ऐसा कोई विषय नहीं, जिस पर कलम चलाकर साहित्यकारों ने अपनी भावनाएँ न व्यक्त की हो। फिलहाल आइए गुनगुनाते हैं उन हिंदी साहित्यकारों की कविताएँ, जिन्होंने दिवाली, रोशनी, और उजालों पर अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं।
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना: गोपालदास 'नीरज'
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मैं दीपक हूं, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है: हरिवंशराय बच्चन
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा ताप-भरा तन देखा,
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा आह-घिरा मन देखा,
करुणामय वह शब्द तुम्हारा
’मुस्काओ’ था कितना प्यारा।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
है मुझको मालूम!
पुतलियों में दीपों की लौ लहराती,
है मुझको मालूम कि
अधरों के ऊपर जगती है बाती,
उजियाला कर देने वाली
मुस्कानों से भी परिचित हूँ,
पर मैंने तम की बाहों में अपना साथी पहचाना है
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
यह दीप अकेला: अज्ञेय
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है—गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा—ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
यह समिधा—ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय—यह मेरा—यह मैं स्वयं विसर्जित—
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह मधु है—स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस—जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर—फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत : इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़ुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो—
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
नई हुई फिर रस्म पुरानी: फ़िराक़ गोरखपुरी
नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले
नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
लाखों चराग़ों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज फ़िराक़ सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले
दिवाली: नज़ीर अकबराबादी
हमें अदाएं दिवाली की ज़ोर भाती हैं। कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं।। चिराग़ जलते हैं और लौएं झिलमिलाती हैं। मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं। बताशे हंसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।1।।
गुलाबी बर्फ़ियों के मुंह चमकते-फिरते हैं। जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं।। हर एक दांत से पेड़े अटकते-फिरते हैं। इमरती उछले हैं लड्डूू ढुलकते-फिरते हैं।।
और चिराग़ों की दुहरी बंध रही क़तारें हैं। और हरसू कुमकुमे क़ंदीलें रंग मारे हैं।। हुज़ूम, भीड़ झमक, शोरोग़ुल पुकारे हैं। अजब मज़ा है, अजब सैर है, अजब बहारें हैं।
अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है। दिवाल एक नहीं लीपने से ख़ाली है।। जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है। ग़रज़ मैं क्या कहूं ईंट-ईंट पर दिवाली है।।
कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है। कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है।। कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है। अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है।।
‘नज़ीर’ इतनी जो अब सैर है अहा हा हा। फ़क़त दिवाली की सब सैर है अहा हा हा।। निशात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा। जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा।।
दीपदान: केदारनाथ सिंह
जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दीया जला आना, पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है, उस उड़ते आंचल से गुड़हल की डाल बार-बार उलझ जाती हैं, एक दीया वहां भी जलाना;
जाना, फिर जाना, एक दीया वहां जहां नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं, एक दीया वहां जहां उस नन्हें गेंदे ने अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है, एक दीया उस लौकी के नीचे जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दीया वहां जहां गगरी रक्खी है, एक दीया वहां जहां बर्तन मंजने से गड्ढा-सा दिखता है, एक दीया वहां जहां अभी-अभी धुले नए चावल का गंधभरा पानी फैला है, एक दीया उस घर में - जहां नई फ़सलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दीया उस जंगले पर जिससे दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती है एक दीया वहां जहां झबरा बंधता है, एक दीया वहां जहां पियरी दुहती है, एक दीया उस पगडंडी पर जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दीया उस चौराहे पर जो मन की सारी राहें विवश छीन लेता है, एक दीया इस चौखट, एक दीया उस ताखे, एक दीया उस बरगद के तले जलाना, जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दीया जला आना, पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है।
भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाईं से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ