रही है। जिसे अंबर से ज्यादा पिंजरे प्यारे लगते हैं, जो अपने मन की आवाज को हर कदम पर अनदेखा करते हुए ठोकर खा रही है। सुषमा की कहानी कई महिलाओं को उनके जीवन संघर्ष की छुअन देता है। वाकई में, शुरू से लेकर अंत यह उपन्यास, परिवार, प्यार और बलिदान में लिपटी हुई संवेदनशील नारी की अधूरी जीवन यात्रा को दिखाता है, जो अंतिम पन्नों के साथ आपको शून्य की मंजिल तक लेकर जाती है।