श्रीलाल शुक्ल हिंदी साहित्य जगत के जाने- माने व्यंग्यकार रहे हैं। साथ ही उनकी कहानियां और रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' और पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पाँव' है। तो आइए पढ़ें उनकी रचनाएं।
कहानी -एक चोर की कहानी
माघ की रात। तालाब का किनारा। सूखता हुआ पानी। सड़ती हुई काई। कोहरे में सब कुछ ढँका हुआ। तालाब के किनारे बबूल, नीम, आम और जामुन के कई छोटे-बड़े पेड़ों का बाग। सब सर झुकाए खड़े हुए। पेड़ों के बीच की जमीन कुशकास के फैलाव में ढँकी हुई। उसके पार गन्ने का खेत। उसका आधा गन्ना कटा हुआ। उस पर गन्ने की सूखी पत्तियाँ फैली हुईं। उन पर जमती हुई ओस। कटे हुए गन्ने की ठूँठियाँ उन्हें पत्तियों में ढँकी हुईं। आधे खेत में उगा हुआ गन्ना, जिसकी फुनगी पर सफेद फूल आ गए थे, क्योंकि वह पुराना हो रहा था।
रात के दो बजे। पास की अमराइयों में चिडि़यों ने पंख फटकारे। कोई चमगादड़ ''कैं कैं'' करता रहा। एक लोमड़ी दूर की झाडि़यों में खाँसती रही। पर रात के सन्नाटे के अजगर ने अपनी बर्फीली साँस की एक फुफकार से इन सब ध्वनियों को अपने पेट में डाल लिया और रह-रहकर फुफकारता रहा।
तभी, जैसे गन्ने के सुनसान घने खेत से अकस्मात बनैले सुअरों का कोई झुंड बाहर निकल आए, बड़े जोर का शोर मचा, ''चोर! चोSSSर। चोSSSर!"
गाँव की ओर से लगभग पच्चीस आवाजें हवा में गूँज रही थीं :
''चोर! चोर! चोSSSर। चोSSSर!"
''चारों ओर से घेर लो। जाने न पाए।''
''ठाकुर बाबा के बाग की तरफ गया है…''
''भगंती के खेत की तरफ देखना।''
''हाँ, हाँ गन्ने वाला खेत....।''
''चोSSSर। चोSSSर!"
देखते-देखते गाँव वाले ठाकुर के बाग में पहुँच गए। चारों ओर से उन्होंने बाग को और उससे मिले हुए गन्ने के खेत को घेर लिया। लायटेनों की रोशनी में एक-एक झाड़ी की तलाशी ली जाने लगी। सब बोल रहे थे। कोई भी सुन नहीं रहा था।
तभी एक आदमी ने टॉर्च की रोशनी फेंकनी शुरू की। भगंती के खेत में उसने कुछ गन्नों को हिलते देखा। फिर वह धीरे-धीरे खेत के किनारे तक गया। दो-तीन कोमल गन्ने जमीन पर झुके पड़े थे। उसी की सीध में कुछ गन्ने ऐसे थे जिन पर से पाले की बूँदें नीचे ढुलक गई थीं। टॉर्च की रोशनी में और पौधों के सामने ये कुछ अधिक हरे दिख रहे थे।
टॉर्च की रोशनी को खेत की गहराइयों में फेंकते हुए उस आदमी ने चिल्लाकर कहा, ''होशियार भाइयो, होशियार! चोर इसी खेत में छिपा है। चारों ओर से इसे घेर लो। जाने न पाए!"
फिर शोर मचा और लोगों ने खेत को चारों ओर से घेर लिया। उस आदमी ने मुँह पर दोनों हाथ लगाकर जोर-से कहा, ''खेत में छिपे रहने से कुछ नहीं होगा। बाहर आ जाओ, नहीं तो गोली मार दी जाएगी।''
वह बार-बार इसी बात को कई प्रकार से आतंक-भरी आवाज में कहता रहा। भीड़ में खड़े एक अधबैसू किसान ने अपने पास वाले साथी से कहा, ''नरैना है बड़ा चाईं। कलकत्ता कमाकर जब से लौटा है, बड़ा हुसियार हो गया है।''
उसके साथी ने कहा, ''बड़े-बड़े साहबों से रफ्त-जब्त रखता है। कलकत्ते में इसके ठाठ हैं। मैं तो देख आया हूँ। लड़का समझदार है।''
''जान कैसे लिया कि चोर खेत में है?"
तभी किसी ने कहा, ''यह चोट्टा खेत से नहीं निकलता तो आग लगा दो खेत में। तभी बाहर जाएगा।''
इस प्रस्ताव के समर्थन में कई लोग एक साथ बोलने लगे। किसी ने इसी बीच में दियासलाई भी निकाल ली।
भगंती ने आकर नरायन उर्फ नरैना से हाथ जोड़कर कहा, ''हे नरायन भैया, एक चोर के पीछे हमारा गन्ना न जलवाओ। सैकड़ों का नुकसान हो जाएगा। कोई और तरकीब निकालो।''
नरायन ने कहा, ''देखते जाओ भगंती काका, खेत का गन्ना जलेगा नहीं, पर कहा यही जाएगा।''
उसने तेजी से चारों ओर घूमकर कुछ लोगों से बातें कीं और खेत के आधे हिस्से में गन्ने की जो सूखी पत्तियाँ पड़ी थीं। उनके छोटे-छोटे ढरों में आग लगा दी। बहुत-से लोग आग तापने के लिए और भी नजदीक सिमट आए। सब तरह का शोर मचता रहा।
खेत के बीच में गन्ने के कुछ पेड़ हिल। नरायन ने उत्साह से कहा, ''शाबाश! इसी तरह चले आओ।''
पास खड़े हुए भगंती से उसने कहा, ''चोर आ रहा है। दस-पन्द्रह आदमियों को इधर बुला लो।''
चारों ओर से उठने वाली आवाजें शांत हो गईं। लोगों ने गर्दन उठा-उठाकर खेत के बीच में ताकना शुरू कर दिया।
चोर के निकलने का पता लोगों को तब चला जब वह नरायन के पास खड़ा हो गया।
सहसा चोर को अपने पैरों से लिपटा हुआ देख वह उछलकर पीछे खड़ा हो गया जैसे साँप छू लिया हो। एक बार फिर शोर मचा, ''चोर! चोSSSर!"
चोर घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा।
न जाने आसपास खड़े लोगों को क्या हुआ कि तीन-चार आदमी उछलकर चोर के पास गए और उसे लातों-मुक्कों से मारना शुरू कर दिया। पर उसे ज्यादा मार नहीं खानी पड़ी। मारने वालों के साथ ही नरायन भी उसके पास पहुँच गया। उनको इधर-उधर ढकेलकर वह चोर के पास खड़ा हो गया और बोला, ''भाई लोगो, यह बात बेजा है। हमने वादा किया है कि मारपीट नहीं होगी, यह शरनागत है। इसे मारा न जाएगा।''
एक बुड्ढे ने दूर से कहा, ''चोट्टे को मारा न जाएगा तो क्या पूजा जाएगा।''
पर नरायन ने कहा, ''अब चाहे जो हो, इसे पुलिस के हाथों में देकर अपना काम पूरा हो जाएगा। मारपीट से कोई मतलब नहीं।''
लोग चारों ओर से चोर के पास सिमट आए थे। नरायन ने टॉर्च की रोशनी उस पर फेंकते हुए पूछा, ''क्यों जी, माल कहाँ है?"
पर उसकी निगाह चोर के शरीर पर अटकी रही। चोर लगभग पाँच फुट ऊँचा, दुबला-पतला आदमी था। नंगे पैर, कमर से घुटनों तक एक मैला-सा अँगोछा बाँधे हुए। जिस्म पर एक पुरानी खाकी कमीज थी। कानों पर एक मटमैले कपड़े का टुकड़ा बँधा था। उमर लगभग पचास साल होगी। दाढ़ी बढ़ रही थी। बाल सफेद हो चले थे। जाड़े के मारे वह काँप रहा था और दाँत बज रहे थे। उसका मुँह चौकोर-सा था। आँखों के पास झुर्रियाँ पड़ी थीं। दाँत मजबू थे। मुँह को वह कुछ इस प्रकार खोले हुए था कि लगता था कि मुस्कुरा रहा है।
उसे कुछ जवाब ने देते देख कुछ लोग उसे फिर मारने को बढ़े पर नरायन ने उन्हें रोक लिया। उसने अपना सवाल दोहराया, ''माल कहाँ है?"
लगा कि उसके चेहरे की मुस्कान बढ़ गई है। उसने हाथ जोड़कर खेत की ओर इशारा किया। इस बार नरायन को गुस्सा आ गया। अपनी टॉर्च उसकी पीठ पर पटककर उसने डाँटकर कहा, ''माल ले आओ।''
दो आदमी लालटेनें लिए हुए चोर के साथ खेत के अंदर घुसे। पाले और ईख की नुकीली पत्तियों की चोट पर बार-बार वे चोर को गाली देते रहे। थोड़ी देर बाद जब वे बाहर आए तो चोर के हाथ में एक मटमैली पोटली थी। पोटली लाकर उसने नरायन के पैरों के पास रख दी।
नरायन ने कहा, ''खोलो इसे। क्या-क्या चुरा रक्खा है?"
उसने धीरे-धीरे थके हाथों से पोटली खोली। उसमें एक पुरानी गीली धोती, लगभग दो सेर चने और एक पीतल का लोटा था। भीड़ में एक आदमी ने सामने आकर चोर की पीठ पर लात मारी। कुछ गालियाँ दीं और कहा, ''यह सब मेरा माल है।''
लोग चारों ओर से चोर के ऊपर झुक आए थे। वह नरायन के पैरों के पास चने, लोटे और धोती को लिए सर झुकाए बैठा था। सर्दी के मारे उसके दाँत किटकिटा रहे थे और हाथ हिल रहे थे। नरायन ने कहा, ''इसे इसी धोती में बाँध लो और शाने ले चलो।''
दो-तीन लोगों ने चोर की कमर धोती से बाँध ली और उसका दूसरा सिरा पकड़कर चलने को तैयार हो गए।
चोर के खड़े होते ही किसी ने उसके मुँह पर तमाचा मारा और गालियाँ देते हुए कहा, ''अपना पता बता वरना जान ले ली जाएगी।''
चोर जमीन पर सर लटकाकर बैठ गया। कुछ नहीं बोला। तब नरायन ने कहा, ''क्यों उसके पीछे पड़े हो भाइयो! चोर भी आदमी ही है। इसे थाने लिए चलते हैं। वहाँ सब कुछ बता देगा।''
किसी ने पीछे से कहा, ''चोर-चोर मौसेरे भाई।''
नरायन ने घूमकर कहा, ''क्यों जी, मैं भी चोर हूँ? यह किसकी शामत आई!"
दो-एक लोग हँसने लगे। बात आई-गई हो गई।
वे गाँव के पास आ गए। तब रात के चार बज रहे थे। चोर की कमर धोती से बाँधकर, उसका एक छोर पकड़कर दीना चौकीदार थाने चला। साथ में नरायन और गाँव के दो और आदमी भी चले।
चारों में पहले वाला बुड्ढा किसान रास्ता काटने के लिए कहानियाँ सुनाता जा रहा था, ''तो जुधिष्ठिर ने कहा कि बामन ने हमारे राज में सोने की थाली चुराई है। उसे क्या दंड दिया जाए? तो बिदुर बोले कि महाराज, बामन को दंड नहीं दिया जाता। तो राजा बोले कि इसने चोरी की है तो दंड तो देना ही पड़ेगा। तब बिदुर ने कहा कि महाराज, इसे राजा बलि के पास इंसाफ के लिए भेज दो। जब राजा बलि ने बामन को देखा तो उसे आसन पर बैठाला।...''
चौकीदार ने बात काटकर कहा, ''चोर को आसन पर बैठाला? यह कैसे?"
बुड्ढा बोला, ''क्या चोर, क्या साह! आदमी आदमी की बात! राजा ने उसे आसन दिया और पूरा हाल पूछा। पूछा कि आपने चोरी क्यों की तो बामन बोला कि चोरी पेट की खातिर की।''
चौकीदार ने पूछा, ''तब?"
''तब क्या?" बुड्ढा बोला, ''राजा बलि ने कहा कि राजा युधिष्ठिर को चाहिए कि वे खुद दंड लें। बामन को दंड नहीं होगा। जिस राजा के राज में पेट की खातिर चोरी करनी पड़े वह राजा दो कौड़ी का है। उसे दंड मिलना चाहिए। राजा बलि ने उठकर...।''
चौकीदार जी खोलकर हँसा। बोला, ''वाह रे बाबा, क्या इंसाफ बताया है राजा बलि का। राजा विकरमाजीत को मात कर दिया।''
वे हँसते हुए चलते रहे। चोर भी अपनी पोटली को दबाए पँजों के बल उचकता-सा आगे बढ़ता गया।
पूरब की ओर घने काले बादलों के बीच से रोशनी का कुछ-कुछ आभास फूटा। चौकीदार ने धोती का छोर नरायन को देते हुए कहा, ''तुम लोग यहीं महुवे के नीचे रूक जाओ। मैं दिशा मैदान से फारिग हो लूँ।''
साथ के दोनों आदमी भी बोल उठे। बुड्ढे ने कहा, ''ठीक तो है नरायन भैया, यहीं तुम इसे पकड़े बैठे रहो। हम लोग भी निबट आवें।''
वे चले गए। नरायन थोड़ी देर चोर के साथ महुवे के नीचे बैठा रहा। फिर अचानक बोला, ''क्यों जी, मुझे पहचानते हो?"
दया की भीख-सी माँगते हुए चोर ने उसकी ओर देखा। कुछ कहा नहीं। नरायन ने फिर धीरे-से कहा, ''हम सचमुच मौसेरे भाई हैं।''
इस बार चोर ने नरायन की ओर देखा। देखता रहा। पर इस सूचना पर नरायन जिस आश्चर्य-भरी निगाह की उम्मीद कर रहा था, वह उसे नहीं मिली। बढ़ी हुई दाढ़ी वाला एक दुबला-पतला चौकोर चेहरा उससे दया की भीख माँग रहा था। नरायन ने धीरे-से रूक-रूककर कहा, ''कलकत्ते के शाह मकसूद का नाम सुना है? उन्हीं के गोल का हूँ।''
जैसे किसी को किसी अनजाने जाल में फँसाया जा रहा हो, चोर ने उसी तरह बिंधी हुई निगाह से उसे फिर देखा। नरायन ने फिर कहा, ''कलकत्ते के बड़े-बड़े सेठ मेरे नाम से थर्राते हैं। मेरी शक्ल देखकर तिजोरियों के ताले खुल जाते हैं, रोशनदान टूट जाते हैं।''
वह कुछ और कहता। लगातार बात करने का लालच उसकी रग-रग में समा गया था। अपनी तारीफ में वह बहुत कुछ कहता। पर चोर की आँखों में न आनंद झलका, न स्नेह दिखाई दिया। न उसकी आँखों में प्रशंसा की किरण फूटी, न उनमें आतंक की छाया पड़ी। वह चुपचाप नरायन की ओर देखता रहा।
सहसा नरायन ने गुस्से में भरकर उसकी देह को बड़े जोर-से झकझोरा और जल्दी-जल्दी कहना शुरू किया, ''सुन बे, चोरों की बेइज्जती न करा। चोरी ही करनी है तो आदमियों जैसी चोरी कर। कुत्ते, बिल्ली, बंदरों की तरह रोटी का एक-एक टुकड़ा मत चुरा। सुन रहा है बे?"
मालूम पड़ा कि वह सुन रहा है। उसकी चेहरे पर हैरानी का चढ़ाव-उतार दीख पड़ने लगा था। नरायन ने कहा, ''यह सेर-आध सेर चने और यह लोटा चुराते हुए तुझे शर्म भी नहीं आई? यही करना है तो कलकत्ते क्यों नहीं आता?"
न जाने क्यों, चोर की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसके होंठ इतना फैल गए थे कि लग रहा था, वह हँस पड़ेगा। पर आँसू बहते ही जा रहे थे। वह अपने पेट पर दोनों हाथों से मुक्के मारने लगा। आँसुओं का वेग और बढ़ गया।
नरायन ने बात करनी बंद कर दी। कुछ देर रूककर कहा, ''भाग जो। कोई कुछ न कहेगा। जब तू दूर निकल जाएगा तभी मैं शोर मचाऊँगा।"
जब इस पर भी चोर ने कुछ जवाब न दिया तो उसे आश्चर्य हुआ। फिर कुछ रूककर उसने कहा, ''बहरा है क्या बे?"
फिर भी चोर ने कुछ नहीं कहा।
नरायन ने उसे बाँधने वाली धोती का छोर उसकी ओर फेंका, उसे ढकेलकर दूर किया और हाथ से उसे भाग जाने का इशारा किया। पर चोर भागा नहीं। थका-सा जमीन पर औंधे मुँह पड़ा रहा।
इतने में दूसरे लोग आते हुए दिखाई पड़े। नरायन ने गंभीरतापूर्वक उठकर चोर को जकउ़ने वाली धोती पकड़ ली। उसे हिला-डुलाकर खड़ा कर दिया। एक-एक करके वे सब लोग आ गए।
सवेरा होते-होते वे थाने पहुँच गए। थाना मुंशी ने देखते ही कहा, ''सबेरे-सबेरे किस का मुँह देखा!"
पर मुँह देखते ही वह फिर बोला, ''अजब जानवर है! चेहरा तो देखो, लगता है हँस पड़ेगा।''
दिन के उजाले में सबने देखा कि उसका चेहरा सचमुच ऐसा ही है। छोटी-छोटी सूजी हुई आँखों और बढ़ी हुई दाढ़ी के बावजूद चौकोर चेहरे मे फैल हुआ मुँह, लगता था, हँसने ही वाला है।
थाना मुंशी ने पूछा, ''क्या नाम है?"
चोर ने पहले की तरह हाथ जोड़ दिए। तब उसने उसके मुँह पर दो तमाचे मारकर अपना सवाल दोहराया। चोर का मुँह कुछ और फैल गया। उसने-दो-चार तमाचे फिर मारे।
इस बार उसकी चीख से सब चौंक पड़े। मुँह जितना फैल सकता था, उतना फैलाकर चोर बड़ी जोर-से रोया। लगा, कोई सियार अकेले में चाँद की ओर देखकर बड़ी जोर-से चीख उठा है।
मुंशी ने उदासीन भाव से पूछा, ''माल कहाँ है?"
नरायन ने चने, लोटे और धोती को दिखाकर कहा, ''यह है।''
न जाने क्यों सब थके-थके से, चुपचार खड़ रहे। चोर अब सिसक रहा था। सहसा एक सिपाही ने अपनी कोठरी से निकलकर कहा, ''मुंशी जी, यह तो पाँच बार का सजायाफ्ता है। इसके लिए न जेल में जगह है, न बाहर। घूम-फिरकर फिर यहीं आ जाता है।''
मुंशी ने कहा, ''कुछ अधपगला-सा है क्या?"
सिपाही ने मुंशी के सवाल का जवाब स्वीकार में सिर हिलाकर दिया। फिर पास आकर चोर की पीठ थपथपाते हुए कहा, ''क्यों गूँगे, फिर आ गए। कितने दिन के लिए जाओगे छह महीने कि साल-भर?"
चोर सिसर रहा था, पर उसकी आँखों में भय, विस्मय और जड़ता के भाव समाप्त हो चले थे। सिपाही की ओर वह बार-बार हाथ जोड़कर झुकने लगा, जैसे पुराना परिचित हो।
चौकीदार ने साथ के बुड्ढे को कुहनी से हिलाकर कहा, ''साल-भर को जा रहा है। समझ गए बलि महाराज?"
पर कोई भी नहीं हँसा।
व्यंग्य-साहब का बाबा
चपरासी ने अदब से परदा उठा कर गोल कमरे में मेरा प्रवेश करा दिया। मैं सोफे पर बैठ गया तो उस कमरे में पहुँचाने के एहसान का बदला पाने की गरज से बड़ी मित्रता-सी दिखाते हुए उसने पूछा, 'बिजली के छोटे इंजीनियर हो कर आए हैं न आप?'
मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और गंभीर बनने की कोशिश की। पर उसकी निराधार मित्रता को जैसे आधार मिलने वाला हो। उसने फिर पूछा, 'बर्टी साहब की जगह आए हैं न?'
मैंने गंभीरता से कहा, 'हाँ।'
उसने फिर प्रेम से पूछा, 'आप तो बाँभन है न?'
डरते हुए, कि कहीं वह पैर न छू ले... मैंने स्वीकार में सिर हिलाया और नाक सिकोड़ कर प्रश्न के अनौचित्य पर प्रकाश डाला।
पर चपरासी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। अदम्य आत्मीयता से उसने कहा, 'बर्टी की जगह आप आ गए, अच्छा हुआ। बड़ा बदमाश था। सब परेशान थे।'
विषय बड़ा आकर्षक था, फिर भी चीफ के अर्दली से इस पर बात चलाई जाए या नहीं, इसी संदेह में कोई उत्तर न दे सका। धीरे से मुसकरा कर फिर गंभीर हो गया।
चपरासी को जैसे मेरी थाह मिल गई। धीरे से, जैसे कोई घर का आदमी हो, उसने कहा, 'आप बैठें, मैं साहब को इत्तिला दे आऊँ।'
वह चला गया। फिर नहीं लौटा। मैं चुपचाप गोल कमरे में बैठा रहा।
गोल कमरा चौकोर था और सुरुचिपूर्वक सजाया गया था। किसी सौ-सवा-सौ रुपया महीना पाने वाली सुरुचि ने, यानी किसी विभागीय डिजाइनर ने समझदारी से बड़े-बड़े किताबी करिश्मे दिखाए थे। मैं एक संगमरमरी क्यूपिड - कामदेव से ले कर मिट्टी के बुद्ध तक अपनी निगाह नचाता रहा। एक साथ श्रृंगार और शांत रस में निमज्जित होता रहा।
इसी बीच दरवाजे पर आहट हुई। मैंने उठना चाहा, पर उठते-उठते बैठ गया।
लगभग सात-आठ साल का एक लड़का मेरे सामने खड़ा था। गोरा, स्वस्थ, बनियान और हाफ पैंट पहने हुए। बाल मत्थे तक फैले हुए। 'घुँघराली लटैं लटकैं मुख ऊपर...' आदि-आदि वाला मजमून। मन में वात्सल्य भाव उमड़ा मैंने मुस्कराकर कहा, 'हलो।'
वह हँस कर मेरे घुटने के पास आ कर खड़ा हो गया। बोला, 'हलो।' मैंने प्यार से उसका सिर सहलाया। पूछा 'बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?'
उसने कहा, 'नहीं बताते।'
वह मेरी गोद पर चढ़ आया। जैसे वह कोई कुर्सी हो। उसका मुलायम शरीर कुछ देर तक बड़ा भला लगा। वह मेरी जाँघों पर खड़ा हो गया, हाथ से मेरे बाल पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए बोला, 'क्यों नहीं बताते? अपना नाम बताओ?'
अब इस हालत में नाम बताते हुए मुझे सचमुच झेंप लगी। मैंने उसके हाथ से अपने बाल छुड़ाए। बाल बिगड़ जाने पर मन-ही-मन उसे कोसते हुए, नीचे खड़ा कर दिया। फिर, अपने बड़े होने का अनुभव होते ही, यह सर्वकालीन नसीहत दी, 'अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते।'
अब वह बड़ी तीव्रता से दाँत पीसता हुआ मेरी गोद में चढ़ने को दौड़ा और चीखने लगा, 'अच्छे बच्चे? अच्छे बच्चे? नाम बताओ अपना नाम बताओ।'
मुझे डर लगा कि लोग यह न समझे कि मैं उसकी हत्या कर रहा हूँ। अत: चाकर सुलभ सरलता से मैंने कहा, 'मेरा नाम गोपाल है।'
उसने मेरी टाई अपनी ओर खींच कर आनंद से कहा, 'अरे वाह रे गुपल्लू! गुपल्लू! गुपल्लू!'
यह कहने में उसने जैसा मुँह बनाया उसी से मैंने निश्चय किया कि बच्चों को ठीक रखने के लिए छड़ी का महत्व अभी भली-भाँति समझा नहीं गया है।
पर मेरी टाई बिगाड़ कर वह कुछ शांत हो गया। प्रेम से बोला, 'मेरा नाम लीलू है।'
मैंने कहा, 'वेरी गुड।'
वह फिर बोला, 'दीदी का नाम जानते हो?'
मैंने 'नहीं' के लिए सिर हिलाया।
'क्वीनी, उसका यार बोलता है।'
मैंने आश्चर्य से आँखे फैलाई। उसने कहा, 'डैडी का नाम जानते हो?'
मैंने फिर वैसे ही सिर हिलाया। वह बोला, 'भेड़िया; शोफर बोलता है। ...मम्मी का नाम जानते हो?'
मैंने फिर सिर हिलाया तो उसने कहा, 'डार्लिंग। डैडी डार्लिंग बोलते हैं।'
मैं उदास होकर बैठ गया तो उसने कहा, 'वह क्या है।'
मैंने जवाब दिया, 'बुद्धा।'
वह तालियाँ बजाता हुआ उछ्ल पड़ा, बोला, 'बुद्धा नहीं, बुद्धू! बुद्धू! तुम बुद्धू! तुम बुद्धू!'
मेरी हास्यप्रियता का दिवाला बहुत पहले निकल चुका था। मैंने जरा कड़ाई से कहा, 'चुप रहो।'
इस पर वह चीखा, 'चुप रहो नहीं; शटअप, शटअप, शटअप ब्लडीफूल!'
मैंने परेशान हो कर इधर-उधर देखा। तभी यह भी देखा कि बाल और टाई ही नहीं, मेरे कोट और पतलून पर भी उसका असर आ चुका है। वहाँ उसके जूतों के निशान बने हुए हैं। यह मेरी गोद में चढ़ने-उतरने का नतीजा था।
मैं रोया नहीं। धीरे से कहा, 'लीलू, क्या बकते हो?'
वह मुँह मटकाता रहा, 'क्या बकता हूँ? अच्छा।' कुछ देर वह चुप रहा, फिर बोला, 'उस तस्वीर में क्या है?'
'जंगल है।'
'और वह लड़का और लड़की।'
मैंने क्यूपिड की मूर्ति को मन में नमस्कार करके कहा, 'हाँ, वे भी हैं।'
'क्या करते हैं?'
मैं चुप रहा।
'क्या करते हैं?' वह चीखा।
मैंने कहा, 'तुम्हीं बताओ।'
'बताऊँ?' वह कुछ देर चुप रहा। फिर चिल्ला कर बोला, 'किसिंग! किसिंग! बताऊँ?'
मैं कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मुँह से निकला, 'हे भगवान!'
तब उसने आखिरी दाँव लगाया, 'कुत्ते का मुँह काला है, तू हमारा साला है।'
तभी दरवाजे पर एक भूतनी आ कर खड़ी हो गई। यानी, जो आ कर खड़ी हुई तो उसे भूतनी कह कर समझना आसान पड़ेगा। काले शरीर पर सफेद साड़ी फब रही थी। लगता था, पीपल के पेड़ से उतर कर छत पर होती हुई किसी भाँति नीचे आ गई है…।
पर मैं अन्याय कर रहा हूँ। वह मेरी रक्षा करने को आई थी। मैं उसका आदर करता हूँ। आते ही उसने कहा, 'बाबा, बाऽऽ बाऽऽ, अंदर चलो।'
बाबा आनंद से हँसता हुआ अंदर जाने लगा, तभी चीफ ने कमरे में प्रवेश किया। आते ही पूछा, 'बाबा से खेल रहे थे? बड़ा शरारती है... हाँ हँ, हँ।'
वे न जाने क्या-क्या बकते रहे। मैं हारा-सा, पिटा-सा सुनता रहा; सोचता रहा, संसार असार है। कोई किसी का नहीं। कामिनी कंचन का मोह वृथा है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का वचन है कि अनासक्त हो कर रहो, जैसे तुम अपने दफ्तर की संपत्ति को अपनी कह कर भी अपनी नहीं मानते, जैसे तुम्हारी आया तुम्हारे बच्चों को अपना मुन्ना बताते हुए भी उन्हें अपना नहीं जानती...
तभी सहसा विचार आया, जिस बाबा के वचनमात्र ने संसार को असारता समझा दी, और जिस आया के दर्शन मात्र से कामिनी कंचन का मोह छूट गया, उनके साथ निरंतर रहने वाला यह साहब कितना बड़ा परमहंस होगा! साक्षात् बुद्ध!
अस्कमात आदर से फूल कर मैं सोफे पर और भी सिमट आया और साहब के उपदेश को दत्तचित हो कर भंते की भाँति सुनने लगा।