‘दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, और कुछ न हो या न हो, आकाश-सी छाती तो हो’
दुष्यंत कुमार की लिखी हुई कविता ‘इन नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है’ कि ये पंक्तियां बताती हैं कि कैसे कोई व्यक्ति निराशा में भी आत्मविश्वास की डोर को थामे रखता है। हिंदी साहित्य के अत्यंत लोकप्रिय हिंदी गजलकार दुष्यंत कुमार ने कविता, गजल, कहानी और उपन्यास से साहित्य में अपने विचारों से सतरंगी रंग भरा है, जो वर्तमान में भी हिंदी साहित्य की शोभा बढ़ा रही है। आइए एक नजर घुमाते हैं दुष्यंत कुमार की कविताओं पर।
अब और न सोयेंगे हम
अब और न सोयेंगे हम
जिस दुनिया में,
अन्याय और अत्याचार है,
अब और न सोयेंगे हम,
अब और न सोयेंगे हम,
जिस दुनिया में,
गरीबी और भुखमरी है
अब और न सोयेंगे हम,
अब और न सोयेंगे हम,
जिस दुनिया में,
धर्म और जाति का भेद है
अब और न सोयेंगे हम,
अब और न सोयेंगे हम,
जिस दुनिया में
युद्ध और संघर्ष है।
हो गई है पीर पर्वत-सी
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि वे बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में।
हाथ लहराते हुए लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं
बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं।
चीड़-वन में आंधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाजुक तने हैं।
इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं।
आपके कालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं।
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं, आदमी, हम झुनझुने हैं।
अब तड़पती-सी गजल कोई सुनाए,
हमसफर ऊंघे हुए हैं, अनमने हैं।
इसे भी देखो
इसे भी देखो,
जिस दुनिया में
प्यार की बातें होती हैं,
वहां लोग एक-दूसरे से नफरत करते हैं।
इसे भी देखो,
जिस दुनिया में,
शांति की बातें होती हैं,
वहां लोग एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं।
इसे भी देखो,
जिस दुनिया में.
समानता की बातें होती हैं,
वहां लोग एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं।
इसे भी देखो,
जिस दुनिया में,
धर्म और जाति की बातें होती हैं,
वहां लोग एक-दूसरे को मारते हैं।
अपाहिज व्यथा
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूं,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूं,
ये दरवाजा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूं,
अंधेरे में कुछ जिंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूं,
वे संबंध अब तक बहस में टंगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूं।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूं।
मैं अहसास तक भर गया हूं लबालब,
तेरे आंसुओं को नमन कर रहा हूं।
समालोचकों की दुआ है मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूं।