प्रखर का कहना है मां ने साफ़ मना कर दिया है उसके साथ रहने से। मेरे पास भी नहीं रहना चाहतीं। फ़ोन पर पूछो तो कुछ बताती भी नहीं हैं। ऐसा कैसा अजीब निर्णय है कि अपने बच्चों के साथ नहीं रहना? दक्षिणी मुंबई के पॉश एरिया में स्थित अपने घर के गैराज से कार निकालती हुई प्राची ने सोच लिया था कि आज मां से मिलकर ही बात करनी होगी कहीं न कहीं वो इस बात को लेकर दुखी भी थी कि इस बातचीत की वजह से उसका शनिवार यूं ही बेकार निकल जाएगा। ये बात यदि फ़ोन पर हो जाती तो अपने पति नीलेश और बच्चों केया और कार्तिक को यूं छोड़कर जाना नहीं पड़ता उसे। वीकएंड के दो ही दिन तो होते हैं, जब वे चारों साथ रहते हैं। उनमें से एक दिन मां के पास जाने में निकल जाएगा। वो तीनों तो साथ आना ही नहीं चाहते थे इसलिए अकेली ही जा रही है वो। यदि ये लोग साथ चलते तो मां से बात भी हो जाती और दिन भी साथ बिता पाते वे सब। लेकिन…
सामने अचानक आई कार के चलते अपनी कार की रफ़्तार और कम कर दी प्राची ने। तो क्या सोच रही थी कि वो चारों समय साथ बिता पाते… पर क्या वाक़ई? छुट्टी के दिन केया हमेशा अपने कमरे में घुसी या तो पढ़ती रहती है, गाने सुनती है या फिर मोबाइल पर बतियाती रहती है। कार्तिक इंटरनेट पर गेम्स खेलता रहता है या उसे अपने दोस्तों के घर जाना होता है या फिर उन्हें अपने घर बुला लेता है। नीलेश सुबह-सुबह अख़बार में डूबे रहते हैं, फिर लैपटॉप लेकर लगे रहते हैं और बाद में टीवी देखते रहते हैं। वो ख़ुद अपनी मेड रमा के साथ किचन में बच्चों और पति की ‘कुछ हटकर’ खाने की फ़रमाइश पूरी करने में लगी रहती है। फिर डस्टिंग, हफ़्तेभर की सब्ज़ी-ग्रॉसरी मंगवाना, टॉयलेट्स ढंग से साफ़ करवाना, घर को व्यवस्थित करना, जैसे कितने चाहे-अनचाहे काम लगे ही रहते हैं। लेकिन चाहे जो हो, एक तसल्ली-सी रहती है कि वे सब साथ-साथ तो हैं। बाक़ी दिन तो हर कोई अपने काम में व्यस्त रहता है। नीलेश और मैं अपने-अपने ऑफ़िस में, केया और कार्तिक अपने-अपने कॉलेज और स्कूल में।
ऐसे में जब मां साथ होती थीं तो कितनी मदद हो जाती थी। किचन का काम उनके ज़िम्मे हो जाता था तो कम से कम मैं निश्चिंत होकर जिम, पार्लर या शॉपिंग जा सकती थी। जब वो होती थीं तो ऑफ़िस से देर से घर आने पर भी कोई फ़िक्र नहीं होती थी। सब चीज़ें आराम से हो जाती थीं। पर अब वो ज़िद ठाने बैठी हैं कि न तो मेरे साथ रहेंगी और न प्रखर के साथ। फिर पापा के बाद उनका है ही कौन? मैं और प्रखर। माना प्रखर की पत्नी राशि के साथ वे तालमेल नहीं बिठा पातीं, पर मां को थोड़ा तो समझना ही चाहिए। वो कामकाजी है, उसे ऑफ़िस से आने में अक्सर देर हो जाती है। मां ख़ुद भी तो कामकाजी रही हैं। उन्हें राशि के देर से आने का कारण समझना चाहिए। फिर कुछ नहीं तो अपनी पोतियों मीरा और मायरा के बारे में ही सोचें। स्कूल से आने के बाद वो दोनों नैनी के साथ रहती हैं। मेरे साथ न रहने का कारण मेरा बेटी होना बता भी दें तो प्रखर के घर न रहने का तो कोई कारण नहीं होना चाहिए?
कह भी रहा था प्रखर कि उसने और राशि ने बहुत समझाया कि मुंबई जैसे शहर में अकेले रहना सुरक्षित भी नहीं है। आये दिन बुज़ुर्गों की हत्याओं और लूटपाट की ख़बरें आती रहती हैं। फिर यदि मैं और प्रखर कहीं दूर, दूसरे शहर या देश में रहते तो बात अलग थी। अब सारे रिश्तेदार तो यही कहेंगे ना कि मैं और प्रखर एक शहर में रहते हुए भी पापा के बाद अपनी मां को अपने साथ नहीं रख पाए? मैं दक्षिण मुबंई में हूं, क्योंकि यहां से मेरा और नीलेश का ऑफ़िस पास पड़ता है। प्रखर और राशि नवी मुंबई में रहते हैं, क्योंकि उन दोनों को वहां से अपना ऑफ़िस पास पड़ता है और मां-पापा मीरा रोड में अपने घर में रहा करते थे। जब तक पापा थे महीने में एक बार हम सब वहीं मिल लिया करते थे। पापा के बाद भी लगभग डेढ़ बरस की नौकरी बची थी मां की। जब तक मां रिटायर नहीं हुईं हमने उन्हें अपने पास रखने के लिए दबाव नहीं बनाया, क्योंकि बोरीवली का उनका ऑफ़िस मीरा रोड से पास पड़ता था। हमने सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद तो वो हमारे साथ ही रहेंगी। कुछ दिन प्रखर के यहां तो कुछ दिन मेरे यहां। हुआ भी था ऐसा कि वो कुछ दिन मेरे यहां रहने के बाद प्रखर के यहां चली गई थीं। फिर वहां से ये कहकर वापस मीरा रोड वाले घर निकल गईं कि उस घर की साफ़-सफ़ाई करवानी है और पांच-सात दिन रहकर फिर मेरे पास चली आएंगी। अब मैं बुला रही हूं तो भी नहीं आ रहीं और प्रखर के पास भी नहीं जा रहीं। फ़ोन पर मुझे कहती हैं, तुम यहां आओगी तो बात करेंगे और प्रखर से तो साफ़ कह दिया है कि मैं अब तुम्हारे पापा के इसी घर में रहना चाहती हूं। कभी-कभी मिलने दो-चार रोज़ रहने तो आ जाऊंगी, लेकिन मेरा बेस यही घर रहेगा। जब से प्रखर ने ये बताया है, मैंने चार-पांच बार फ़ोन पर बात की।
लेकिन हर बार वही जवाब कि तू समय निकालकर यहां आ। तब मैं बात करूंगी तुझसे। इतना कुछ सोचते-सोचते बांद्रा तक आ पहुंची थी वह। तभी मोबाइल बज उठा। उसने हैंड्स फ्री ऑन किया। केया थी,‘‘मां शाम तक आ जाएंगी न आप?’’
‘‘उठ गईं तुम? आ जाऊंगी, पर पूछ क्यों रही हो?’
’‘‘मां प्रीति और रोनिटा को घर पर बुलाया था शाम को
कंबाइन स्टडी के लिए। रात को वो हमारे घर ही रुकेंगी। ‘‘पहले तो नहीं बताया था तुमने। कितनी बार कहा है, ऐसे प्रोग्राम्स के बारे में पहले से बताया करो। ’’
‘‘आपने भी तो नहीं बताया था कि आप यूं सुबह-सुबह नानी के पास चली जाएंगी। ’’
‘‘क्यों, परसों ही तो कहा था कि सेटरडे को नानी के पास जाऊंगी। ’’
‘‘मुझे लगा दोपहर तक जाएंगी तो सुबह बता दूंगी। तो क्या अब मना कर दूं उन्हें?’’
‘‘नहीं रहने दो। मैं शाम तक आ ही जाऊंगी। हां रमा जब आए तो मुझसे बात करा देना। उसे कुछ और इंस्ट्रक्शन्स देने होंगे मुझे। ’’
‘‘थैंक्यू मां ! बाय
’’कुछ अलग मेनू बताया था रमा को अब कुछ चीज़ें बदलनी पड़ेंगी और कुछ की क्वान्टिटी बढ़वानी होगी और एकाध सब्ज़ी एक्स्ट्रा बनवानी होगी। प्राची का दिमाग़ मेनू तय करने में लग गया। अभी वो तय हो ही नहीं पाया था कि दोबारा मोबाइल बजा। अबकि कार्तिक था।
‘‘क्या मॉम। आप सुबह-सुबह कहां चली गईं?’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘आज मुझे रोहन और आदित्य के यहां जाना है। सोचा था आप से पूछ के चला जाऊंगा। ’’
‘‘तो पापा से पूछ लो। ’’
‘‘मम्मा, प्लीज़ आप उन्हें बता दीजिए ना। वो मुझे फिर पढ़ने को लेकर कुछ न कुछ कहेंगे और मूड ऑफ़ हो जाएगा मेरा। ’’
‘‘थोड़ी-सी बात भी नहीं सुन सकते पापा की?’’
‘‘मॉम आइंस्टाइन नहीं बनना है मुझे। और मैं पढ़ने में ठीक ही तो हूं, पर पापा को कुछ न कुछ कहना ही होता है। कभी इंटरनेट पर चिपके रहने के बारे में, कभी फ़ुटबाल के बारे में और कभी दोस्तों के घर जाने के बारे में। प्लीज़ मां आप ही दे दो न परमिशन। आपके आने से पहले पक्का लौट आऊंगा। ’’
‘‘ओके बाबा। ’’
‘‘और मां आज शाम खाने में मेरे लिए पास्ता बनवाइए ना। रखूं अब। बाय। ’’
‘‘ठीक है। बाय’’
घर से बाहर निकलो तो भी घर की टेंशन। अब शाम के खाने के मेनू में पास्ता भी जुड़ जाएगा। बाहर रहकर भी घर के कामों से कोई छुटकारा नहीं मिलता। जब दिमाग़ में खाने का मेनू बन गया तो कुछ राहत की लंबी सांस ली प्राची ने। अंधेरी तक आ पहुंची थी। फिर मां के पास जाने के कारण से जुड़ी बातें घुमड़ने लगीं। घर के वैसे ही कितने काम रहते हैं, कभी न ख़त्म होनेवाले और मां भी ना! क्या होता यदि फ़ोन पर ही कारण बता देतीं या बात करने राज़ी हो जातीं? उसकी सोच को विराम लगाता फिर मोबाइल घनघना उठा। अब नीलेश थे।
‘‘क्या यार, तुम सुबह-सुबह निकल गईं। सेटरडे को सुबह-सुबह ख़ुद ही चाय बनानी पड़ेगी। ’’
‘‘अरे यार, अपना घर और घर के लोग जितने इम्पॉर्टेंट हैं मेरे लिए, मेरी मां भी तो हैं ना! फिर एक ही सेटरडे तो ऐसा जा रहा है कि तुम्हें ख़ुद चाय बनानी है। बना लो। ’’
‘‘लो, मैं तुम्हें मिस कर रहा हूं और। । । ’’
‘‘मुझे नहीं, चाय को मिस कर रहे हो। ’’
‘‘अरे, नहीं भई! अच्छा ये तो बता दो ब्रेकफ़ास्ट में कुछ बना गई हो या नहीं?’’
‘‘नहीं। ब्रेड और मक्खन टेबल पर रखा है। टोस्टर में सेंक कर खा लो और हां, बच्चों के लिए भी बना देना, प्लीज़। ’’
‘‘लो, पांच दिन ऑफ़िस में सड़ो और वीकएंड पर नाश्ता बनाओ। ’’
‘‘एक बार करना पड़ रहा है तो बुरा लग रहा है ना? मेरा तो हर वीक ऐसा ही जाता है। पांच दिन ऑफ़िस में सड़ो और दो दिन में घर पर इस तरह काम करो कि तुम सब की फ़रमाइशें भी पूरी हों और अगले पांच दिनों का राशन-पानी, सब्ज़ी-भाजी भी भरा हुआ हो, ताकि पांच दिन फिर ऑफ़िस में सड़ सको। मैं तो किसी दिन आराम के बारे में सोच भी नहीं सकती। ’’
‘‘अब ये पुराण बांचना बंद करो यार। मैं संभाल लूंगा आज। पर जब तुम आओगी, शायद मैं घर पर नहीं मिलूंगा। वैसे तुम आओगी कब तक?’’
‘‘कहां जा रहे हो तुम? मैं सोच रही थी लौटते हुए थोड़ा शॉपिंग का काम ख़त्म कर लूंगी विनीता के साथ मिलकर। ’’
‘‘नहीं, नहीं आज मुझे साहिल ने बुलाया है, हम दोनों बैडमिंटन खेलने जानेवाले हैं। ’’
‘‘पर तुमने पहले तो नहीं बताया था। ’’
‘‘अभी सुबह-सुबह ही तो आया ना उसका फ़ोन। ’’
‘‘लेकिन मैं तो तुम्हें पहले ही बता चुकी थी ना कि मैं और विनीता ऐसा प्लान कर रहे हैं। तो तुम मना कर देते। ’’
‘‘अरे, तुम फिर कभी चली जाना शॉपिंग के लिए, ऑफ़िस के बाद। और बताओ तो कब तक आओगी?’’
‘‘कोशिश करूंगी पांच बजे तक लौट आऊं,’’ ये बोलते-बोलते उसे खीझ हो आई।
‘‘ओके, ऐंड ड्राइव सेफ़। बाय,’’ नीलेश ने फ़ोन रख दिया।
ड्राइव सेफ़, ऐसा साउंड करता है ना जैसे कितने केयरिंग हैं नीलेश! केयरिंग हैं, लेकिन ये केयर कभी मेरे प्लान्स को वैसा ही रहने देने में क्यो नहीं झलकती? सब के हिसाब से उसे अपने प्लान बदलना पड़ता है। कभी मां, कभी नीलेश, कभी केया-कार्तिकेय, कभी मेड और कभी बॉस। सारे एड्जस्टमेंट्स उसके पल्ले आ पड़े हैं।
हालांकि सच पूछो तो किसी ने ऐसा करने को कहा तो नहीं है, पर हम महिलाएं ज़िम्मेदारी की ये चादर पता नहीं ख़ुद ब ख़ुद क्यों ओढ़ लेती हैं? शायद ये हज़ारों सालों की कंडिशनिंग का नतीजा है, जिससे मेरे जैसी एजुकेटेड महिला भी नहीं निकल सकी है। उसका ग़ुस्सा अब ख़ुद पर ही फट पड़ा था। ख़ुद को शांत करने के लिए चार-पांच लंबी-लंबी सांसें लीं उसने। चलो अब विनीता को फ़ोन कर के मना कर दूं कि आज नहीं जा पाएंगे। उसने विनीता को फ़ोन लगाया और शॉपिंग का कार्यक्रम रद्द कर दिया। और कुछ करूं न करूं मां के घर के पासवाले पार्लर ज़रूर चली जाऊंगी। वरना कल तो इस काम के लिए समय मिलने से रहा।‘‘रेखा, ये बच्चे हमेशा कहते रहते हैं कि हमारे पास आ के रहो, हमारे साथ रहो। उनके साथ रहने में अच्छा भी लगता है, लेकिन बंधन-सा लगने लगता है कभी-कभी,’’ नमिता सोफ़े पर बैठी-बैठी अपनी सहेली से बोलीं। ‘‘मैं समझती हूं नमिता, इसीलिए तो अपने बेटे-बहू के पास मैं भी लंबे समय तक नहीं रह पाती। धीरे-धीरे अनजाने में ही उन्हें हमसे उस तरह की अपेक्षाएं होने लगती हैं, जैसा हम तब किया करते थे, जब हम यंग थे। वो इस सच को स्वीकार ही नहीं पाते कि रोज़ की तरह सुबह उठकर यदि हम बाहर नहीं निकले, पेपर नहीं उठाया या दूध के पैकेट्स उठाकर अंदर नहीं रखे तो हो सकता है आज हमारे घुटने ज़्यादा दर्द कर रहे हों या फिर एक दिन अलसाया-सा बिताने का मन हो हमारा भी, नहीं क्या?’’ मुस्कुराते हुए रेखा ने कहा।
‘‘हां रेखा ! बच्चों को अपने व्यस्त जीवन की आदत है और उन्हें हमसे इस बात की उम्मीद भी कहीं न कहीं है कि हमारे रहने से उनके बच्चों और घर के काम बेहतर ढंग से संभल जाएंगे। ये ग़लत भी नहीं है, पर कभी-कभी लगता है कि उन्हें ये समझना चाहिए कि इस उम्र में हम उनके भागदौड़ भरे जीवन से क़दमताल नहीं कर सकते। कुछ समय तक, कुछ कामों तक ठीक है, लेकिन जब हम साथ रहते हैं तो हमसे उनकी अपेक्षाएं सिर उठाने लगती हैं और उसपर खरे न उतरने की जितनी खीझ उन्हें होती है, उतनी ही हमें भी तो होती है। हमने अपना जीवन उन्हें बड़ा करने में बिताया अब बचा हुआ जीवन उनके बच्चों को बड़ा करने में बिताएं तो फिर अपने लिए कब जी पाएंगे? अपनी छोटी-छोटी इच्छाएं कब पूरी कर पाएंगे?’’
‘‘चूंकि हमारे बच्चे अभी यंग हैं वो अपने स्टेटस को लेकर इतने कॉन्शस रहते हैं कि वो भी खल जाता है कभी-कभी। एक मज़ेदार बात बताऊं? बैंगलोर में जब मेरे बेटे अनीश को प्रमोशन मिला, तब मुझे रिटायर हुए शायद दो ही महीने हुए थे। उस शाम मैं अपनी पड़ोसन के साथ सब्ज़ी लेने बाज़ार गई थी। अचानक नुक्कड़ पर खड़े पानीपूरी के ठेले को देखकर हम दोनों के मुंह में पानी आ गया। हमने ख़ूब छककर पानीपूरी खाई और जैसे ही घर जाने मुड़े, सामने अनीश दिख गया। वो अपनी कार में किसी कलीग के साथ था, जो हमारी लोकैलिटी में ही रहता था। मैं कुछ कहती उसके पहले ही मेरी पड़ोसन ने अनीश को ज़ोर से आवाज़ लगाई और मुझसे बोली, ‘अच्छा हुआ अनीश मिल गया। अब हम जल्दी घर पहुंच जाएंगे। पर अनीश का चेहरा देखकर मुझे लगा कि उसे पानीपूरी के ठेले पर हमारा मिलना पसंद नहीं आया। घर पहुंच कर उसने मुझसे कहा भी कि मां यदि आपको पानीपूरी खानी ही थी तो किसी होटल में खा लेतीं। मैं बस, मुस्कुरा दी। उसे क्या पता कि ठेलेवालों की पानीपूरी का स्वाद होटलों में नहीं मिलता !’’
और हंस पड़ीं दोनों सखियां।
‘‘क्या रे, सुबह-सुबह इतने चटपटे खाने की बात कर दी। मुंह में पानी आ गया। चल आज नाश्ता बाहर से ही मंगाते हैं।
‘‘हां, हां। । । सही है। वो तुम्हारी सोसायटी के आख़िरी छोर पर जो गुजराती मिठाई की दुकान है ना मैं वहां से कुछ लेकर आती हूं और तुम फटाफट चाय बना लो,’’ ये कहते हुए रेखा उठ खड़ी हुई, ‘‘खांडवी और जलेबी ले आती हूं। ठीक रहेगा ना?’’
नमिता ने हामी में सिर हिलाया।
***०***
सोसायटी के भीतर घुसते हुए प्राची ने कार से ही पार्लर के बोर्ड पर नज़र डाली और फिर घड़ी पर। साढ़े नौ बज रहे थे। मां तो मुझे देखकर चौंक ही जाएंगी। ये तो बताया था उन्हें कि शनिवार को आ सकती हूं, पर सुबह-सुबह अकेली ही आ जाऊंगी ये तो सोचा ही नहीं होगा उन्होंने।
उसने घंटी बजाई।
‘‘अरे… इतनी सुबह-सुबह तुम कैसे आ गईं?’’ आश्चर्य से ये पूछते-पूछते उनकी निगाहें उसके पीछे कुछ टटोलने लगीं,
‘‘नीलेश और बच्चे नहीं आए क्या?’’
‘‘अकेली ही आई हूं तुमसे मिलने। सबको अपने-अपने काम थे। और ये क्या तुमने ज़िद पकड़ रखी है मां?’’
‘‘अरे अब आई है तो थोड़ी सांस तो ले। बैठ तो। ऐसे सवाल पूछ रही है, जैसे घोड़े पर सवार है और जवाब सुनते ही निकल भागेगी। रुक, चाय बनाती हूं। ’’
‘‘अरे, कोई आया है? ये सामान किसका है मां?’’ बेडरूम की अल्मारी के ऊपर रखे दो सूटकेस उसकी आंखों को सहज ही नज़र आ गए, क्योंकि उनका रंग ही ऐसा था-पर्पल और ग्रीन।
‘‘बड़ी तेज़ नज़र है। सीधे नए सामान पर पड़ गई,’’ मां मुस्कुराते हुए बोलीं, ‘‘रेखा याद है, मेरी सबसे प्यारी सहेली?’’
‘‘रेखा मौसी तो अपने बेटे-बहू के साथ बैंगलोर में रहती हैं ना?’’ यह कहते हुए किचन में आ गई प्राची।
‘‘हां। कुछ दिन पहले उसका फ़ोन आया था। उसके बेटे-बहू तो चार साल पहले ही अमेरिका चले गए थे। वो अकेली थी। मैंने उसे कहा कुछ दिनों के लिए यहां आ जाए। ’’
‘‘तो कहां हैं वो? और क्या यही वजह थी तुम्हारी, मेरे और प्रखर के पास न आने की?’’
‘‘रेखा हम दोनों के लिए ब्रेकफ़ास्ट लेने गई है। ’’
‘‘क्यों? आपने घर में कुछ क्यों नहीं बनाया? बाहर का खाओगी सुबह-सुबह?’’
‘‘और तू जो वजह पूछ रही थी ना तेरे और प्रखर के पास आने की वो यही है। तुम लोगों के ऐसे सवाल। ’’
‘‘क्या?’’
‘‘अरे यदि हमें सुबह-सुबह खांडवी और जलेबी खाने का मन है तो बाहर से क्यों नहीं मंगा सकते? रोज़-रोज़ तो ऐसा नहीं करते ना?’’
‘‘मां, पर ये तो हम आपकी सेहत के लिए कहते हैं। ’’
‘‘सेहत के बारे में इतना तो मैं भी समझती हूं प्राची। पर कभी-कभी तो ऐसा किया ही जा सकता है। तुम क्या नहीं अपने लंच टाइम में बाहर खाती-पीती हो? प्रखर और राशि भी, पर मेरा मन हो तो सेहत का वास्ता दे देते हो। यार तुम लोगों को बड़ा करते-करते कभी अपनी पसंद-नापसंद तो छोड़ो, चैन से बैठकर एक कप चाय पीने का भी मौक़ा नहीं मिलता था। याद नहीं तुम्हें, कितनी भागादौड़ी होती थी मेरी? फिर सोचा था कि जब तुम बड़े हो जाओगे तो रिटायरमेंट के बाद पापा के साथ धीमी रफ़्तार का जीवन जिऊंगी। पर तुम्हारे पापा दग़ाबाज़ निकले। बीच में ही साथ छोड़ दिया।’’
‘‘पर मां, आप यहां अकेली कैसे रह सकती हैं? और रही बात टोकने की तो हम लोग आपको नहीं टोका करेंगे बस्स!’’
‘‘बात टोकने की ही नहीं है बेटा।’’
‘‘तो क्या है?’’
‘‘आदमी पूरा जीवन जी लेता है, पर बीच-बीच में उसे कई बार एहसास होता है कि उसने सबके हिसाब से जिया। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बीच अपने हिसाब से, अपने मन के हिसाब से जीने का मौक़ा तो उसे मिल ही नहीं पाता। न मुझे राशि से शिकायत है, ना तुमसे और ना ही तुम लोगों के साथ रहने से। मैं तुम लोगों के घर आ जाया करूंगी छह-आठ महीने में, लेकिन बेटा इस बात को समझो कि अब मैं जीवन अपने हिसाब से जीना चाहती हूं। ’’
‘‘इसका मतलब क्या है मां? अकेले कैसे रहोगी आप?’’
‘‘मैंने और रेखा ने इसकी योजना बना ली है। सब तय कर लिया है। हम दोनों ही कामकाजी रहे हैं। हमारी अपनी-अपनी सेविंग्स हैं और अपने-अपने घर भी। फ़ायनांशियली हम किसी पर निर्भर नहीं है। हम दोनों साथ रहेंगे और हमारी मृत्यु के बाद के लिए वसीयतें हमने पहले ही बनवा ली हैं। तुम लोगों को हमारी संपत्ति में से जो मिलना चाहिए, वो ज़रूर मिलेगा। ’’
‘‘मां… ’’
‘‘नाराज़ क्यों होती हो? मृत्यु एक सच्चाई है। इसे तो स्वीकारना होगा, सभी को। और यहां तो हम दोनों के मज़े हैं। घर पर मनपसंद खाना बना लो और जब मन हो तो नाश्ता बाज़ार से मंगवा लो। सुबह योग के लिए जाओ, दिनभर गप्पें मारो। जब मर्ज़ी सो जाओ, जब मर्ज़ी उठो। शाम को वॉक के लिए निकल जाओ। रात को कुछ बनाना हो तो बनाओ वरना पोहा, मैगी या पास्ता खाकर सो जाओ। और जब ख़ुद कुछ बनाने का मन न हो तो मेड आती ही है अपना काम करने। पता है, मैंने और रेखा ने तो यहां की सारी बाइयों की लड़कियों को कम्यूनिकेशन स्किल्स सिखाने की तैयारी भी कर ली है!’’ आख़िरी वाक्य बोलते-बोलते मां की आवाज़ का उत्साह दिल तक महसूस किया उसने।
‘‘मां, चाय बन गई। छान दीजिए,’’ उबलती चाय की ओर इशारा किया उसने। फिर चाय का कप लिया और सोफ़े पर आ बैठी।
‘‘तू चाय पी। मैं ज़रा टेबल साफ़ करती हूं। रेखा नाश्ता लेकर आती ही होगी। ’’
सच ही तो कह रही हैं मां। हम महिलाओं को अपनी इच्छा के मुताबिक़ जीने का वक़्त ही कहां मिल पाता है? मुझे ही देखो। पहले नीलेश का ख़्याल रखने की चाह में उनके हिसाब से, फिर बड़े हो रहे बच्चों की इच्छा के हिसाब से सामंजस्य बिठाते हुए जी रही हूं। जबरन भले ही कोई ये नहीं कराता, हम ख़ुद अपनी इच्छा से ही करते हैं, पर कहीं न कहीं इस बात की टीस तो रह ही जाती है कि ये नहीं कर पाई या वो छूट गया। । । नहीं क्या? घंटी ने उसकी सोच को रोका।
‘‘रेखा मौसी… ’’ ये कहकर प्राची ने अपनी बांहें उनके गले में डाल दीं।
‘‘अरे तू… सुबह-सुबह कहां से आ टपकी रे प्राची?’’ रेखा मौसी ने बड़े अपनेपन से पूछा।
‘‘मम्मा से मिलने चली आई। वो भी अपने पति और बच्चों को छोड़कर। ’’ वो मुस्कुरा दी।
‘‘चल नाश्ता करते हैं। कहकर तो केवल खांडवी और जलेबी गई थी, लेकिन वहां भावनगरी मिर्च के पकौड़े भी मिल रहे थे तो वो भी ले लिए मैंने। ’’
‘‘अब आएगा नाश्ते का असली मज़ा। गरमागर्म चाय और पकौड़े… ’’ प्राची चहक उठी।
नाश्ते के साथ-साथ गप्पें मारते रहे तीनों। यहां-वहां की सारी बातें कर डालीं।
‘‘अरे मां, ग्यारह बज गए और पता भी नहीं चला। ’’
‘‘हम लोगों का साथ है ही ऐसा, समय का पता ही नहीं चलता,’’ मां के इस जवाब पर मुस्कुरा दी वो।
‘‘मां, वो सामनेवाला ब्यूटी पार्लर खुल गया होगा क्या?’’
‘‘हां, वो तो सुबह नौ बजे ही खुल जाता है। ’’
‘‘मैं जल्दी से वहां होकर आती हूं। ’’
‘‘जल्दी से क्यों? इत्मीनान से जा। मैं खाने में तेरी पसंद के बैंगन बनाऊं क्या?’’
‘‘हां बिल्कुल। और खाने के तुरंत बाद मैं निकल जाऊंगी। ’’
‘‘क्यों?’’
‘‘अरे वो केया, कार्तिक और नीलेश को अपने-अपने काम हैं। और इसलिए मेरा… ’’
‘‘हां-हां… मैं समझ गई चली जाना भई। ’’
मां का ये जवाब अंदर तक छू गया उसे।
अपने घर के लिए लौटते समय मां के गले लगकर उसने कहा,‘‘ओ मां… अब कर लो अपने मन की। मैं ख़ुद भी समझ गई हूं कि तुम क्यों नहीं आ रही हो हमारे पास… और प्रखर को भी समझा दूंगी। और मुझे पूरा भरोसा है कि प्रखर से कहीं ज़्यादा अच्छी तरह राशि समझ जाएगी इस बात को। ’’
अपने घर अपना मोर्चा संभालने जाते समय अपनी मां के दिल की बात को समझ पाने का सुकून था प्राची के मन में। साथ ही इस बात का एहसास भी कि कहीं न कहीं इस बात की चाह उसके भीतर भी थी कि कभी न कभी उसे भी अपने मन की करने मिले। आमीन!