हिंदी और मैथिली की प्रख्यात लेखिकाओं में सबसे ऊपर नाम आता रहा है, उषा किरण खान का। बीमारी के कारण उनका निधन 82 वर्ष की आयु में हो गया, लेकिन अपनी लेखनी और अपने विचारों के जरिए उषा किरण खान की महक साहित्य की दुनिया में हमेशा सदाबहार रहेगी। अपनी रचनाओं से उन्होंने हमेशा से ही हिंदी और मैथिली साहित्य की महक को बरकरार रखा है। उन्होंने न केवल महिलाओं को अपने साहित्य में स्थान दिया, बल्कि गांव और किसानों के महत्व को भी अपने साहित्य में मौजूद रखा। आइए जानते हैं विस्तार स।
स्वतंत्रता सेनानी की बेटी
उषा किरण खान के पिता जगदीश चौधरी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी रहे हैं, लेकिन किसी परिस्थिति के कारण उनका बचपन अपने ननिहाल में बीता, जहां उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की और मैथिली साहित्य के बाद हिंदी साहित्य की सफलता पूर्वक सीढ़ियां चढ़ी। अपने साहित्य जीवन में उन्होंने लेखन की शुरुआत 1977 से की। उन्होंने कई सारे उपन्यास लिखें और उनके प्रमुख उपन्यास के बारे में बात की जाए, तो ‘विवश विक्रमादित्य’, ‘दूबधान’, ‘गीली पांक’, ‘कासवन’, ‘जलधार’, ‘जनम अवधि’, ‘घर से घर तक’, ‘खेलते गेंद गिरे यमुना में’, ‘मौसम का दर्द’, ‘गई झूलनी टूट’, ‘फागुन के बाद’, ‘पानी की लकीर’, ‘सीमान्त कथा’, ‘रतनारे नयन’, ‘गहरी नदिया नाव पुरानी’, ‘कहां गए मेरा उगना’, ‘हीरा डोम’, ‘प्रभावती’, ‘एक निष्काम दीप’, ‘मैं एक बलुआ प्रस्तर खंड’, ‘’सिय पिय कथा जैसी कई सारी लेखनी है, जिसके साथ साहित्य में उषा किरण खान हमेशा के लिए बनी रहेंगी।
मैथिली और बाल साहित्य
मैथिली में भी उनकी लिखी हुई कई किताबें प्रकाशित हुई है। प्रमुख तौर पर ‘गोनू झा क्लब’, ‘सदति यात्रा’, ‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘हसीना मंजिल’, ‘भामती- एक अविस्मरणीय प्रेम कथा’, ‘मनमोहना रे’ उपन्यास और नाटक ‘संग्रह फागुन’, ‘भुसकौल बला’ शामिल है। उल्लेखनीय है कि उन्होंने बाल साहित्य में भी अपनी दिलचस्पी दिखाई है। दोनों भाषाओं में उनकी लिखी हुई कई सारी पुस्तकें मौजूद हैं। उन्होंने न केवल हिंदी और मैथिली में, बल्कि उड़िया, बांग्ला, उर्दू के साथ अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में भी साहित्य लिखा है और लोकप्रियता हासिल की है। अपनी लेखनी के कारण उन्होंने कई पुरस्कार भी हासिल किए हैं। मुख्य तौर पर उन्हें साल 2010 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। साल 2019 में उन्हें भारत भारती पुरस्कार मिला, वहीं साल 2015 में उषा किरण खान को पद्मश्री से भी विभूषित किया गया। उन्होंने ‘डैडी बदल गए’, ‘नानी की कहानी’, ‘सात भाई’, ‘चिड़ियां चुग खेत’ के साथ अन्य बाल नाटक भी लिख चुकी हैं। ज्ञात हो कि लेखनी की धारा प्रवाह को देखते हुए ही डॉ उषा किरण खान को उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े साहित्यकारों में स्थान दिया गया है।
उषा किरण खान की रचनाएं
उषा किरण खान की रचनाओं पर बात की जाए, तो ‘पीड़ा के दंश’ में उन्होंने अपनी लेखनी से नैतिकता के मापदंड बदल दिए हैं, वहीं ‘अड़हुल की वापसी’ प्रेम कहानी में उन्होंने ठेठ गांव के प्रेम को अपनी लेखनी की खुशबू से बांधा है। उषा किरण ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि कहानी खुद उन्हें लिखने का रास्ता बताती थी, हालांकि फणीश्वरनाथ रेणु की रचानओं ने हमेशा से उषा किरण खान को प्रभावित किया है। उषा किरण खान को कहानी लिखने की प्रेरणा में फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं से मिलती रही है। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था।
उषा किरण की रचना ‘गांव को गांव रहने दो’
उषा किरण की कई सारी रचनाओं में से उनकी सबसे लोकप्रिय रचना ‘गांव को गांव रहने दो’ की कुछ पंक्तियां यह बताती हैं कि कैसे उन्होंने अपनी लेखनी में गांव की महक को जिंदा रखा है। उनकी लिखी हुई कहानी ‘गांव को गांव रहने दो’ की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है कि आपने देखा है, आपका घर मिट्टी में मिल गया है, बिल्ली भी वहां रोने नहीं जाती है। कोई आपका नाम भी नहीं लेता। शुक्र है कि आपकी बेटी लौट कर नहीं आई वरना आपका गुस्सा उस पर उतारते लोग। बात करते हैं। अरे परलोक गए अब तो सुधरिए। यहां आपसे मिलने नहीं आते हैं लोग, काहे बाबूजी से लटक के चले आते हैं, रीता ने आक्रोश से भरकर कहा। तीनों चौंक गए। एक दिन अचानक चांदनी रात को बाबूजी की आत्मा गांव सिमान भ्रमण करने आई। साथ में न जाने क्यों नटवरलाल लग गये। भोले भाले सीधे सज्जन बाबूजी कुछ न बोले। मुर्ति से गुजरकर आ रहे थे सो उमाकांत सिंह भी साथ हो लिए। बाबूजी की आत्मा गांव में ही रहती थी। उमाकांत सिंह की तो नॅाल ही गड़ी थी और नटवरलाल पिछलगू हो अपना पाप धो रहा था। तीनों के सपने आने शुरू हो गए उमा बहू और नीरो को फिर तो सभी पूनों को मिलने का वादा सा हो गया। इस कहानी में उन्होंने एक वाक्य यह भी लिखा है कि परिवर्तन हो पर गांव को गांव ही रहने देना। उल्लेखनीय है कि उषा किरण खान ने अपनी रचनाओं में पाठकों को घर के साथ गांव दिखाया है। उन्होंने कई बार इसका जिक्र खुद भी किया है कि जिंदगी की कहानी गांव के अंदर ही है। उन्होंने कई सारी कालजयी रचनाएं लिखीं। उन्होंने न केवल गांव और किसानों को अपनी लेखनी में जगह दी, बल्कि गांव में महिलाओं की दशा पर भी लिखा।
उषा किरण की कहानियों में संवेदनाएं
उषा किरण की लेखनी बोल-चाल की भाषा में रही है। जिसे समझना और उसके अंदर समाहित होना हर पाठक के लिए आम है। अपने साहित्यिक सफर में उषा किरण खान ने एक कहानी’ दूब-धान है’, जिसे उषा किरण खान की सिग्नेचर कहानी भी कहा जाता है। उनकी यह कहनी गंगा-जमुना संस्कृति की मिसाल माना जाता है। अपनी कहानी लेखनी के बारे में एक दफा उषा किरण ने कहा था कि अपने जीवन अनुभव से मैंने समाज में जो देखा है, उसी को कहानियों का विषय बना दिया है। अपनी कहानी ‘दूब-धान’ में उषा किरण ने प्रकृति और विज्ञान को लेकर चिंता जताई है, जो कि पर्यावरण की हानि का संदेश देती है। उन्होंने दूब-धान में लिखा है कि
अमिय चुबिय भूमि खसत, बाघम्बर जागत है
आहे होयत बाघम्बर बाघ, बसहा घरि खायत है।
उपरोक्त पक्तियों का अर्थ है कि जब पार्वती, शिव को नृत्य करने के लिए कहती हैं, तो अपने डर को बतलाते हुए कहती हैं कि शिव के द्वारा नाचने से अमृत बूंदें बाघम्बर पर गिरेंगी और बाघम्बर बाघ बन जाएगा और बसहा बैल को खा जाएगा। आज विज्ञान शिव तांडव कर रहा है। विज्ञान का आविष्कार टैक्टर है। टैक्टर ने बेलों को बेकार कर दिया है। आज कोई भी किसान बैल को रखना नहीं चाहता है। इन गहरी लेकिन जरूरी लेखनी के जरिए उषा किरण आधुनिकता की आंधी में खो चुके समाज पर रोशनी डालते हुए चिंता जता रही हैं। उषा किरण खान की लेखनी को लेकर यह भी कहा जाता है कि वह अपने कहानी के हर किरदार के साथ खुद को स्थापित रखते हुए उसकी बुनाई करती थीं। उषा किरण ने अपनी कहानी ‘मोती बे-आब’ में साहित्यिक दुनिया को बखूबी प्रस्तुत किया है। इस कहानी में दिखाया गया है कि कवि जिस दफ्तर में काम करता है, वहां के लोग उसकी कीमत नहीं समझ पाते हैं और घर पर भी उसका वही हाल है। उन्होंने अपनी इस कहानी में नैरेटर के तौर पर हर जगह खुद को मौजूद रखा है, जो कि कहानी को सहज और प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करता है और कहानी के हर वाक्य पर उनकी मजबूत पकड़ दिखाई पड़ती है। ठीक इसी तरह उन्होंने बाल साहित्य में भी अपनी छाप छोड़ी है। ‘नटयोगी’ कहानी में उन्होंने एक ऐसे बच्चे को दिखाया है, जिसे उसके माता-पिता ने पैसे की कमी के कारण एक व्यवसायी के पास काम करने के लिए भेजा है। इस कहानी में उषा किरण खान ने मां-बाप की मजबूरी को दिखाया है, जो बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन पैसे न होने के कारण उसे कमाने के लिए भेज देते हैं। इस कहानी में उषा किरण ने बच्चे के साथ उसके माता-पिता की भावनाओं को भी बखूबी पेश किया है।
विदित हो कि उषा किरण की हर कहानी में मुशी प्रेमचंद की पीड़ा और फणीश्वरनाथ रेणु की संवेदना एक साथ देखने को मिलती है। इसी वजह से उषा किरण खान को साहित्य की दुनिया में फणीश्वरनाथ रेणु और मुशी प्रेमचंद्र की दूसरी कलम भी कहा जाता है और उनके निधन के बाद इस रिक्त स्थान को कोई अन्य साहित्यकार नहीं भर सकता है।