साहित्य और समाज का संबंध सदियों से काफी घनिष्ठ रहा है, यही वजह है कि हिंदी साहित्य में ऐसे कई साहित्यकार हुए, जिन्होंने अपनी कृतियों में सामाजिक मूल्यों को प्रधानता दी। इन साहित्यकारों में सबसे प्रमुख नाम मुंशी प्रेमचंद का रहा है। आइए एक नज़र डालते हैं, उनकी समस्त कहानियों में दर्शाये गए या बिखेरे गए सामजिक मूल्यों पर।
हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी
हिंदी साहित्य में आधुनिक युग की शुरुआत 1900 के लगभग हुई थी और प्राप्त कृतियों के अनुसार ये कहना गलत नहीं होगा कि उस दौरान हिंदी साहित्य, जादुई कहानियों, परी कथाओं और प्रेम के इर्द-गिर्द रचा गया था। तभी हिंदी साहित्य के ‘टॉलस्टॉय’ कहे जानेवाले मुंशी प्रेमचंद ने इन सबके विपरीत समाज की वास्तविकता को यथार्थवाद के ज़रिए पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया और हिंदी साहित्य का परिदृश्य बदल गया। हालांकि उनसे पहले भी कई साहित्यकार समाज हित में रचनाएं कर रहे थे, लेकिन जिस मुखरता से मुंशी प्रेमचंद ने समाज को, समाज का आईना दिखाया, वो काबिल-ए-ग़ौर है। यही वजह है कि एक उपन्यासकार, कहानीकार और नाटककार के रूप में साहित्य जगत को एक नया आयाम देने वाले उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद आज भी करोड़ों पाठकों की पहली पसंद हैं।
‘सेवासदन’ से की शुरुआत
17 उपन्यासों और 300 से अधिक कहानियों के साथ पिछले सौ वर्षों से जनमानस में अपनी गहरी छाप छोड़नेवाले मुंशी प्रेमचंद ने अपने साहित्यिक करियर की शुरुआत एक स्वतंत्र लेखक के रूप में की थी। तब वे नवाब राय नाम से उर्दू में लिखते थे, लेकिन जब ब्रिटिश सरकार ने उनके लघु कथा संग्रह ‘सोज़-ए-वतन’ को ज़ब्त कर उसे जला दिया, तब उन्होंने हिंदी में लिखना प्रारंभ किया। कई कहानियां और लघु कहानियां लिख चुके मुंशी प्रेमचंद ने अपना पहला उपन्यास सेवासदन लिखा था। इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसमें मुंशी प्रेमचंद ने स्त्री पराधीनता, वेश्या जीवन, दहेज प्रथा और मध्यम वर्ग की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों को प्रमुखता से चित्रित करते हुए उसका समाधान भी प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास ने मुंशी प्रेमचंद को न सिर्फ एक हिंदी उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया, बल्कि सारे उपन्यास साहित्य को एक नई दिशा भी दी।
सामाजिक मूल्यों के पारखी थे मुंशी प्रेमचंद
अपनी हर कहानी के ज़रिए मुंशी प्रेमचंद ने समाज में फैले अन्याय, बेईमानी, धोखेबाज़ी, अनाचार, धार्मिक आडंबर, छूआछूत और इनसे उपजी विपन्नता को दर्शाया है। सिर्फ यही नहीं समाज से चुने अपने पात्रों को उन्होंने समाज में खड़े करके ऐसे-ऐसे सवाल पूछे हैं, जिनमें से कुछ आज के आधुनिक समाज में भी प्रासांगिक हैं। अपनी कहानियों के माध्यम से सामंती व्यवस्था, जमींदारी व्यवस्था, जाति व्यवस्था, गरीबी, सांप्रदायिकता के साथ सामजिक और आर्थिक स्थितियों के खिलाफ भी आवाज़ उठाई। सिर्फ यही नहीं, महिलाओं के विरुद्ध हो रहे भेदभाव के ख़िलाफ़ भी उन्होंने अपनी कलम चलाई। विशेष रूप से दलित समाज और छूआछूत की हृदयविदारक, जिन दास्तानों को उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वो आज के आधुनिक सभ्य समाज में अब भी मौजूद है।
मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में समाज और उनके सामाजिक मूल्य
मुंशी प्रेमचंद ने सामाजिक संदर्भ और परिवेश में व्यक्ति के अस्तित्व और मूल्य को स्वीकार करते हुए यथार्थवादी चित्रण के साथ समस्याओं का विश्लेषण भी किया है। उन्होंने मनोरंजन के लिए नहीं, समाज की बेहतरी के लिए रचनाएं की। ऐसे में उनका सामाजिक यथार्थवाद, दूसरे लेखकों की तुलना में काफ़ी प्रगतिशील और सकारात्मक नज़र आता है। उनकी कहानियों में सामाजिक मूल्यों के साथ भावनाएँ प्रधान थीं। उन्होंने अपनी कहानी में मनुष्यों की अलग-अलग सोच के साथ मानवता को स्थान दिया।
दलित समाज को अजर-अमर बना दिया
सामाजिक मूल्यों से भरपूर प्रेमचंद की अधिकतर कहानियाँ दलित समाज की करुण गाथा है, जिनमें सदियों से अपने ऊपर हो रहे अन्याय को दलित समाज ने उच्च वर्ग की मेहरबानी और अपनी नियति समझकर उनके साथ मानो समझौता कर लिया है। हालांकि कई जगह पर अपने पात्रों के ज़रिए दबे शब्दों में दलितों की उपेक्षा को उन्होंने ईश्वर का कर्मफल भी बताया है, लेकिन फिर उस पर आघात भी किया है। मार्मिक दृश्यों को अपनी कलम से उजागर करने में मुंशी प्रेमचंद का कोई सानी नहीं था, लेकिन बहुत कम कहानियाँ है, जहाँ उनके पात्र व्यवस्था पर चोट करते नज़र आते हैं। हाँ, उनकी कहानियों में स्त्री पात्रों ने अपने संघर्ष के साथ विरोध को काफी मुखरता से प्रस्तुत किया है।
मुंशी प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ
उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में दो बैलों की कथा, पूस की रात, नमक का दरोगा, दुनिया का सबसे अनमोल रत्न, ठाकुर का कुँआ, कायर, पंच परमेश्वर, मैकू, शिकार, ईदगाह, बड़े घर की बेटी, कर्मों का फल, बूढ़ी काकी, कफ़न, नशा, सवा सेर गेहूँ, स्वामिनी, गुल्ली डंडा, दुर्गा का मंदिर, दो भाई, जुलूस, समर यात्रा, हार की जीत, परीक्षा, सच्चाई का उपहार, धर्मसंकट, विषम समस्या, उपदेश, मंत्र, सेवा-मार्ग, बड़े भाई साहब, बंद दरवाज़ा, त्रिया-चरित्र, कातिल, क्रिकेट मैच, इस्तीफा, सज्जनता का दंड, सौत और आत्माराम हैं।
बहुचर्चित कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’
जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है।
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बतायेंगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं। बोली- यह पानी कैसे पियोगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लायेगी?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।
रात के नौ बजे थे। थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ निकल गये। कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने ढंग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची ।
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख लें तो गजब हो जाय। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?
कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी। इनमें बात हो रही थी।
‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’
‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।’
‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’
‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’
‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते- करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।’
दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा भी आवाज न हुई। गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।