ईद के मौके पर मुंशी प्रेमचंद की ऐतिहासिक और लोकप्रिय कहानी ईदगाह का जिक्र करना जरूरी है। देखा जाए, तो ईद परिवार के साथ मिल कर मनाने का त्योहार है। दरअसल, ईद अपनों के बीच सकारात्मकता फैलाने का उत्सव है। ईद का त्यौहार कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि कैसे परिवार के साथ हर हालात में भी हिम्मत के साथ आगे बढ़ा जा सकता है। हिंदी साहित्य के लोकप्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित ईदगाह एक सशक्त कहानी है जो एक कठोर परिस्थितियों की वास्तविकताओं में परिवार के जीवित रहने के साथ बलिदान पर प्रकाश डालती हैं। आइए पढ़ते हैं कहानी ‘ईदगाह’।
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आई है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है।
वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीव रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है।
आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है।
गांव में कितनी हलचल है, ईदगाह जाने की तैयारियां हो रही हैं।
किसी के कुर्ते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर से सुई-धागा लाने का दौड़ा जा रहा है।
किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है।
जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते- लौटते दोपहर हो जाएगी।
तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना भेंट करना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है, लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है।
रोज ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते, इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन। सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयां खाएंगे।
वह क्या जाने कि अब्बा जान क्यों बदहवास चौधरी कायम अली के घर दौड़े जा रहे हैं, उन्हें क्या खबर कि चौधरी आज आंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं।
महमूद गिनता है, एक-दो, दस-बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनत पैसों में अनगिनत चीजें लायेंगे-खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या।
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पांच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मां न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला, क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी, वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी ।
अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियां लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियां के घर से उसके लिए एक बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई है। इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा। उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है।
हामिद के पांव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियां और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा महमूद, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहां से उतने पैसे निकालेंगे।
अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती? इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को ? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद, उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है। उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आए, हामिद की आनंद भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है - तुम डरना नहीं अम्मा, मैें सबसे पहले जाऊंगा, बिल्कुल न डरना। गांव में मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते, फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। ये लोग इतना धीरे चल रहे हैं, हाामिद के पैरों में जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है ?शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों और अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियां लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहां से एक फर्लांग पर है। खूब हंस रहे हैं। माली को कैसे उल्लू बनाया है।
अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाह जाने वालों की टोलियां नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए, कोई इक्के-टांगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग।
ग्रामीण का वह छोटा-सा दल, अपनी विपन्नता से बेखबर, संतोषी और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थी। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हॉर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है। जिस पर जाजिम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियां एक के पीछे एक न जाने कहां तक चली गई, पक्की जगत के नीचे तक, जहां जाजिम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं, आगे जगह नहीं है। यहां कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर है। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए।
कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था, लाखों सिर एक साथ सजदे में झुक जाते हैं, फिर सब-के-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियां एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएं और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएं, विस्तार और अनंतता हद्य को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं। मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं की एक लड़ी में पिरोए हुए है।
नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है, ग्रामीणों का वह दल इस विषय से बालकों में कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है, एक पैसा देकर जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े और ऊंटों पर बैठते हैं. हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता।
खिलौनों के बाद मिठाइयां आती हैं। किसी ने रेवडियां ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा, मजे से खा रहे हैं, हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्या नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आंखों से सबकी और देखता है।
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहां कोई आकर्षण न था। वह सब आगे बढ़ जाते हैं।
हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दीदी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियां उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दीदी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होंगी। फिर उनकी उंगलियां कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा। व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। उसने दुकानदार से पूछा, यह चिमटा कितने का है? दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा,
'यह तुम्हारे काम का नहीं है जी'
बिकाऊ है कि नहीं?
तो बताते, क्यों नहीं, कै पैसे का है?
छह पैसे लगेंगे?
हामिद का दिल बैठ गया। ठीक-ठीक बताओ
ठीक-ठीक पांच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं तो चलते बनो
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा-तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़किया न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़किया नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया।
ग्यारह बजे सारे गांव में हलचल मच गई। मेले वाले आ गए, मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जो उछली, तो मियां भिश्ती नीचे आ गए और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दोनों खूब रोए। उनकी अम्मा शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चांटें और लगाए।
अब मियां हामिद का हाल सुनिए, अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहजा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
यह चिमटा कहां था?
मैंने मोल लिया है।
कै पैसे में?
तीन पैसे दिए।
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया, न पिया, लाया क्या चिमटा, सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा-तुम्हारी उंगलियां तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैेंने इसे लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है। दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा। इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहां भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला। बूढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयीं। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदें गिराती जाती थीं। हामिद इसका रहस्य क्या समझता।