अपने साहित्य के ज़रिए देशप्रेम, राष्ट्रवाद और सामाजिकता की छवि प्रस्तुत करनेवाले विष्णु प्रभाकर के जीवन की ऐसी कई रचनाएं हैं और घटनाएं हैं, जिनसे प्रेरणा मिलती है, आइए जानते हैं विस्तार से।
जीवन परिचय
अपने साहित्य के ज़रिए देशप्रेम, राष्ट्रवाद और सामाजिकता की छवि प्रस्तुत करनेवाले विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून 1912 को उत्तर प्रदेश स्थित मुज़फ्फरनगर के मीरापुर गाँव में हुआ था। इनके पिता दुर्गा प्रसाद धार्मिक प्रवृत्ति के उदार व्यक्ति थे और माता महादेवी एक पढ़ी लिखी आधुनिक विचारोंवाली महिला थीं, जिन्होंने अपने समय में पर्दा प्रथा का विरोध किया था। इनकी पत्नी का नाम सुशीला देवी था, जो एक गृहिणी थीं। विष्णु प्रभाकर का असली नाम विष्णु दयाल था, लेकिन हिंदी में मिले प्रभाकर उपाधि के कारण उन्हें उनके पाठक विष्णु प्रभाकर नाम से जानते हैं, जिसे रखने की सलाह उन्हें, उनके एक सम्पादक ने दी थी। विष्णु प्रभाकर की शुरुआती शिक्षा जहाँ उनके गाँव मीरापुर में हुई थी, वहीँ उनकी आगे की शिक्षा उनके मामा के गाँव हिसार में हुई, जो उस दौरान पंजाब प्रांत का हिस्सा हुआ करता था। यहीं पर नाटक मंडली में काम करते हुए उन्होंने अपना पहला नाटक लिखा और फिर लेखन को ही अपनी जीविका बना ली। गौरतलब है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर विष्णु प्रभाकर ने अपनी शिक्षा और परिवार का खर्च उठाने के लिए एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के रूप में भी काम किया, जहाँ उनकी तनख्वाह 18 रुपये महीने थी। इस काम को करते हुए उन्होंने न सिर्फ अपनी बी ए की डिग्री हासिल की, बल्कि हिंदी में प्रभाकर और हिंदी भूषण के साथ संस्कृत में प्रज्ञा की उपाधि भी हासिल की।
स्वतंत्रता संग्राम में रही खास भूमिका
स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेनेवाले विष्णु प्रभाकर देश को आज़ादी मिलने के बाद सपरिवार दिल्ली आकर बस गए थे। वर्ष 1955 में उन्होंने आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक का पदभार संभाला था। यहाँ दो वर्ष काम करके उन्होंने इस ज़िम्मेदारी से मुक्ति ले ली थी और लेखन में सक्रिय हो गए थे। महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों से प्रभावित विष्णु प्रभाकर स्वतंत्रता संग्राम में अपनी लेखनी के साथ मज़बूती से डंटे हुए थे। अपने दौर के प्रसिध्द लेखकों प्रेमचंद, यशपाल, जैनेन्द्र और अज्ञेय के साथ चलते हुए भी अपनी रचनाओं से उन्होंने अपनी एक अलग ज़मीन तैयार की, जिस पर आज भी उनकी कीर्तिपताका लहरा रही है।
लेखन की शुरुआत
विष्णु प्रभाकर के लेखन की शुरुआत वर्ष 1931 में हिंदी मिलाप में पहली कहानी 'दिवाली के दिन' प्रकाशित होने के साथ हुई थी। लघु कथाएँ, उपन्यास, नाटक, यात्रा संस्मरण और बाल कहानियों सहित साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं है, जिस पर विष्णु प्रभाकर की कलम न चली हो। ‘अर्धनारीश्वर’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, लेकिन उन्हें प्रसिद्धि मशहूर बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ लिखने से मिली थी। इस जीवनी ने साहित्य के क्षेत्र में उन्हें जिस मुकाम पर बिठाया, उसे आज तक कोई डगमगा नहीं पाया है। यह बात भी दिलचस्प है कि इसे लिखने की सलाह उन्हें उनके ही एक सम्पादक मित्र नाथूराम शर्मा 'प्रेम' ने दी थी। उनकी ही प्रेरणा से विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र को जानने के लिए न सिर्फ बांग्ला भाषा सीखी, बल्कि उन्हें करीब से जाननेवाले सभी श्रोतों तक गए। यह उनकी मेहनत का ही नतीजा था कि 'आवारा मसीहा' न सिर्फ उनके द्वारा लिखी गई चर्चित जीवनी बनी, बल्कि इस जीवनी के लिए उन्हें 'पाब्लो नेरुदा सम्मान' के साथ 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' जैसे कई नामी विदेशी पुरस्कार भी मिले।
सामाजिक सरोकार वाले विष्णु
युवावस्था से ही सामाजिक सरोकार से जुड़े विष्णु प्रभाकर ने समाज में फैली गलत बातों के खिलाफ हमेशा आवाज़ उठाई और उनका यही जज़्बा वृद्धावस्था तक कायम रहा। विशेष रूप से राष्ट्रपति भवन में अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने मिले अपने पद्मभूषण की उपाधि को वापस करने की घोषणा करके सबको चौंका दिया था। गौरतलब है कि वर्ष 2003 में मिले देश के तीसरे बड़े सम्मान ‘पद्म भूषण’ के अलावा विष्णु प्रभाकर को अपने लिखे प्रसिद्ध नाटक 'सत्ता के आर पार' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मूर्ति देवी पुरस्कार' सहित हिंदी अकादमी, दिल्ली की तरफ से 'शलाका सम्मान' भी मिल चुका है।
दिलचस्प देवदास कनेक्शन
कहते हैं जब संजय लीला भंसाली ने 2002 में देवदास फिल्म बनाई थी, तो उपन्यासकार विष्णु प्रभाकर बेहद दुखी हुए थे, क्योंकि कोई भी पात्र शरतचंद्र के उस कालजयी उपन्यास के आस पास भी नहीं पहुँचा था। वह इस बात से भी व्यथित थे कि पात्रों के अलावा उसकी कहानी को भी काफी तोड़ा मरोड़ा गया था। यही वजह है कि इस सिलसिले में उन्होंने अपने उपन्यास का हवाला देते हुए संजय लीला भंसाली के साथ फिल्म में देवदास और पारो का किरदार निभानेवाले शाह रुख खान और ऐश्वर्या राय को चिट्ठी भी लिखी थी, लेकिन बतौर लेखक उनके कद को नज़रअंदाज़ करते हुए किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। गौरतलब है कि उसी दौरान उन्हें ‘पद्म भूषण’ पुरस्कार भी मिला था सो इस सिलसिले में उन्होंने इसकी शिकायत कुछ मंत्रियों से भी की थी, लेकिन उनकी बात को अनसुना कर दिया गया था। देश में लेखकों की स्थिति से परिचित विष्णु प्रभाकर ने फिर कभी इस पर किसी से कोई बात नहीं की। यह वाकई अफसोस की बात है कि शरतचंद्र की जीवनी कहे जानेवाले चर्चित कृति 'आवारा मसीहा' को लिखने से पहले कलकत्ता से बर्मा तक की खाक छाननेवाले, शरतचंद्र के कुछ पात्रों से मुलाकात करनेवाले, जिनमें कभी शरतचंद्र की यादें समाई थीं, उन गलियों और घरों को बेहद करीब से देखनेवाले विष्णु प्रभाकर को सभी ने सिरे से नकार दिया था।
जीवन के आखिरी पल
आखिरकार हिंदी साहित्य जगत को एक विशाल और समृद्ध खज़ाना सौंपनेवाले महान लेखक विष्णु प्रभाकर 11 अप्रैल 2009 को हम सभी को अलविदा कह गए! उन्होंने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया। अपनी कालजयी रचनाओं से सुधि पाठकों, समालोचकों और साहित्य-साधकों के मानस-पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़नेवाले विष्णु प्रभाकर जाते-जाते भी समाज के हित में अपना अमूल्य योगदान कर गए।
बहुचर्चित लघु कथा ‘फ़र्क’
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था लेकिन अकेला नहीं था। पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, “उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।”
उसने उत्तर दिया,”जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?” और मन ही मन कहा- “मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में है।”
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें ‘मुबारकबाद’ कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल– “इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।”
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा– “बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक़्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।”
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा– “ये आपकी हैं?”
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया– “जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।”