हिंदी साहित्य की समकालीन परंपरा को अपने साहित्य के ज़रिए नई धारा से जोड़ने के लिए कई महिला लेखिकाएँ साहित्य सृजन में लगी हुई हैं। आइए जानते हैं उन महिला लेखिकाओं के बारे में।
चित्रा मुद्गल
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10 सितंबर 1944 में चेन्नई में जन्मीं चित्र मुद्गल हिंदी साहित्य का वह सितारा हैं, जो किसी परिचय की मोहताज नही है। उनकी रचनाओं में निम्न वर्गों के साथ दलित, शोषित वर्गों को विशेष स्थान मिला है। अगर ये कहें तो गलत नहीं होगा कि उनकी रचनाओं में, जहाँ एक तरफ निरंतर रिक्त होती जा रही मानवीय संवेदनाएं हैं, तो दूसरी तरफ नए ज़माने की रफ्तार में फँसी जिंदगी की मजबूरियाँ हैं। बचपन से विद्रोही स्वभाव की रहीं चित्रा मुद्गल की पहली कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित थी, जो वर्ष 1955 में प्रकाशित हुई थी। फिलहाल अब तक उनकी तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। गौरतलब है कि उनके उपन्यास ‘आवां’ को न सिर्फ आठ भाषाओं में अनूदित किया गया है, बल्कि देश के 6 प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित भी किया जा चुका है। सिर्फ यही नहीं ‘आवां' के लिए उन्हें वर्ष 2003 में तेरहवां 'व्यास सम्मान' भी दिया गया था, जिसे प्राप्त करनेवाली वे देश की पहली लेखिका हैं। ’आवां’ के अलावा, उनकी प्रमुख कृतियों में ‘एक जमीन अपनी’, ‘गिलिगडु’, ‘भूख’, ‘अपनी वापसी’, ‘जिनावर’, ‘लपटें’, ‘जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं’, ‘मामला आगे बढ़ेगा अभी’, ‘केंचुल’ और ‘मणीमेख’ है। वर्तमान समय में वह दिल्ली में रहते हुए अब भी साहित्य सृजन में लगी हुई हैं।
सूर्यबाला
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वर्ष 1943 में वाराणसी में जन्मीं हिंदी की आधुनिक उपन्यासकार और कहानीकार सूर्यबाला का लेखन, समकालीन हिंदी साहित्य में विशेष महत्व रखता है। 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' से हिंदी साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली सूर्यबाला किसी विचारधारा के प्रति न अंध-श्रद्घा रखती हैं और न ही विद्रोह। उनकी पहली कहानी जहाँ वर्ष 1972 में प्रकाशित हुई थी, वहीं पहला उपन्यास 'मेरे संधिपत्र' वर्ष 1975 में उनके पाठकों के बीच आया। 81 वर्षीय सूर्यबाला की अब तक 19 से भी ज़्यादा कृतियाँ, पाँच उपन्यास, दस कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह के साथ डायरी और संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में 'मेरे संधि पत्र', 'सुबह के इंतज़ार तक', 'अग्निपंखी', 'यामिनी कथा' और 'दीक्षांत' शामिल हैं। साहित्य जगत में उनके योगदान के लिए उन्हें 'प्रियदर्शिनी पुरस्कार', 'व्यंग्य श्री पुरस्कार' और 'हरिशंकर परसाई स्मृति सम्मान' से सम्मानित किया जा चुका है।
मनीषा कुलश्रेष्ठ
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हिंदी की प्रख्यात उपन्यासकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने छह बहुचर्चित उपन्यास और आठ लघु कहानी संग्रह लिखे हैं। इनमें ‘बौनी होती परछाई’ कहानी संग्रह से बहुचर्चित कहानी ‘कठपुतलियां’ का अनुवाद साहित्य अकादमी द्वारा आठ भाषाओं में किया जा चुका है। फिलहाल उनके नए बेस्टसेलर उपन्यास ‘मल्लिका’ पर जल्द ही एक बॉलीवुड फिल्म बनने जा रही है। फिलहाल वह महान कवि कालिदास द्वारा वर्णित ‘मेघदूत पथ’ से प्रेरित होकर ‘मेघमार्ग’ नामक एक यात्रा वृत्तांत लिख रही हैं, जिसके लिए उन्होंने रामगिरि से कैलाश पर्वत तक की यात्रा की है। वर्तमान समय में अपने होमटाउन राजस्थान के जयपुर शहर में रह रहीं मनीषा कुलश्रेष्ठ को उनके लेखन के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें वर्ष 1989 में ‘राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘कृष्ण प्रताप कथा सम्मान’, ‘गीतांजलि इंडो-फ्रेंच लिटरेरी प्राइज़ ज्यूरी पुरस्कार’, ‘कृष्ण बलदेव फेलोशिप’ और ‘रज़ा फाउंडेशन फेलोशिप’ प्रमुख हैं।
गीता श्री
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31 दिसंबर, 1965, मुजफ्फरपुर, बिहार में जन्मीं गीता श्री के लेखन की शुरुआत उनके कॉलेज के दिनों से ही हो गई थी। औरत की आजादी और अस्मिता की पक्षधर गीताश्री प्रसिद्ध लेखिका होने के साथ-साथ पेशे से एक पत्रकार भी हैं। सात कहानी संग्रह और चार उपन्यासों के अलावा उन्होंने नारीवाद पर चार पुस्तकें भी लिखी हैं। साहित्य जगत में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2015 में बिहार सरकार की तरफ से ‘बिहार गौरव सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है। साहित्य जगत के साथ उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए उन्हें वर्ष 2008-09 में सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकार के रूप में ‘रामनाथ गोयनका पुरस्कार’ भी मिल चुका है। फिलहाल 27 वर्षों तक विभिन संस्थानों में पत्रकारिता के नए आयाम स्थापित कर चुकीं गीता श्री वर्तमान समय में स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन कर रही हैं। गौरतलब है कि पिछले दिनों अपने नए उपन्यास ‘कैद बाहर’ को लेकर वह काफी सुर्ख़ियों में छायी थीं। ‘कैद बाहर’ के ज़रिये गीता श्री ने प्रेम और विवाह के द्वंद्व को दर्शाया है। विशेष रूप से प्रेम में हारी हुई स्त्री कैसे विवाह के कैदखाने में जाकर खत्म हो जाती है, इसे उन्होंने अलग आयु वर्ग की 5 अलग-अलग वर्गों से आयीं महिलाओं के ज़रिए दर्शाने का प्रयास किया है। ये पांचों महिलाएं एक दूसरे से अलग होकर भी किसी न किसी तरह एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
जयंती रंगनाथन
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पिछले 35 वर्षों से लेखन के साथ मीडिया से जुड़ी जयंती रंगनाथन की प्रकाशित कृतियों में ‘आस-पास से गुज़रते हुए’, ‘खानाबदोश ख्वाहिशें’, ‘औरतें रोती नहीं’, ‘एफओ ज़िंदगी’ (उपन्यास), ‘बॉम्बे मेरी जान’ (संस्मरण), ‘एक लड़की : दस मुखौटे’, ‘गीली छतरी’ और ‘रूह की प्यास’ (कहानी संग्रह) शामिल है। साहित्य जगत में उनके योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2014 में ‘सर्वश्रेष्ठ मीडियाकर्मी सम्मान’, वर्ष 2021 में ‘सर्वश्रेष्ठ युवा लेखक सम्मान’ और वर्ष 2022-23 में ‘स्वयंसिद्धा पुरस्कार’ के साथ ‘वाग्देवी पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया जा चुका है। सिर्फ यही नहीं उनके उपन्यास ‘आस-पास से गुज़रते हुए’ पर पांच से अधिक अलग-अलग यूनिवर्सिटीज़ में विद्यार्थियों ने ‘उनके लेखन में नारी चित्रण’ विषय पर पीएचडी भी की है। इन यूनिवर्सिटीज़ में आगरा यूनिवर्सिटी, एसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी (मुंबई), पुणे यूनिवर्सिटी और जम्मू यूनिवर्सिटी शामिल है। इसके अलावा 19 अध्यायों में लिखी गई अपनी किताब ‘वे नायाब औरतें’ को लेकर भी जयंती रंगनाथन काफी सुर्ख़ियों में रही हैं। इस पुस्तक के हर अध्याय में उन्होंने अपनी तरह की आज़ाद ख्याल सोच रखनेवाली आधुनिक, बुलंद ज़िद्दी, ख़ब्ती, हठी, दिलचस्प, हुनरमंद, अक्लमंद और अनोखी महिलाओं के बेहिसाब किरदारों का वर्णन किया है, जो बिना कोई ज्ञान दिए या बिना किसी वाद-विवाद में उलझे, अपनी बात कहती हैं। हालांकि इस किताब में सिर्फ स्त्रियों की ही नहीं, बल्कि कुछ मर्दों की भी दिलचस्प दास्तानें हैं, जो काफी नायाब हैं।
डॉक्टर उषाकिरण खान
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24 अक्टूबर 1945 को बिहार के दरभंगा जिले में जन्मीं डॉक्टर उषाकिरण खान ने हिंदी के साथ मैथिली में भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां लिखी हैं, किंतु उन्हें लोकप्रियता बाल साहित्य और नाटक लेखन के लिए मिली। उनकी अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उपन्यास, कहानियां, नाटक और बाल साहित्य जैसी विविध पुस्तकें शामिल हैं। इन पुस्तकों में ‘भामती’, ‘हसीना मंज़िल’, ‘घर से घर तक’, ‘हीरा डोम’, ‘लड़ाकू जनमेजय’, ‘घंटी से बान्हेल राजू’, ‘बिरड़ो आबिगेल’, ‘डैडी बदल गए हैं’, ‘विवश विक्रमादित्य’, ‘काँचहि बाँस’ उनकी प्रमुख कृतियाँ है। लेखिका होने के साथ-साथ वे एक सेवानिवृत्त अकादमिक साहित्यकार और पटना कॉलेज में प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व विभाग की विभागाध्यक्ष भी रह चुकी हैं। भारत सरकार की तरफ से वर्ष 2015 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्म श्री से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा, उन्हें ‘हिंदी सेवी सम्मान’, ‘महादेवी वर्मा सम्मान’, ‘दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘कुसुमांजलि पुरस्कार’ और ‘विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया जा चुका है। दुर्भाग्य से इसी वर्ष 2024 में 11 फरवरी को 78 वर्ष की आयु में उनका आकस्मिक निधन हो गया है।
ममता सिंह
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16 नवंबर को धुबरी, असम में जन्मीं ममता सिंह की अब तक तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें ‘राग मारवा’ और ‘किरकिरी’इन दो कहानी संग्रहों के अलावा ‘अलाव पर कोख’ उपन्यास शामिल है। अपने पहले कहानी संग्रह ‘राग मारवा’ के लिए उन्हें ‘महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘वागीश्वरी सम्मान’ से सम्मानित भी किया जा चुका है। वर्तमान समय में विविधभारती में उद्घोषिका के पद पर कार्यरत ममता सिंह की कहानियाँ, संस्मरण और लेख अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। इसके अलावा अपने ऑडियो ब्लॉग के ज़रिए वह जहाँ मशहूर लेखकों की कहानियों का वाचन करती हैं, वहीं अपने ‘बतकही’ ब्लॉग के ज़रिए अपनी कहानियां पढ़कर वे अपने श्रोताओं और पाठकों को सुनाती हैं। इलाहबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एमए और रूसी भाषा में डिप्लोमा प्राप्त कर चुकीं ममता सिंह प्रयाग संगीत समिति से ‘प्रभाकर’ भी हैं। गौरतलब है कि साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मंच-संचालन और नाटकों में अभिनय का विशेष अनुभव रखनेवाली हिंदी साहित्य के नई धारा की लेखिका ममता सिंह को बतौर सर्वश्रेष्ठ उद्घोषिका का ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ भी मिल चुका है।