मूल रूप से मराठी भाषी डॉक्टर प्रभाकर माचवे न सिर्फ एक भाषा विद्वान और साहित्य रत्न थे, बल्कि जितनी ईमानदारी से उन्होंने मराठी में लेखन किया, वही अपनापन हिंदी को भी दिया। यही वजह है कि हिंदी साहित्य में आज भी डॉक्टर प्रभाकर माचवे का नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है। आइए आज उनके जन्मदिन पर जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ ख़ास बातें।
उनका प्रारंभिक जीवन
26 दिसंबर 1917 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक महाराष्ट्रियन परिवार में जन्में डॉक्टर प्रभाकर माचवे हिंदी भाषा के साथ-साथ मराठी और अंग्रेजी में भी लेखन किया करते थे। लगभग 50 वर्षों तक सतत रूप से इन भाषाओं में साहित्य सेवा करनेवाले डॉक्टर प्रभाकर माचवे ने लेखन की शुरुआत अपने स्कूली दिनों से की थी। गौरतलब है कि उनकी पहली कविता माखनलाल चतुर्वेदी की ‘कर्मवीर’ पत्रिका में छपी थी। उसके बाद उनकी पहली कहानी मुंशी प्रेमचंद की ‘हंस’ पत्रिका में छपी थी और निराला द्वारा संपादित पत्रिका ‘सुधा’ में उनका पहला लेख छपा था। उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करनेवाले डॉक्टर प्रभाकर माचवे ने अंग्रेजी साहित्य से पीएचडी की थी।
करियर के साथ साहित्य सेवा भी
अपने करियर की शुरुआत उन्होंने वर्ष 1948 में ऑल इंडिया रेडियो नागपुर से की थी। नागपुर और इलाहाबाद ऑल इंडिया रेडियो में काम करते हुए उनकी साहित्य सेवा से प्रभावित होकर उन्हें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन द्वारा आमंत्रित भी किया गया था। यही नहीं वर्ष 1954 में ऑल इंडिया रेडियो से रिटायर होने के बाद उन्होंने अपने साहित्यिक ज्ञान के जरिए साहित्य अकादमी की स्थापना में सहयोग दिया। अपने ज्ञान और भारतीय साहित्य पर एकाधिकार के बदौलत ही उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में जाकर भारतीय साहित्य, धर्म-संस्कृति और दर्शन के साथ वहां के छात्रों को गांधीवाद की शिक्षा दी। सिर्फ यही नहीं अमेरिका के साथ उन्हें जर्मनी, रूस, श्रीलंका, मॉरीशस, जापान और थाईलैंड जैसे देशों में भी व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जा चुका है।
साहित्य प्रेमी ही नहीं, उम्दा चित्रकार भी थे
वर्ष 1975 में साहित्य अकादमी से सन्यास लेने के बाद उन्होंने शिमला स्थित अग्रिम अध्ययन संस्थान में 2 वर्ष बिताए। उसके बाद वर्ष 1979 से 1985 तक कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद के निदेशक के रूप में और उसके बाद वर्ष 1988 से 1991 तक इंदौर के हिंदी अखबार चौथा संसार में मुख्य संपादक की भूमिका संभाली। 17 जून 1991 को इंदौर में ही उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली। हालांकि ये बात बहुत कम लोगों को पता है कि साहित्य रत्न डॉक्टर प्रभाकर माचवे एक बहुत उम्दा चित्रकार भी थे। इंदौर जे.जे. स्कूल में पेंटिंग सिखने के दौरान एम एफ हुसैन और बेंद्रे उनके सहपाठी हुआ करते थे। हालांकि उनके द्वारा उकेरे गए चित्र आज भी उनके पुस्तक ‘शब्द’ में संकलित हैं।
उनकी कृतियाँ और सम्मान
हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में उन्होंने लगभग 100 किताबें लिखी हैं, जिनमें अनुवादित पुस्तकों के साथ उपन्यास, कविता, लघु कथाएं, जीवनी, बच्चों की किताबें, यात्रा वृतांत, व्यंग्य, आलोचना, संपादन और समीक्षाएं शामिल हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'स्वप्न भंग', 'तेल की पकौड़ियाँ', 'अनुक्षण' (कविताएँ), 'गली के मोड़ पर', 'एक तारा', 'परंतु', 'द्वाभा' (नाटक), और पुस्तकें रेमिनिसेंस ऑफ़ ए राइटर : फ्रॉम सेल्फ टू सेल्फ (आत्मकथा) (1999), हिंदू धर्म : विज्ञान , संचार और सभ्यता में योगदान (1994), पूरब बनाम पश्चिम : जीवन और साहित्य में (1973), भारतीय साहित्य के चार दशक (1979), भारतीय साहित्य में पुनर्जागरण (1979), और टॉलस्टॉय और भारत (1969) (हिंदी अनुवाद) शामिल हैं। कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित डॉक्टर प्रभाकर माचवे एक भाषाविद्वान थे, जिन्हें भारतीय साहित्य पर एकाधिकार हासिल था। उन्हें उनकी साहित्य सेवा के लिए विशेष रूप से सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली पुरस्कार और केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
डॉक्टर प्रभाकर माचवे की प्रसिद्ध कविता ‘हम बच्चों की जान है माँ’
हम बच्चों की जान है माँ
मेरी नींदों का सपना माँ
तुम बिन कौन है अपना माँ
तुमसे सीखा पढ़ना माँ
मुश्किल कामों से लड़ना माँ
बुरे कामों में डाँटती माँ
अच्छे कामों में सराहती माँ
कभी मित्र बन जाती माँ
कभी शिक्षक बन जाती माँ
मेरे खाने का स्वाद है माँ
सब कुछ तेरे बाद है माँ
बीमार पड़ूं तो दवा है माँ
भेदभाव ना कभी करे माँ
वर्षा में छतरी मेरी माँ
धूप में लाए छाँव मेरी माँ
कभी भाई, कभी बहन, कभी पिता बन जाती माँ
ग़र ज़रूरत पड़े तो दुर्गा भी बन जाती माँ
ऐ ईश्वर धन्यवाद है तेरा दी मुझे जो ऐसी माँ
है विनती एक यही तुमसे हर बार बने ये हमारी माँ