पुरुष समाज में अपनी सशक्त कलम से हिंदी साहित्य को समृद्ध करते हुए महिला साहित्यकारों ने शक्ति का एक ऐसा रूप प्रस्तुत किया है, जिसे भुला पाना पाठकों के लिए लगभग असंभव है। आइए जानते हैं कुछ ऐसी ही महिला हिंदी साहित्यकारों के साथ उनकी रचनाओं में महिला सशक्तिकरण के बारे में।
हिंदी साहित्य की दिग्गज लेखिकाएं
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आधुनिक हिंदी कविता में रुमानियत की शुरुआत छायावाद आंदोलन की अग्रणी और बेमिसाल कवियत्री महादेवी वर्मा की कविताओं से हुई थी, लेकिन बाद में उन्होंने महिलाओं को प्रेरित करती ऐसी रचनाएं लिखीं, जो हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं। इसके अलावा हिंदी साहित्य का अनमोल सितारा गौरा पंत यानी शिवानी ने अपनी महिला केंद्रित कहानियों के माध्यम से परंपरागत पुरुष समाज में जी रही महिलाओं के व्यक्तित्व और जीवन से जुड़े सवालों को मुद्दा बनाया। उषा प्रियंवदा ने अपनी सभी महिला प्रधान रचनाओं में जिस तरह आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट, दुख और अकेलेपन को व्यक्त किया है, वो आज भी हर महिला के लिए प्रासंगिक है। कृष्णा सोबती की बात करें तो अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से उन्होंने न सिर्फ साहसिक मजबूत चरित्रों का निर्माण किया, बल्कि महिला पहचान डिस्फोरिया और कामुकता के विषयों को प्रस्तुत करने का साहस भी किया। हिंदी साहित्य की प्रमुख हिंदी तथा सम्मानित लेखिका मन्नू भंडारी ने परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति को सदैव एक अलग आयाम देने की कोशिश की। कोलकाता में जन्मीं हिंदी की लोकप्रिय लेखिकाओं में से एक मृदुला गर्ग ने अपने उपन्यास ‘चितकोबरा’ में न सिर्फ स्त्री-पुरुष के संबंधों में शरीर को मन के समांतर खड़ा किया, बल्कि इस पर पुरुष प्रधानता विरोधी दृष्टिकोण भी रखे। यही वजह है कि उनका यह उपन्यास काफी चर्चित होने के साथ, विवादास्पद भी रहा।
80 के दशक की आंदोलनकारी महिला लेखिकाएं
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सदियों से ऐसा माना जाता रहा है कि महिलाएं पुरूष की भांति स्वतंत्रता चाहती हैं, इसलिए पुरूष समाज का विरोध कर पारंपरिक बेड़ियों को तोड़ना चाहती हैं, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? सच पूछिए तो आज भी समाज के सभी क्षेत्रों में अपनी भागीदारी निभा रहीे महिलाओं को लेकर जब-तब यह बात कही जाती रही है। हालांकि सच तो यह है कि स्वतंत्रता के साथ महिलाओं ने परंपराओं को कभी बेड़ियाँ माना ही नहीं। हाँ, ये सच है कि उन्होंने अपने अंतर्मन में पल रहे आशाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों को एक नया आसमान देने की कोशिश की, लेकिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ। हालांकि हिन्दी साहित्य में महिलाओं के संदर्भ में और महिलाओं को संदर्भ बनाकर काफी कुछ लिखा गया, लेकिन 80 का दशक आते-आते इस लेखन ने आंदोलन का रूप ले लिया था। इस आंदोलन की अग्रणी लेखिकाओं में ममता कालिया, कृष्णा अग्निहोत्री, चित्रा मुद्गल, मणिक मोहनी, मृदुला गर्ग, मुदुला सिन्हा, मंजुला भगत, मैत्रेयी पुष्पा, मृणाल पाण्डेय, नासिरा शर्मा, दिप्ती खण्डेलवाल, कुसुम अंचल, इंदू जैन, सुनीता जैन, डॉक्टर प्रभा खेतान, सुधा अरोड़ा, क्षमा शर्मा, अर्चना वर्मा, नमिता सिंह, अल्का सरावगी, जया जादवानी, मुक्ता रमणिका गुप्ता आदि लेखिकाओं का नाम शामिल है। इन सभी लेखिकाओं ने अपनी कृतियों में नारी मन की गहराईयों, अंतर्द्वंद्वों तथा अनेक समस्याओं का उल्लेख बेहद संजीदगी से किया है।
पुरूष समाज में महिलाओं का अस्तित्व
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इसमें दो राय नहीं कि पुरूष समाज ने महिलाओं को सदैव अंधकारमय जीवन जीने के लिए मजबूर किया, लेकिन आज की नारी चेतनशील है। उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान है। शायद यही वजह है कि महिलाओं ने व्यवस्था का बहिष्कार कर स्वतंत्र जीवन को प्राथमिकता दी। साहित्यिक परिदृश्य में महिलाओं को लेकर लिखे गए पुरुष लेखकों के वक्तव्यों को आप देखें तो आपको नारी के कई स्वरूप नजर आएँगे। इसके अंर्तगत जहाँ मैथलीशरण गुप्त ने “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी” कहकर महिलाओं की स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की, वहीं प्रसाद ने ‘‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो‘‘ कहा। हिंदी लेखकों के अलावा अंग्रेजी साहित्य के महान साहित्यकार शेक्सपियर ने ‘‘दुर्बलता तुम्हारा नाम ही नारी है‘‘ कहकर महिला के अस्तित्व को ही कमज़ोर बता दिया। यह दुर्भाग्य है कि छठी शताब्दी तक अधिकतर पुरूष लेखकों का यही मत था और वे महिला लेखन को काऊच लेखन कहकर हंसी उड़ाते थे, लेकिन बाद की लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से महिलाओं की एक ऐसी तस्वीर पेश की, जिसने महिला सशक्तिकरण की एक नई इबारत लिखी। हालांकि सिर्फ महिला लेखिकाओं ने ही नहीं, बल्कि कुछ पुरुष लेखकों ने भी महिला सशक्तिकरण को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। सिर्फ यही नहीं उन्होंने महिलाओं के प्रति पुरुष समाज के दोहरे मापदंडों को भी सिरे से खारिज किया, लेकिन उनकी संख्या इतनी है, जिन्हें आप उँगलियों पर गिन सकती हैं।
महिला लेखिकाओं की रचनाओं में महिला सशक्तिकरण
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सशक्त महिला लेखिकाओं की रचनाओं में अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’, कृष्णा सोबती की ‘मित्रों मरजानी’, मन्नू भण्डारी की ‘आपका बंटी’, चित्रा मुद्गल की ‘आवां’ और ‘एक जमीन अपनी’, ममता कालिया की ‘बेघर’, मृदुला गर्ग की ‘कठ गुलाब’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’ ‘इदन्नम’ और ‘अल्मा कबूतरी’, डॉक्टर प्रभा खेतान की ‘छिन्नमस्ता’, पद्मा सचदेव की ‘अब न बनेगी देहरी’, राजीसेठ का ‘तत्सम’, मेहरून्निसा परवेज का ‘अकेला पलाश’, शशि प्रभा शास्त्री की ‘सीढ़ियां’, कुसुम अंचल की ‘अपनी-अपनी यात्रा’, उषा प्रियंवदा की ‘पचपन खंभे, लाल दिवारें’ और दीप्ति खण्डेलवाल की ‘प्रतिध्वनियां’ शामिल हैं। इन सभी लेखिकाओं ने अपने-अपने समय अनुसार महिला सशक्तिकरण को अपनी रचनाओं में अपने अंदाज से आवाज दी। डॉक्टर प्रभा खेतान महिलाओं के शोषणमुक्त जीवन की पक्षधर रही हैं। अपने उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ में इसे उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से दर्शाया भी है। गौरतलब है कि पुरूष समाज में आधुनिक महिला शक्ति सम्पन्न संपन्न होने के साथ-साथ पत्नी से लेकर माँ की सारी भूमिकाएं निभा रही है, लेकिन उसके बावजूद उसे अपने ही परिवार में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। अपने इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने परंपरागत महिला से जुड़े मिथ को तोड़ने का प्रयास किया है। अगर यह कहें तो गलत नहीं होगा कि उत्तर आधुनिक काल की महिला का अन्याय के विरोध में उठाया गया यह साहसिक कदम है।
महिला सशक्तिकरण के कई और उदाहरण
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महिला उत्पीड़न का एक और चेहरा नज़र आता है वीणा सिन्हा के उपन्यास ‘पथ प्रज्ञा’ में। इसमें उन्होंने आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छूने में लगे प्रागैतिहासिक काल की विडंबना को आईना दिखाने का प्रयास किया है। उपन्यास की नायिका माधवी, जो मेधावी होने के साथ-साथ खूबसूरत, कलाकुशल और चार चक्रवर्ती पुत्रों की माँ होने के बावजूद पुरूष समाज में शोषित है। हालांकि अंत में वो अपनी सारी एनर्जी और ज्ञान से दैहिक शोषण और पीड़ा से मुक्ति पा लेती है। उपन्यास में माधवी द्वारा लिए गए निर्णय आज के संदर्भ में अधिक प्रासांगिक हैं। इसी तरह मैत्रेयी पुष्पा का लोकप्रिय उपन्यास ‘चाक’ और ‘इदन्नम’ में महिला सशक्तिकरण की एक नई व्याख्या पेश की गई है। ‘चाक’ उपन्यास की नायिका सारंग, नैनी ब्रज के अंचल अतरपुर गाँव के किसान परिवार में पली-बढ़ी, साधारण पढ़ी-लिखी महिला है। अपने पति को चुनौती देते हुए वो अपने प्रेमी को अपनाती है, जिसके कारण गाँव की सारी महिलाएं उसे हेय दृष्टि से देखने लगती हैं। हालांकि अंत में अतरपुर गाँव की सारी स्त्रियां मतभेद भुलाकर न सिर्फ इकट्ठी होती हैं, बल्कि मिलकर स्त्री शक्ति के सहारे गाँव के प्रधान पद का चुनाव भी लड़ती हैं। ‘चाक’ के ज़रिए महिला एकता के साथ महिला सशक्तिकरण की इस व्याख्या को मैत्रेयी पुष्पा ने बड़ी ही खूबसूरती से बुना है। इसी तरह कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी ‘इदन्नम’ में भी उन्होंने औरत की लड़ाई और उसकी सफलता को मुद्दा बनाया है। विशेष रूप से तीन पीढ़ी की महिला संघर्ष को उन्होंने जिस खूबसूरती से उपन्यास में उकेरा है, वो इसे पठनीय ही नहीं, रोचक भी बनाता है।