आधुनिक हिंदी की सशक्त कवयित्री महादेवी वर्मा को जहां उनके पाठक आधुनिक मीरा के नाम से जानते हैं, वहीं हिंदी साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ उन्हें हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती कहा करते थे। आइए गुनगुनाते हैं उनके लिखे कुछ मूल्यवान मार्मिक गीतों को।
इन आँखों ने देखी न राह कहीं
इन आँखों ने देखी न राह कहीं
इन्हें धो गया नेह का नीर नहीं,
करती मिट जाने की साध कभी,
इन प्राणों को मूक अधीर नहीं,
अलि छोड़ो न जीवन की तरणी,
उस सागर में जहाँ तीर नहीं!
कभी देखा नहीं वह देश जहाँ,
प्रिय से कम मादक पीर नहीं!
जिसको मरुभूमि समुद्र हुआ
उस मेघव्रती की प्रतीति नहीं,
जो हुआ जल दीपकमय उससे
कभी पूछी निबाह की रीति नहीं,
मतवाले चकोर ने सीखी कभी;
उस प्रेम के राज्य की नीति नहीं,
तूं अकिंचन भिक्षुक है मधु का,
अलि तृप्ति कहाँ जब प्रीति नहीं!
पथ में नित स्वर्णपराग बिछा,
तुझे देख जो फूली समाती नहीं,
पलकों से दलों में घुला मकरंद,
पिलाती कभी अनखाती नहीं,
किरणों में गुँथी मुक्तावलियाँ,
पहनाती रही सकुचाती नहीं,
अब फूल गुलाब में पंकज की,
अलि कैसे तुझे सुधि आती नहीं!
करते करुणा-घन छाँह वहाँ,
झुलसाता निदाध-सा दाह नहीं
मिलती शुचि आँसुओं की सरिता,
मृगवारि का सिंधु अथाह नहीं,
हँसता अनुराग का इंदु सदा,
छलना की कुहू का निबाह नहीं,
फिरता अलि भूल कहाँ भटका,
यह प्रेम के देश की राह नहीं!
मैं नीर भरी
मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा;
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक-से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत-भरा,
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रँग बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली!
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार, बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नवजीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना;
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
जो तुम आ जाते एक बार
जो तुम आ जाते एक बार!
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग;
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग भरा उन्माद राग;
आँसू लेते वे पद पखार!
हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता ओंठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसंत
लुट जाता चिर संचित विराग,
आँखें देती सर्वस्व वार!
क्यों अश्रु न हों शृंगार मुझे!
रंगों के बादल निस्तरंग,
रूपों के शत-शत वीचि-भंग,
किरणों की रेखाओं में भर,
अपने अनंत मानस पट पर,
तुम देते रहते हो प्रतिपल,
जाने कितने आकार मुझे!
हर छवि में कर साकार मुझे!
लघु हृदय तुम्हारा अमर छंद,
स्पंदन में स्वर-लहरी अमंद,
हर स्वप्न स्नेह का चिर निबंध,
हर पुलक तुम्हारा भाव-बंध,
निज साँस तुम्हारी रचना का
लगती अखंड विस्तार मुझे!
हर पल रस का संसार मुझे!
मेरी मृदु पलकें मूँद-मूँद,
छलका आँसू की बूँद-बूँद,
लघुतम कलियों में नाप प्राण,
सौरभ पर मेरे तोल गान,
बिन माँगे तुमने दे डाला,
करुणा का पारावार मुझे!
चिर सुख-दुख के दो पार मुझे!
मैं चली कथा का क्षण लेकर,
मैं मिली व्यथा का कण देकर,
इसको नभ ने अवकाश दिया,
भू ने इसको इतिहास किया,
अब अणु-अणु सौंपे देता है
युग-युग का संचित प्यार मुझे!
कहकर पाहुन सुकुमार मुझे!
रोके मुझको जीवन अधीर,
दृग-ओट न करती सजग पीर,
नूपुर से शत-शत मिलन-पाश,
मुखरित, चरणों के आस-पास,
हर पग पर स्वर्ग बसा देती
धरती की नव मनुहार मुझे!
लय में अविराम पुकार मुझे
क्यों अश्रु न हों शृंगार मुझे!
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
रजत शंख-घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर,
गए आरती वेला को शत-शत लय से भर,
जब था कल कंठों का मेला,
विहँसे उपल तिमिर था खेला,
अब मंदिर में इष्ट अकेला,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
चरणों से चिह्नित अलिंद की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों के अंक लिए चंदन की दहली,
झरे सुमन बिखरे अक्षत सित,
धूप-अर्घ्य-नैवेद्य अपरिमित,
तम में सब होंगे अंतर्हित,
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!
पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया,
साँसों की समाधि-सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन,
रुका मुखर कण-कण का स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!
झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा गहरी,
आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
जब तक लौटे दिन की हलचल,
तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
रेखाओं में भर आभा-जल,
दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!
मैं पथ भूली
प्रिय सुधि भूले री मैं पथ भूली!
मेरे ही मृदु उर में हँस बस,
श्वासों में भर मादक मधु-रस,
लघु कलिका के चल परिमल से
वे नभ छाए री मैं वन फूली!
प्रिय सुधि भूले री मैं पथ भूली!
तज उनका गिरि-सा गुरु अंतर
मैं सिकता-कण सी आई झर;
आज सजनि उनसे परिचय क्या!
वे घन-चुंबित मैं पथ-धूली!
प्रिय सुधि भूले री मैं पथ भूली!
उनकी वीणा की नव कंपन,
डाल गई री मुझ में जीवन!
खोज न पाई उसका पथ मैं
प्रतिध्वनि-सी सूने में झूली!
प्रिय सुधि भूले री मैं पथ भूली!
नहीं हलाहल शेष...
नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूँ।
विष तो मैंने पिया, सभी को व्यापी नीलकंठता मेरी;
घेरे नीला ज्वार गगन को बाँधे भू को छाँह अँधेरी;
सपने जमकर आज हो गए चलती-फिरती नील शिलाएँ,
आज अमरता के पथ को मैं जलकर उजियाला करती हूँ।
हिम से सीझा है यह दीपक आँसू से बाती है गीली;
दिन से धनु की आज पड़ी है क्षितिज-शिञ्जिनी उतरी ढीली,
तिमिर-कसौटी पर पैना कर चढ़ा रही मैं दृष्टि-अग्निशर,
आभाजल में फूट बहे जो हर क्षण को छाला करती हूँ।
पग में सौ आवर्त बाँधकर नाच रही घर-बाहर आँधी
सब कहते हैं यह न थमेगी, गति इसकी न रहेगी बाँधी,
अंगारों को गूँथ बिजलियों में, पहना दूँ इसको पायल,
दिशि-दिशि को अर्गला प्रभञ्जल ही को रखवाला करती हूँ!
क्या कहते हो अंधकार ही देव बन गया इस मंदिर का?
स्वस्ति! समर्पित इसे करूँगी आज ‘अर्घ्य अंगारक-उर का!
पर यह निज को देख सके औ’ देखे मेरा उज्ज्वल अर्चन,
इन साँसों को आज जला मैं लपटों की माला करती हूँ।
नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से मैं प्याला भरती हूँ।