‘‘मम्मा, आपको सालभर हो गया आज मेरे पास आए हुए, है ना?‘’
इतवार की दोपहर जब वह अपने कमरे में बैठी किन्हीं ख़्यालों में खोई हुई थी, अशोक ने उसके कमरे में घुसते हुए उत्साह से पूछा.
ख़्यालों को झटककर मुस्कुराते हुए उसने कहा,‘‘हां, मैं भी यही सोच रही थी…’’
‘‘मम्मा तुम यहां ख़ुश तो हो ना? कहीं…’’
‘‘आशू!’’
‘‘मम्मा जब आप अकेले बैठती हो, मुझे हमेशा उदास लगती हो… इसलिए पूछा.’’
‘‘नहीं बेटा, उदास नहीं होती हूं. हां ये कमी अखरती है कि मैंने जैसा चाहा था, वैसा नहीं बना सकी अपने परिवार को.’’
‘‘मैं इसकी वजह हूं ना?’’
‘‘नहीं आशू. बिल्कुल नहीं. ऐसी बातों के लिए कुछ तो लोगों का स्वभाव ज़िम्मेदार होता है और कुछ परिस्थितियां ज़िम्मेदार होती हैं. तू ये कभी मत सोचना कि तू इस बात की वजह है. मुझे तू सबसे ज़्यादा प्रिय है बेटा, तभी तो तेरे पास चली आई.’’
‘‘फिर तुम ख़ुश क्यों नहीं दिखाई देतीं?’’
‘‘कभी-कभी लगता है, मेरे लिए निर्णय ही इस बात के लिए ज़िम्मेदार हैं. शायद मैं ही सही निर्णय नहीं ले पाई हर बार. पहले तेरे के लिए और फिर तेरे भाई विशोक के लिए. बस, यही बात मन में उथल-पुथल मचाए रहती है. और कुछ नहीं.’’
‘‘तुम ऐसा क्यों सोचती हो? जब मैं छोटा था, तब तुम्हारा निर्णय मेरे भविष्य को लेकर था, वो ग़लत नहीं था मम्मा. तुम्हारी जगह कोई भी होता तो यही करता. मेरे लिए ऐसा मत सोचा करो. फिर तुमने जो भी किया मुझसे पूछ के, मुझसे मश्विरा कर के, मुझे शामिल कर के लिया था, भले ही मैं पांच साल का था तब भी.’’
‘‘आशू, अब लगता है तब थोड़ी हिम्मत और करती तो शायद तुझे अकेले भी पाल सकती थी. ये सब तो न होता. बरसभर पहले भी तो हिम्मत ही की, तभी तो विशोक को लेकर तेरे पास चली आई. यह अब कर सकती हूं तो शायद तब भी कर सकती थी.’’
‘‘ऐसा मत सोचा करो मां. उस समय पापा की बीमारी की वजह से कितना कर्ज़ हो गया था तुमपर. ना तुम्हारे मायके वाले साथ दे रहे थे, न पापा के घर वाले. तुम अपनी छोटी-सी नौकरी में आख़िर बहुत तो नहीं कमा रही थीं. सारे कर्ज़ पट तो नहीं सकते थे. और तुम्हारी उम्र भी केवल 27 साल ही तो थी मां.’’
‘‘हां आशू. तेरे पापा की मौत के बाद मैं टूट ही गई थी. समझ नहीं आ रहा था कि एक पांच साल के बच्चे के साथ मेरी ज़िंदगी कैसे कटेगी? और फिर तब विशाल… छोड़ भी. हम दोनों क्या बातें करने लगे. विशू कहां गया, लौटा नहीं तेरे साथ?’’
‘‘पार्क से वापस आने ही कहां तैयार होता है? अब भी बच्चा ही है वो,’’ अशोक ने विनोदभरी शिकायत सी की.
‘‘अरे 13वें साल में ही तो लगा है अभी. बच्चा तो है ही…’’
‘‘और मैं?’’
‘‘अरे बाबा तू भी बच्चा ही है, मेरे लिए तो. लेकिन उससे तो बड़ा है ना!’’
‘‘कुछ ज़्यादा ही बड़ा. मम्मा! क्या मैं बहुत मोटा हो गया हूं?’’
‘‘कहां? बिल्कुल नहीं. पर पूछ क्यों रहा है?’’
‘‘उस दिन वो नया वॉचमैन. उसने मुझसे विशोक की शिकायत करते हुए कहा,‘अंकल, आपका बेटे ने ऐसी बॉल मारी कि मेरे हाथ पर नील आ गया. थोड़ा समझाओ उसको, ठीक से खेलने का.’’’
अपने बड़े बेटे की बात सुनकर खिलखिला उठी कुसुम. और हंसते हुए बोली,‘‘मोटा नहीं हुआ है तू, पर ये जो फ़ैशन के चक्कर में दाढ़ी बढ़ा रखी है ना, इससे अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ा दिखता है इसलिए ऐसा कहा होगा उसने,’’ और फिर खिलखिला उठी. आगे बोली,‘‘और तुम दोनों के बीच उम का अंतर भी तो बहुत है बेटा. तू 12 बरस बड़ा है उससे.’’
‘‘हम्म्म्म…’’
‘‘पर वॉचमैन ने मुझे एक बात का हिंट दे दिया है कि अब मेरे बेटे की शादी की उमर हो चुकी है,’’ कुसुम के चेहरे पर अब भी हंसी मौजूद थी.
‘‘अरे मम्मा, अभी पांच साल बिल्कुल नहीं. जब 28 का होऊंगा, तब सोचना शुरू करना शादी-वादी के बारे में. अभी तो नौकरी के साथ सीए भी करना है. और इससे अच्छी नौकरी करनी है, अच्छी पोज़िशन पर नौकरी करनी है…’’
‘‘ठीक है आशू. मैं समझ गई. तू जैसा चाहेगा वैसा ही होगा. पर विशू को तो बुला ला. खाना खा लो तुम लोग. संडे को तीन बजा देते हो तुम लोग लंच में ही.’’
‘‘मैं उसे बुलाने नहीं जाऊंगा मम्मा, वो आएगा ही नहीं. उसके चारों दोस्त भी वहीं हैं. उसने साफ़ कहा है मुझसे,‘मां से कह देना आप कि मैंने नाश्ता अच्छे से किया है मैं पांच बजे तक ही घर आऊंगा, दादा!’’’ विशोक की नक़ल करते हुए अशोक ने कहा.
‘‘चल फिर तू ही खा ले खाना.’’
कुसुम ने अशोक का और अपना खाना लगाया. दोनों खाना खाने लगे. अचानक मौन तोड़ते हुए अशोक ने धीरे-से पूछा,‘‘मम्मा, अगर विशाल तुम्हें और विशोक को लेने फिर आ गए तो?’’
‘‘मैं बिल्कुल नहीं जाऊंगी. वो चाहें तो विशोक को ले जा सकते हैं, उनका बेटा है…’’ पहले वाक्य में तटस्थ और दूसरे में बुझा हुआ स्वर था कुसुम का.
‘‘मम्मा, विशू छोटा है. उसे आपके साथ तो रहना ही रहना चाहिए… पर जिस तरह मैं इस उम्र में अपनी मम्मा और पापा का प्यार पाना चाहता था, वो भी तो चाहता होगा न? और अगर विशाल आप दोनों को ले जाना चाहें तो…’’
‘‘मैं तुझे अकेला छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी आशू. एक बार तुझे बहुत अकेला कर चुकी हूं बेटा. यही दुख तो खाए जाता है कि बड़े बच्चे को पिता देने की कोशिश में शादी की तो उसे पिता का प्यार नहीं मिला और छोटे बच्चे को पिता का प्यार मिल सकता है तो मैं उसे मिलने नहीं दे रही हूं… पर जो फ़ैसला मैंने लिया है, मैं उसपर अडिग हूं. मैं विशाल के पास नहीं लौटूंगी अब.’’
’’पर मां, विशू की तो सोचो…’’
एक लंबी उसांस ली कुसुम ने और बोली,‘‘मैंने तो आते समय भी विशू से कहा था, तुम चाहो तो पापा के पास रह सकते हो, पर उसने मेरे साथ आना चुना. कभी-कभी लगता है उसे विशाल के साथ भेज ही दूं, कहीं उनकी कमी न महसूस कर रहा हो…’’
‘‘तुम्हारे बिना उसे कहीं मत भेजो मां. मैं बड़ा हूं, मैं ये भी समझता हूं कि पिता के बिना जीवन कैसा होता है और मां के बिना भी…’’
कुसुम की आंखों में पानी आ गया. आंसू बह निकले. उसने कहा कुछ नहीं, पर उसके आंसू बहुत कुछ कह गए, जिसे पढ़ भी लिया उसके बेटे ने. तुरंत अपनी जगह से उठकर अपनी मां के पास आ गया और अपने हाथों से उसके आंसू पोछकर बोला,’’आपका दिल दुखाने को नहीं कहा मैंने ऐसा, मम्मा!’’
‘‘मैं समझती हूं बेटा,’’ ख़ुद को संयत करते हुए कुसुम बोली.
फिर खाना ख़त्म होने तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला. थोड़ी ही देर में विशू आ गया तो कुसुम उसे खिलाने-पिलाने में व्यस्त हो गई. आशू अपने दोस्तों से बातचीत करने में व्यस्त रहा. शाम से रात तक के सारे काम पूरे करने के बाद कुसुम विशू के साथ सोने आ गई. विशू तो कुछ ही देर में सो गया, लेकिन कुसुम को इन दिनों अच्छे से नींद आती ही नहीं है. रातभर इधर-उधर पलटती रहती है वह. सिर भारी रहता है, आंखें भारी होकर मुंदी जाती हैं, पर नींद जैसे कहीं सैर पर निकल जाती है. एक छोटे नर्सिंग होम का ऐड्मिनिस्ट्रेशन संभालती है कुसुम. उसे पता है कि मेनोपॉज़ के समय यह सब होता है महिलाओं को, लेकिन… सिर तो अपने फ़ैसलों को लेकर भारी रहता है… हमेशा… यह भी तो पता है उसे.
इन रातों को जब वह जागती-सी रहती है, जाने कौन-कौन से ख़्याल उसे घेरे रहते हैं. हमेशा ही ख़ुद को कटघरे में खड़ा पाती है. कभी आशू के लिए कभी विशू के लिए. पर व्यक्ति को अपनी परिस्थितियों के अनुसार फ़ैसले लेने पड़ते हैं, वही उसने भी किया. हमारा लिया हर फ़ैसला सही ही हो ये ज़रूरी तो नहीं, वो कितना समझाती है ख़ुद को, लेकिन ख़ुद को ख़ुद से ही हारा हुआ पाती है. न चाहते हुए भी कुसुम अतीत के सागर में गोते लगाने लगी.
मिहिर. उसका पति, जो उसे बेइंतहा प्यार करता था. पर कोई काम नहीं करता था. लोगों के यहां काम कर के कुसुम और उसकी तीन बहनों को पालने वाली मां और मज़दूर पिता बस यही चाहते थे कि उनकी लड़कियों का ब्याह हो तो उनके ऊपर से बोझ हटे. इस ग़रीबी में अपनी मां के कामों में उसकी मदद करते हुए भी चार बहनों में तीसरे नंबर की कुसुम ने 12वीं तक पढ़ाई कर ही ली थी. पास के ही एक डॉक्टर ने उसे अपने यहां असिस्टैंट के काम पर रखा था. पगार ज़्यादा नहीं थी, पर काम लोगों के घर काम करने से बेहतर था.
कुसुम के बोझ को हटाने के लिए ही तो उसके मां-बाप ने उसकी शादी मिहिर से की थी. अरेंज्ड मैरिज थी. मिहिर केवल दो ही काम करता था- कुसुम को प्यार करना और शराब पीना. उसके घर वाले भी उसे समझा-समझाकर हार चुके थे, पर उसकी शराब नहीं छूटती थी. ऐसा भी नहीं था कि वो शराब के नशे में किसी को मारे-पीटे या अभद्रता करे. लेकिन इस लत के कारण सुबह देर से उठना और कोई काम न करना भी उसकी आदत में शामिल था. कुसुम ने भी उसे बहुत समझाया, पर कोई फ़ायदा न हुआ. इसी बीच आशू के आने की ख़बर मिली. थोड़ा बदला भी था मिहिर, लेकिन केवल कुछ महीनों के लिए. आशू चार साल का पूरा भी नहीं हुआ था कि मिहिर के पेट में दर्द उठा. भयानक दर्द. इलाज के लिए डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि पेट का कैंसर है उन्हें. शराब की लत का छुड़ाना और पेट के कैंसर का इलाज तीन महीने ही चल पाया कि मिहिर कुसुम और आशू को अकेला छोड़ इस दुनिया को अलविदा कह गया.
‘कितना कर्ज़ हो गया था मुझपर,’ कुसुम ने एक उसांस ली. तभी विशाल किसी रिश्तेदार के ज़रिए मुझ तक पहुंचे. वे दूसरी शादी करने की इच्छा रखते थे. उम्र में मुझसे दस वर्ष बड़े भी थे. बावजूद इसके जब उन्होंने कहा कि वो आशू का और मेरा ध्यान रखेंगे, हमें कोई तकलीफ़ न होगी, तभी तो ‘हां’ कहा था मैंने. वो भी आशू को सारी बातें बताकर. बस, एक सच नहीं बताया था आशू को…
कुसुम की सांसें थमने-सी लगीं. पसीने से तर-ब-तर हो गई वो. जानती है कि मेनोपॉज़ के आसपास हॉट फ़्लशेज़ होते ही हैं. बिस्तर से उठी. अपना चेहरा पोछा. एक ग्लास पानी पिया. पंखा तेज़ किया और बिस्तर पर आ बैठी. उसका हाथ अपने आप विशू के बालों को सहलाने लगा. और वह फिर अतीत की गलियों में विचरने लगी.
इतना छोटा था आशू. पांच बरस का. कैसे बताती उसे कि विशाल चाहते हैं कि मैं उनका एक बच्चा ज़रूर पैदा करूं-फिर चाहे वो लड़का हो या लड़की. दरअस्ल, उनके तलाक़ की वजह ही ये थी कि शादी के छह साल बाद तक भी पहली पत्नी से उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ था. डॉक्टरी चेकअप में कुछ पता ही नहीं चल पा रहा था, दोनों पति-पत्नी स्वस्थ थे. अपने ससुराल वालों के ताने सुनकर उनकी पहली पत्नी ने ही उनसे तलाक़ मांग लिया और दूसरी शादी भी कर ली. उस शादी के दो वर्ष के भीतर ही वह मां भी बन गई. अब विशाल के मन में यह दर्द बैठा था कि शायद वे ही पिता नहीं बन सकते हैं. मुझसे शादी करके बच्चे पैदा करने की चाह इसी बात का नतीजा थी. अन्यथा तलाक़ के बाद तीन वर्ष तक अपने परिवार वालों को शादी करने से मना ही करते रहे थे वो.
कुसुम के हाथ विशू के बालों को सहलाते रहे और उसकी सोच का क्रम अविरल चलता रहा. शादी के बाद सात सालों तक प्रयास करने के बाद भी मैं कंसीव नहीं कर पा रही थी. विशाल आशू को और मुझे इतने स्नेह से रखते थी कि मैं इस ग्लानि से भरी-भरी जाती थी कि क्यूं मैं इन्हें एक बच्चा नहीं दे पा रही हूं? हम दोनों पति-पत्नी ने इसे अपनी नियति स्वीकार कर ही लिया था कि अचानक एक दिन मुझे अपने प्रेग्नेंट होने का एहसास हुआ. बात सच थी. विशाल की ख़ुशी का पारावार न था. उन्होंने मेरा और भी ख़्याल रखना शुरू कर दिया. इस देखभाल के बीच आशू को भी तो नन्हे मेहमान के आने के लिए तैयार करना था. आशू अब तक 13 बरस का हो चुका था. उसे समझाना कठिन नहीं था. वह अपने भाई या बहन के आने को लेकर उत्साहित था, लेकिन अब मैं कभी-कभी
विशाल को आशू से ऊंची आवाज़ में बात करते देखती थी. पूछने पर कहते,‘टीनएज में आ गए बच्चे को थोड़ा अनुशासन में रखना ही पड़ता है.’ मेरा शुबहा दूर हो जाता.
विशू के जन्म के बाद हम चारों ख़ुश थे, लेकिन धीरे-धीरे मुझे यह दिखाई देने लगा कि विशाल आशू के प्रति कठोर से कठोरतम होते जा रहे हैं. मेरे समझाने पर कहते,‘बात का बतंगड़ न बनाओ.’ शाम को लौटते तो विशू के लिए कोई खिलौना होता, लेकिन आशू के लिए कुछ भी नहीं. आशू को अखरता तो मैं समझाती,’तुम बड़े हो ना, तुम्हें खिलौने की क्या ज़रूरत. तुम्हारे लिए तुम्हारे काम की चीज़ें तो लाते हैं ना पापा.’ वह समझ भी जाता. लेकिन धीरे-धीरे विशाल ने विशू और आशू के बीच बहुत फ़र्क़ करना शुरू कर दिया. चॉकलेट जैसी चीज़ भी केवल विशू के लिए ही आती. मैं कट कर रह जाती थी. अच्छी बात यह रही कि मैंने नौकरी नहीं छोड़ी अन्यथा मैं आशू का पक्ष लेने की स्थिति में भी शायद ही रह पाती.
विशू के सात साल के होने तक किसी तरह मैं परिवार में आशू-विशू और विशाल के बीच संतुलन साधने का काम करती रही, लेकिन आशू के प्रति विशाल की तल्ख़ी दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही थी. अब तो वे मुझपर सरेआम आशू को ज़्यादा स्नेह देने का आरोप लगाते. समझाने पर भी कोई असर न होता. इस बीच जो एक बात सुकूनदेह थी वो ये कि आशू, विशू को बहुत प्यार करता था और विशू आशू को. जब भी विशाल आशू को कुछ कहते तो विशू सामने आ खड़ा होता,‘पापा, आशू दादा मुझे प्यार करता है, उसे कुछ मत कहो.’ इसपर विशाल और चिढ़ जाते. कहते,‘मैं ही विशू को यह सब सिखाया करती हूं.’ और मैं आहत होकर रह जाती.
मेरे लिए तो दोनों ही अपने थे, लेकिन विशाल आशू को पराया मानने लगे. एक दिन तो झगड़ा इतना बढ़ा कि ज़रा-सी बात पर विशाल ने आशू को घर से निकल जाने को कह दिया. मैं बरस पड़ी थी उनपर. लेकिन आड़े समय में इस आदमी ने प्यार से भी तो रखा था, यह सोचकर मैंने आशू को मनाया कि अपने ग्रैजुएशन का आख़िरी बरस वो हॉस्टल में रहकर ख़त्म कर ले, ताकि विशाल और उसके बीच होनेवाले तनाव से हम सभी बच सकें. वह मान भी गया. पर मैं टूट गई थी अंदर से. मेरी अपनी रक्त-मज्जा से बने मेरे दोनों ही बच्चे मुझे बेहद अज़ीज़ थे, मैं किसी एक के बिना भी रहने तैयार नहीं थी. लेकिन…
हम एक ही शहर में थे, लेकिन आशू हॉस्टल में था. आशू का ग्रैजुएशन पूरा हो गया था, लेकिन वह घर आने को तैयार नहीं था. उसने मुझसे कहा,‘मम्मा, यहीं रहकर जॉब देख लेता हूं. फिर कभी आऊंगा घर.’ मैं जानती थी कि वह विशाल के सामने नहीं आना चाहता. इसी बीच आशू के रूममेट ने मुझे कॉल किया और बोला,‘आंटी, अशोक की तबियत ठीक नहीं है, बावजूद इसके घर नहीं जाना चाहता. आप आ जाइए.’ मैं ऑफ़िस से बदहवास-सी तुरंत घर लौटी और विशू को साथ लेकर निकल गई. रास्ते में विशाल को फ़ोन कर के बताया तो उन्होंने कहा,‘जाने की क्या ज़रूरत थी? ज़्यादा तबियत ख़राब हो तो हॉस्पिटल में भर्ती कर के लौट आना.’
आशू को लेकर मैं अस्पताल गई तो पता चला कि उसका वायरल बिगड़ गया है. तीन दिनों तक वह अस्पताल में भर्ती रहा. विशाल देखने तक नहीं पहुंचे. चौथे दिन उसे लेकर घर पहुंची तो विशाल ने पूरा घर सिर पे उठा लिया. आरोप लगाते रहे,‘विशू को अस्पताल में क्यों रुकीं? कहीं उसकी तबियत ख़राब हो जाती तो? नाटक कर रहा था आशू. तुम आशू को ही प्यार करती हो…’ और भी न जाने क्या-क्या. आशू ने मुझे बुलाकर धीमी, कमज़ोर आवाज़ में कहा,‘मां हॉस्टल लौट जाऊं क्या?’ मैं रुआंसी हो आई. ये दिन देखने होंगे मुझे आशू के लिए. उसे मना किया मैंने. बस 15 दिन और रहा होगा मेरे पास… फिर एक दिन एक नोट छोड़कर घर से चला गया- मम्मा, मुझे एक सीए के असिस्टेंट का जॉब मिल गया है. रहने के लिए कोई कमरा देख लूंगा. तुम मुझे फ़ोन करती रहना.’
मैं फूट-फूटकर रो पड़ी थी. विशाल को बताया तो बोले,‘लड़कों को जितने जल्दी घर से बाहर भेज दो अच्छा ही रहता है.’ उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि अब विशाल के साथ मेरी गुज़र नहीं हो सकती. आख़िर एक अहसान का बोझ कब तक ढोती रहूं? यूं देखा जाए तो उस अहसान के बदले में एक बेटा दे नहीं दिया मैंने? फिर भी मन मार कर विशू के लिए उनके साथ रहती रही कि कम से कम उसे तो पिता का प्यार मिलता रहेगा.
कुछ ही दिनों बाद आशू का फ़ोन आया. उसकी तबियत फिर ख़राब हो गई थी. खाना-पीना भी समय पर नहीं हो पा रहा था. विशाल से कहा कि आशू को देखने जाना चाहती हूं तो बोले,‘अब तुम आशू या फिर विशू और मैं इनमें से एक चुनाव कर लो.’ मैं चिढ़ गई. लगा अब और नहीं सहा जा सकता, अब फ़ैसला लेना ही होगा. दूसरे दिन मैंने विशू से पूछा,’विशू तुम देखते हो ना बेटा, कैसे पापा आशू भैय्या से अच्छे से बात नहीं करते. अभी आशू भइया की तबियत ख़राब है. मैं उनके पास जाना चाहती हूं. क्या तुम चलोगे या फिर पापा के साथ रहना है?’
विशू छोटा था तो ज़ाहिर है मेरा ही पक्ष लेता. मैंने अपने और विशू के कपड़े बटोरे और विशाल के नाम एक नोट लिखा- विशू को लेकर आशू के पास जा रही हूं. वो वहीं से स्कूल चला जाया करेगा.’ यह नोट छोड़कर मैं आशू के घर आ गई. विशाल ने फ़ोन किया और कहने लगे,‘तुम्हें जो करना हो करो. विशू मेरे साथ रहेगा. मैं आ रहा हूं लेने.’
वे घर आए भी, पर विशू उनके साथ न जाने की ज़िद पर अड़ा रहा और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा. वो उसे नहीं ले जा सके और लौट गए. उस दिन के बाद भी समय-समय पर आकर विशाल मुझे और विशू को घर ले जाने की बात करते हैं, पर मैंने साफ़ कह दिया है,‘यदि आशू के लिए तुम्हारे घर में जगह नहीं है तो मैं नहीं आऊंगी.’
सालभर बीत गया आशू के घर आए… और… और… और… न जाने कब कुसुम की आंख लग गई. अलार्म भी सुनाई नहीं दिया. उसकी नींद खुली, जब विशू ने उसे उठाया.
‘‘मम्मा, सेवन थर्टी हो गया. आप उठी नहीं. मेरा टिफ़िन बनाओ ना. स्कूल नहीं भेजना क्या?’’
चौंक कर उठी कुसुम. आशू को उठाया. ‘रात नींद देर से लगती है और सुबह खुलती ही नहीं,’यह सोचते हुए उसने विशू को ब्रश करने कहा और ख़ुद किचन में चली गई.
तभी घंटी बजी. ‘इतनी सुबह कौन होगा?’ यह सोचते हुए उसने आशू को आवाज़ दी,‘मम्मा मैं स्नान कर रहा हूं,’ उसकी आवाज़ आई. फिर कुसुम ने विशू को आवाज़ दी तो वह आकर सामने खड़ा हो गया.
‘‘बेटा ज़रा दरवाज़ा तो खोलो. देखो कौन आया है?’’
विशू दरवाज़ा खोलने गया, लेकिन कुछ देर तक उसकी आवाज़ नहीं आई तो कुसुम ख़ुद बाहर जाने लगी, लेकिन परदे के पीछे ही ठिठककर रुक गई. उसने देखा सामने विशाल था और विशू उससे कह रहा था,‘‘मैं आपके साथ नहीं जाऊंगा पापा. आप मुझसे प्यार करते हो, लेकिन मेरे आशू दादा से अच्छे से बात नहीं करते, ये मुझे और मम्मा को अच्छा नहीं लगता. आशू दादा को कितना बुरा लगता होगा ये भी नहीं सोचते आप? आप वापस चले जाओ. आपके आने के बाद मम्मा कितने दिनों तक रोती रहती है, आपको पता भी नहीं है. आप जाओ. मैं मम्मा से कह दूंगा कोई नहीं था. जाओ पापा…’’ यह कहते हुए आशू ने विशाल के मुंह पर दरवाज़ा बंद कर दिया.
कुसुम की आंखों से आंसू की धारा बह निकली. इन आसुओं में इस बात की पीड़ा भी शामिल थी कि विशाल आशू को नहीं अपना सके और इस वजह से उसका परिवार साथ नहीं रह सका. लेकिन विशू की इस बातचीत ने उसे समझा दिया था कि उसकी परवरिश बिल्कुल सही है, उसका निर्णय बिल्कुल सही है. कुसुम ने दौड़कर विशू को अपने गले से लगा लिया. उसके मन की वो गिरहें खुल चुकी थीं, जहां उसने इस बोझ को बांधा हुआ था कि कहीं विशू अपने पिता के प्यार से वंचित रहने को लेकर उसे अपराधी न मान रहा हो. उसने विशू को अंक में भर लिया.