बचपन में एक-दूसरे से लड़ते भाई-बहन, बड़े होते ही क्यों और कैसे एक-दूसरे के लिए लड़ने लगते हैं, ये शायद वे खुद भी नहीं जानते। आइए जानते हैं भाई-बहन के प्रेम की मधुरता से ओत-प्रोत कुछ खूबसूरत कविताएं।
दीदी, रवींद्रनाथ टैगोर
आवा लगाने के लिए नदी के तीर पर
मज़दूर मिट्टी खोद रहे हैं।
उन्हीं में से किसी की एक छोटी-सी बिटिया
बार-बार घाट पर आवा-जाई कर रही है
कभी कटोरी उठाती, है कभी थाली
कितना घिसना और माँजना चला है!
दिन में बीसियों बार दौड़-दौड़कर आती है
पीतल का कँगना पीतल की थाली से लगाकर
ठन-ठन बजता है।
दिन-भर काम-धंधे में व्यस्त है!
उसका छोटा भाई है—
मुड़ा हुआ सिर, कीचड़ से लथ-पथ, नंगा-पुंगा,
पोषित पंछी की तरह पीछे आता है,
और बैठ जाता है दीदी की आज्ञा मानकर, धीरज धरकर
अचंचल भाव से नदी से लगे ऊँचे टीले पर
बच्ची वापिस लौटती है
भरा हुआ घड़ा लेकर
बाईं कोख में थाली दबाकर
दाहिने हाथ से बच्चे का हाथ पकड़कर।
काम के भार से झुकी हुई
माँ की प्रतिनिधि है यह अत्यंत छोटी दीदी।
बहन को याद करते हुए, कुँवर नारायण
शायद वही है जो मेरे जीवन में
वापस आना चाहती है बार-बार
लेकिन जिसे हर बार
बरबस बाहर कर दिया जाता है
मेरे जीवन से
मैं जानता हूँ
वह है कहीं
मेरे बिल्कुल पास, गुमसुम,
मुझे घेरकर बैठी
एक असह्य उदासी
वह नहीं मानती
कि हमारे बीच अब
बरसों का फ़ासला है,
और सारे बंधन
कब के टूट चुके हैं
बहन अक्सर तुम से बड़ी होती है, प्रसून जोशी
बहन अक्सर तुम से बड़ी होती है,
उम्र में चाहे छोटी हो,
पर एक बड़ा सा एहसास ले कर खड़ी होती है|
बहन अक्सर तुम से बड़ी होती है,
उसे मालूम होता है तुम देर रात लौटोगे,
तभी चुपके से दरवाजा खुला छोड़ देती है,
उसे पता होता है तुम झूठ बोल रहे हो,
और बस मुस्कुरा कर उसे ढक लेती है|
वो तुमसे लड़ती है पर लड़ती नहीं,
वो अक्सर हार कर जीतती रही तुमसे|
जिसे कभी चोट नहीं लगती ऐसी एक छड़ी होती है,
बहन अक्सर तुम से बड़ी होती है|
पर राखी के दिन जब एक पतला सा धागा बांधती है कलाई पे,
मैं कोशिश करता हूँ बड़ा होने की,
धागों के इसरार पर ही सही,
कुछ पल के लिए मैं बड़ा होता हूँ,
एक मीठा सा रिश्ता निभाने के लिए खड़ा होता हूँ,
नहीं तो अक्सर बहन ही तुमसे बड़ी होती है,
उम्र में चाहे छोटी हो, पर एक बड़ा सा एहसास ले कर खड़ी होती है|
राखी की चुनौती, सुभद्राकुमारी चौहान
बहिन आज फूली समाती न मन में।
तड़ित आज फूली समाती न घन में॥
घटा है न झूली समाती गगन में।
लता आज फूली समाती न बन में॥
कहीं राखियाँ हैं, चमक है कहीं पर,
कहीं बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं।
ये आई है राखी, सुहाई है पूनो,
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं॥
मैं हूँ बहिन किंतु भाई नहीं है।
है राखी सजी पर कलाई नहीं है॥
है भादों, घटा किंतु छाई नहीं है।
नहीं है ख़ुशी, पर रुलाई नहीं है॥
मेरा बंधु माँ की पुकारों को सुनकर-
के तैयार हो जेलख़ाने गया है।
छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको,
वह जालिम के घर में से लाने गया है॥
मुझे गर्व है किंतु राखी है सूनी,
वह होता, ख़ुशी तो क्या होती न दूनी?
हम मंगल मनावें, वह तपता है धूनी।
है घायल हृदय, दर्द उठता है ख़ूनी॥
है आती मुझे याद चित्तौर गढ़ की,
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला।
है माता-बहिन रो के उसको बुझाती,
कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला?
है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है।
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है॥
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है।
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है॥
आते हो भाई ? पुन पूछती हूँ-
कि माता के बंधन की है लाज तुमको?
तो बंदी बनो, देखो बंधन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज तुमको॥
आज राखी बाँध दो श्रृंगार कर दो, माखनलाल चतुर्वेदी
वह मरा कश्मीर के हिम-शिखर पर जाकर सिपाही,
बिस्तरे की लाश तेरा और उसका साम्य क्या?
पीढ़ियों पर पीढ़ियाँ उठ आज उसका गान करतीं,
घाटियों पगडंडियों से निज नई पहचान करतीं,
खाइयाँ हैं, खंदकें हैं, जोर है, बल है भुजा में,
पाँव हैं मेरे, नई राहें बनाते जा रहे हैं।
यह पताका है,
उलझती है, सुलझती जा रही है,
जिन्दगी है यह,
कि अपना मार्ग आप बना रही है।
मौत लेकर मुट्ठियों में, राक्षसों पर टूटता हूँ,
मैं, स्वयं मैं, आज यमुना की सलोनी बाँसुरी हूँ,
पीढ़ियाँ मेरी भुजाओं कर रहीं विश्राम साथी,
कृषक मेरे भुज-बलों पर कर रहे हैं काम साथी,
कारखाने चल रहे हैं रक्षिणी मेरी भुजा है,
कला-संस्कृति-रक्षिता, लड़ती हुई मेरी भुजा है।
उठो बहिना,
आज राखी बाँध दो श्रृंगार कर दो,
उठो तलवारों,
कि राखी बँध गई झंकार कर दो।