फणीश्वर नाथ 'रेणु ' का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था। उनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। रेणु जी का बिहार के कटिहार से गहरा संबंध रहा है। उन्होंने कई मशहूर कविताएं लिखी हैं और कई उपन्यास लिखे हैं और जो आज भी प्रासंगिक हैं। आइए पढ़ें उनकी कुछ कविताएं।
मिनिस्टर मँगरू
‘कहाँ ग़ायब थे मँगरू?’—किसी ने चुपके से पूछा।
वे बोले—यार, मैं गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था।
बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना—
कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का।
सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी,
कि कब सोया रहूँगा औ’ कहाँ जलपान खाऊँगा।
कहाँ ‘परमिट’ बेचूँगा, कहाँ भाषण हमारा है,
कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊँगा।
‘सुना है जाँच होगी मामले की?’—पूछते हैं सब
ज़रा गंभीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम है कुछ गुर निराले दाग़ धोने के,
‘अहिंसा लाउंड्री’ में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।
बहुरूपिया
दुनिया दूषती है
हँसती है
उँगलियाँ उठा
कहती है...
कहकहे कसती है—
‘राम रे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-भबड़ आल-जाल-बाल
हाल में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन...
अ-खा-हा-हा
ही-ही’
मर्द रे मर्द!
दूषती है दुनिया
मानो दुनिया मेरी बीवी
हो—पहरावे—ओढ़ावे
चाल-ढाल
उसकी रुचि, पसंद के अनुसार
या रुचि का
सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,
मैं
मेरा पुरुष!
बहुरूपिया!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!
आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!
वन-वन
गुन-गुन
बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन—
मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई
कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
नूतन का अभिनंदन हो
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो!
नव-स्फूर्ति भर दे नव-चेतन
टूट पड़ें जड़ता के बंधन;
शुद्ध, स्वतंत्र वायुमंडल में
निर्मल तन, निर्भय मन हो!
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!
प्रति अंतर हो पुलकित-हुलसित
प्रेम-दिए जल उठें सुवासित
जीवन का क्षण-क्षण हो ज्योतित,
शिवता का आराधन हो!
प्रेम-पुलकमय प्रति जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!
इमरजेंसी
इस ब्लॉक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समान
हर मौसम आकर ठिठक जाता है
सड़क के उस पार
चुपचाप दोनों हाथ
बग़ल में दबाए
साँस रोके
ख़ामोश
इमली की शाखों पर हवा
‘ब्लॉक’ के अंदर
एक ही ऋतु
हर ‘वार्ड’ में बारहों मास
हर रात रोती काली बिल्ली
हर दिन
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई
रक्तरंजित सुफेद
ख़रगोश की लाश
‘ईथर’ की गंध में
ऊँघती ज़िंदगी
रोज़ का यह सवाल, ‘कहिए! अब कैसे हैं?’
रोज़ का यह जवाब—ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द!
इमर्जेंसी वार्ड की ट्रालियाँ
हड़हड़-भड़भड़ करती
ऑपरेशन थिएटर से निकलती है—इमर्जेंसी!
सैलाइन और रक्त की
बोतलों में क़ैद ज़िंदगी!
—रोग-मुक्त, किंतु, बेहोश काया में
बूँद-बूँद टपकती रहती है—इमर्जेंसी!
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
और तमाम चुपचाप हवाएँ
एक साथ
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर—इमर्जेंसी!